विष्णु खरे के न होने से अचानक यह अहसास हो रहा है कि उनके बिना हिंदी का बौद्धिक परिदृश्य कितना सूना होगा। विष्णु खरे हिंदी साहित्य में एक स्थायी प्रतिपक्ष थे। आप उन्हें लेकर आश्वस्त रह सकते थे कि साहित्य में जो कुछ घट रहा है उसके ठीक विपरीत स्टैंड लेने के लिए विष्णु खरे मौजूद होंगे। हिंदी साहित्य का माहौल इन दिनों “अहो रूपम, अहो ध्वनिम” से व्याप्त है जहां हर ओर कुछ ज्यादा ही मिठास है। लेखक एक दूसरे की और दूसरों के लिखे की आलोचना सिर्फ़ शाम की बैठकी के दौरान ही करते हैं, जबकि सिर्फ़ विष्णु खरे सार्वजनिक रूप से किसी को मूर्ख और वाहियात लेखक कह या लिख सकते थे। इस तरह वे हिंदी साहित्य में कड़वाहट और तीखेपन का ज़रूरी स्वाद लाकर अतिरिक्त मिठास की मधुमेह से रक्षा करते थे।
विष्णु खरे को इस तरह चौंकाने और डराने में किसी शरारती बच्चे सा मज़ा आता था, लेकिन वे सनसनी फैलाकर यश कमाने के इच्छुक नौजवानों की तरह बौद्धिक रूप से हल्के नहीं थे। वे बहुत पढ़े-लिखे, गंभीर और विचारवान लेखक थे और उनके हर तरह के लेखन में यह दिखता था। वे अपनी पीढ़ी के बहुत अलग क़िस्म के महत्वपूर्ण कवि थे जिनकी गद्यात्मक लगती कविताएं बहुत महीन ब्यौरों, जटिल भावों और विचारों के लिए उल्लेखनीय हैं। यह कहा जा सकता है कि अपनी तीखी ज़ुबान और क़लम से उन्होने जो दुश्मनियां बनाईं, उस वजह से उन्हें साहित्य में वह जगह नहीं मिली जिसके वे हक़दार थे। सिनेमा में भी उनकी गहरी दिलचस्पी और समझ थी। अंग्रेज़ी दैनिक “द पायनियर” में विनोद मेहता के संपादकत्व के दौरान कुछ वक्त तक उन्होने जो फ़िल्म समीक्षाएं लिखीं, उनका सानी मिलना मुश्किल है।
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मेरी विष्णु खरे से पहली मुलाक़ात हुए क़रीब चालीस बरस हो गए। चंद्रकांत देवताले उनके सबसे करीबी मित्र थे और देवताले जी से मेरी काफी घनिष्ठता थी। दोनों मित्रों के स्वभाव एकदम पूरब-पश्चिम थे। देवताले बहुत आत्मीय व्यक्ति और स्वत:स्फूर्त कवि थे, वहीं विष्णु खरे अक्खड़ व्यक्ति और बौद्धिक कवि थे। दोनों मित्रों का ख़ूब झगड़ा होता था और फिर दोस्ती हो जाती थी। विष्णु खरे को लगता था कि देवताले निहायत भोले और ग़ैर-दुनियादार आदमी हैं और उन्हें देवताले जी का अभिभावक की तरह ख़्याल रखना है। देवताले उनके इस अतिरिक्त अभिभावकत्व से चिढ़ जाते थे और दोनों का झगड़ा हो जाता था। विष्णु जी का कथाकार शानी से भी ऐसा ही कुछ रिश्ता था। लोग बताते हैं कि शानी जी से उनका झगड़े और दोस्ती का क्रम दैनिक स्तर पर चलता था। इस तरह के उनके रिश्ते और भी तमाम लेखकों से थे, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि रिश्ते थे और बने रहते थे, टूटते नहीं थे। जब वे अपनी बीमारी में गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती थे तो लेखकों ने जैसी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं, उनसे यह पता चलता है कि विष्णु खरे उनके लिए कितने मूल्यवान थे। उनके जैसा और कोई नहीं हो सकता।
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