तो साहब, ये है मेरा हिंदुस्तान, मेरा वतन, मेरी मातृभूमि! इसी दिल्ली में रहते हैं- वकील हसन। यह नाम सुनकर दिमाग की घंटी बजी? नहीं बजी होगी। मामूली लोग बड़ा काम करें तो भी दिल-दिमाग की घंटी अकसर नहीं बजती। और अगर वह मुसलमान हो तो बज कर भी नहीं बजती! यही तो पिछले दस साल की देश की ' सबसे बड़ी उपलब्धि ' है, यही ' सबका साथ ,सबका विकास ' है, मोदी की गारंटी है! वकील हसन के साथ साहब जोड़ना चाहें तो भी जोड़ नहीं सकते। साहब होने की पात्रता उनमें है नहीं। सब कुछ के बावजूद कुल मिलाकर वह एक मजदूर हैं। उनकी एक छोटी-सी कंपनी राकवेल इंटरप्राइजेज जरूर है मगर वह इतनी बड़ी भी नहीं है कि उसके मालिक का सबसे बड़ा 17 साल का बेटा तक उसमें खप सके। वह कहीं वेल्डिंग करता है।
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मजदूरों से भी कभी- कभी बड़े 'गुनाह' हो जाते हैं। वकील हसन से भी एक बहुत बड़ा 'गुनाह' हो गया है। उन्होंने पिछले वर्ष नवंबर में उत्तराखंड में सिलक्यारा-बारकोट सुरंग में 17 दिन से फंसे 41 मजदूरों की जान, पुराने ढंग की रेट होल माइनिंग तकनीक से बचाई थी। अकेले उन्होंने नहीं बल्कि उनके साथ के सभी हिंदू और मुसलमान मजदूरों ने मिल कर। जब बड़ी- बड़ी मशीनें और बड़े- बड़े विशेषज्ञ उन मजदूरों की जान बचाने में नाकामयाब हो गए थे, तब वकील हसन अपनी छोटी सी टीम के साथ आगे आए।
उन्होंने एक- एक मजदूर की जान बचाने में सफलता हासिल की। इससे सब खुश हुए। इस टीम और रेट होल माइनिंग के देश में सब तरफ गुण गाए गए! प्रधानमंत्री भी बहुत प्रसन्न थे। फोन से उन्होंने इन मजदूरों का हालचाल जाना। इनकी मानवीयता तथा टीम वर्क की प्रशंसा की मगर उनके पास इतना समय नहीं था कि इन्हें दिल्ली बुलाते, वकील हसन और बाकी मजदूरों को शाबाशी देते, उनके साथ फोटो खिंचवाते! यह कोई क्रिकेट टीम तो थी नहीं। इसने न विश्व कप जीता था, न हारा था। तो प्रधानमंत्री इनके लिए अपना अमूल्य समय कैसे निकाल पाते!
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वकील हसन का बस इतना -सा ' गुनाह ' था कि वह इस टीम के सरगना थे। उन्होंने ही यह पहल की थी। वह अगर मजदूरों को बचाने का ' गुनाह ' नहीं करते तो उन्हें कोई इसका दोष भी नहीं देता मगर हो गया उनसे यह ' गुनाह '! खास बात यह कि एक मुसलमान से हो गया ऐसा 'गुनाह ' और वह भी गरीब मजदूरों की जान बचाने जैसा अक्षम्य अपराध! ये मजदूर अगर मर भी जाते तो किसी भी सरकार की सेहत पर इससे क्या फर्क पड़ता! रोज ही तो ऐसे जवान किसी न किसी हादसे में कहीं न कहीं मरते रहते हैं! ये भी मर जाते तो क्या हो जाता! एक दिन ये अखबारों की मुख्य खबर बन जाते! टीवी चैनलवालों को ऊपर से आदेश मिलता कि इन पर थोड़ा रोना- गाना कर लेना तो वे बेचारे कर लेते! आदेश नहीं होता तो इग्नोर मार देते!
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वकील हसन के इस 'गुनाह ' को वैसे माफ किया जा सकता था मगर हमारी सरकार बहुत ' न्यायप्रिय ' है! वह कैसे इस ' गुनाह ' को माफ कर सकती थी! और अगर ' गुनाहगार ' मुसलमान है तो फिर क्षमा करने का सवाल ही नहीं क्योंकि इससे देश के बहुसंख्यकों में यह गलत संदेश जाता कि देखो, यह सरकार भी अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने लगी है। अपने ' आदर्श ' से विचलित हो गई है!जो गलती कांग्रेस और दूसरी सरकारें कर चुकीं, वही गलती हमारी यह हिंदूवादी सरकार भी कर रही है! तो सरकार ने अपनी 'न्यायप्रियता ' दिखाते हुए उस समय बुलडोजर चलवा दिया, जब घर में कोई बड़ा नहीं था, सिर्फ बच्चे थे।
दिल्ली विकास प्राधिकरण के अनुसार यह घर उसकी जमीन पर बना था। यही अकेला क्या, दिल्ली की एक हजार से अधिक कालोनियां अवैध कहीं जानेवाली जमीन पर बनी हैं,जैसे कि अमीरों का सैनिक फार्म भी बना है मगर तोड़ा गया, यही एक अकेला मकान!'न्याय ' है साहब, यही तौ ' न्याय' है ! अगर इस प्राचीन, महान और जगद्गुरु देश में ' न्याय ' नहीं होगा तो फिर कहां होगा? फिर तो दुनिया से ' न्याय ' तो कहां होगा वरना दुनिया से न्याय का जनाजा ही उठ जाएगा। आज पूरे विश्व में भारत ही तो अकेला देश है, जिसकी ओर बड़ी 'आशाओं ' से देखा जा रहा है! दुनिया को निराश तो नहीं किया जा सकता था न! देश की सरकार की 'न्यायप्रियता ' पर दुनिया को संदेह करने की इजाज़त तो नहीं दी जा सकती थी न!देश की' प्रतिष्ठा ' के साथ खिलवाड़ तो नहीं होने दिया जा सकता था न!
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तो साहब उनके नाम में वकील जरूर है मगर वकील हसन, वकील तो हैं नहीं और होते तो भी क्या कर लेते? तो वकील हसन को उत्तराखंड में की गई सेवा का इस प्रकार पुरस्कार दे दिया गया है। देर से दिया मगर समुचित पुरस्कार दे दिया गया है। इसे शायद पद्मश्री पुरस्कार माना जा सकता है! सरकारी काम में देर तो हो जाती है मगर केंद्र सरकार की नीयत चूंकि बिलकुल साफ़ है तो अंधेर नहीं हुआ! कोई भी नागरिक अच्छा काम करे, फिर उसका धर्म कोई भी हो, तो उसे किसी न किसी रूप में 'पुरस्कृत ' अवश्य किया जाता है ! इस 'सम्मान ', इस 'पुरस्कार ' के बाद अब वकील हसन बेघर हो गए हैं।
वह कह रहे हैं कि मेरी इतनी आमदनी नहीं कि किराए के मकान में रह सकूं। हम यहीं मलबे के पास सपरिवार पड़े रहेंगे। कोई बात नहीं वकील हसन,पड़े रहिए। लाखों क्या, करोड़ों लोग रहते हैं सड़कों पर ,आप भी रह लेना,अगर वे रहने दें तो! वैसे देश के लिए क्या तुम अपना घर भी बलिदान नहीं कर सकते थे? यह कहने की जरूरत क्या थी कि इस जमीन की रजिस्ट्री 1987 में हो चुकी थी! हो चुकी होगी। आप सरकार को किसी बात के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते!
और सुनो, सड़क पर भी सुरक्षित रहना हो तो वो सब आगे कभी मत करना,जो तुमने उस सुरंग में फंसे मजदूरों की जान बचा कर किया था! खबरदार, अगर तुम आगे कभी चार दिनों के लिए भी अगर खबर में रहे तो! रोज दिन में छह बार खबर में रहने का हक केवल एक आदमी को है और उसका नाम पूरा देश जानता है। तो समझे वकील हसन! समझ गए? नहीं समझे होंगे! समझदार इस देश में आज एक ही आदमी बचा है और वह न तुम हो, न हम! कितना मज़ा है न!
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