विचार

जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं पर बढ़ती हिंसा खतरनाक, रोकथाम की कोशिशों में आधी आबादी की भागीदारी जरूरी

पर्यावरण विनाश को अब जीवन के किसी क्षेत्र में अनदेखा नहीं किया जा सकता है। खाद्य, रोजगार और सुरक्षा सभी इस पर निर्भर हैं, पर इसके कारण महिलाओं पर बढ़ती हिंसा सबसे अधिक खतरनाक है। जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए सभी उपायों में लैगिक समानता का ध्यान रखना जरूरी है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

जलवायु परिवर्तन से दुनिया भर में लैंगिक असमानता और साथ में महिलाओं का यौन उत्पीड़न बढ़ता जा रहा है और इससे जलवायु परिवर्तन को रोकने में लगातार असफलता मिल रही है। गरीब देशों में जहां, लैंगिक असमानता अधिक है, वहां जलवायु परिवर्तन को रोकने के सारे प्रयास नाकामयाब होते जा रहे हैं, क्योंकि इन सारे प्रयासों में महिलाओं की भूमिका को अनदेखा किया जा रहा है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के अनुसार जलवायु और पर्यावरण के हर मुद्दे के केंद्र में जब तक महिलाओं को नहीं रखा जाएगा, तब तक ऐसी हरेक योजनाएं असफल होती जाएंगी।

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ने हाल में ही महिलाओं की जलवायु परिवर्तन को रोकने में भूमिका पर अब तक का सबसे विस्तृत और वृहद अध्ययन किया है। दो साल तक चले इस अनुसंधान में दुनिया भर में इस विषय पर किये गए शोध से संबंधित एक हजार से अधिक शोध पत्रों का विस्तार से अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन की मुख्य लेखिका केट ओवरें के अनुसार अब तो इस बात के अनेक तथ्य हैं कि तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में महिलाओं पर हिंसा बढ़ती जा रही है। जब पर्यावरण का विनाश होता है और पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव बढ़ता है तो लोगों पर दबाव बढ़ता है और प्राकृतिक संसाधनों में कमी आती है, इस कारण महिलाओं पर हिंसा और उनका यौन उत्पीड़न बढ़ता है।

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जब प्राकृतिक संसाधनों में कमी होने लगती है तब पर्यावरण से संबंधित अपराध बढ़ते हैं और अनेक मामलों में ऐसे अपराधियों को पुलिस और सरकार का समर्थन प्राप्त रहता है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ने अपने अध्ययन में ऐसे 80 मामलों का विस्तार से वर्णन किया है। जब ऐसे गिरोह सक्रिय रहते हैं तब पर्यावरण संरक्षण के लिए आवाज उठाने वाली महिलाएं, पर्यावरण विनाश के कारण अप्रवासी या फिर शरणार्थी इनके निशाने पर हमेशा रहते हैं। जहां पर्यावरण का विनाश अधिक होता है, वहां घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, वैश्यावृत्ति, जबरदस्ती विवाह या फिर कम उम्र में विवाह और लड़कियों की तस्करी के मामले अधिक सामने आते हैं।

अफ्रीका और दक्षिण एशिया में अवैध मछली पकड़ने के क्षेत्र, कांगो और ब्राजील में जंगलों से लकड़ी की तस्करी के क्षेत्र और कोलंबिया और पेरू में अवैध खनन के क्षेत्र इस मामले में बहुत बदनाम हैं। अधिकतर देशों में महिलाओं को जमीन के अधिकार या फिर कानूनी अधिकार नहीं मिलते, इसलिए जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक वही प्रभावित हो रहीं हैं। अनुमान है कि केवल जलवायु परिवर्तन की त्रासदी के कारण दुनिया भर में लगभग 1.2 करोड़ लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी गयी है और लड़कियों की तस्करी के मामलों में 20 से 30 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो गयी है।

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महिलाएं और लड़कियां ही पिछड़े क्षेत्रों में पानी, मविशियों का चारा और इंधन की लकड़ियों का प्रबंध करती हैं। इसके लिए उन्हें लम्बी दूरी तय करनी पड़ती है, पर जलवायु परिवर्तन इस दूरी को लगातार बढाता जा रहा है। ऐसे में महिलाएं हिंसा और यौन उत्पीड़न का आसानी से शिकार हो जाती हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के डायरेक्टर जनरल ग्रेठेल अगुइलर के अनुसार पर्यावरण विनाश को अब जीवन के किसी भी क्षेत्र में अनदेखा नहीं किया जा सकता है, खाद्य, रोजगार और सुरक्षा सभी इस पर निर्भर हैं, पर इसके कारण महिलाओं पर बढ़ती हिंसा सबसे अधिक खतरनाक है। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए सभी कार्ययोजनाओं में लैगिक समानता पर विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।

यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया में जेंडर एंड डेवलपमेंट की प्रोफेसर नित्या राव ने एशिया और अफ्रीका के 11 देशों में 25 से अधिक अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि समाज में महिलाओं की वर्तमान समस्याओं को जलवायु परिवर्तन और तेजी से बढा रहा है, इसलिए जलवायु परिवर्तन को रोकने में महिलाओं की भागीदारी के बिना सफलता नहीं मिलेगी।

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लड़कियां और महिलाएं सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति पुरुषों से अधिक गंभीर होती हैं और उनके पास इन समस्याओं का समाधान भी होता है, पर पुरुष वर्चस्व वाला समाज इन्हें कभी मौका नहीं देता। दुनिया भर में कृषि में काम करने वालों में से 40 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं और घर के संसाधनों को जुटाने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की है। तमाम वैज्ञानिक अध्ययन यही बता रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का सबसे अधिक असर भी कृषि और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर ही पड़ रहा है। जाहिर है, महिलाएं इससे अधिक प्रभावित हो रही हैं।

सवाल यह उठता है कि क्या महिलाएं जलवायु परिवर्तन को पुरुषों की नजर से अलग देखती हैं। संयुक्त राष्ट्र के इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज में भी महिला वैज्ञानिकों और रिपोर्ट लिखने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ाई गयी है, जिससे इससे संबंधित रिपोर्ट केवल वैज्ञानिक ही नहीं रहें बल्कि सामाजिक सरोकारों को भी उजागर करें। साल 2015 में वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में जलवायु परिवर्तन को लेकर अधिक सजग हैं और पुरुषों की तुलना में आसानी से अपने जीवनचर्या को इसके अनुकूल बना सकती हैं।

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इसका एक उदाहरण तो विकसित देशों में देखने को मिल भी रहा है। लगातार शिकायतों के बाद अब पश्चिमी देशों की फैशन इंडस्ट्री अपने आप को इस तरह से बदल रही है, जिससे उनके उत्पादों का जलवायु परिवर्तन पर न्यूनतम प्रभाव पड़े। अब तो ब्रिटेन समेत अनेक यूरोपीय देशों में महिलाएं नए कपड़े खरीदना बंद कर रही हैं और सेकंड हैंड कपड़ों के स्टोर से कपड़े ले रही हैं।

नवंबर 2018 में येल यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया था कि अमेरिका की महिलाएं जलवायु परिवर्तन का विज्ञान पुरुषों की तुलना में कम समझ पाती हैं पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर पुरुषों से अधिक यकीन करती हैं और यह मानती हैं कि इसका प्रभाव उन तक भी पहुंचेगा।

इसके बाद एक दूसरे अध्ययन में दुनिया भर के तापमान वृद्धि के आर्थिक नुकसान के आकलनों से संबोधित शोध पत्रों के विश्लेषण से यह तथ्य उभर कर सामने आया कि महिला वैज्ञानिक इन आकलनों को अधिक वास्तविक तरीके से करती हैं और अपने आकलन में अनेक ऐसे नुकसान को भी शामिल करती हैं जिन्हें पुरुष वैज्ञानिक नजरअंदाज कर देते हैं या फिर इन नुकसानों को समझ नहीं पाते।

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दरअसल केवल तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर ही नहीं बल्कि पर्यावरण के हरेक मसले पर महिलाओं की राय अलग होती है और वे समस्याओं का केवल सैद्धांतिक समाधान ही नहीं बल्कि प्रायोगिक समाधान भी सुझाने में सक्षम हैं, क्योंकि वे इन समस्याओं की अधिक मार झेलती हैं और उन्हें महसूस करती हैं। साल 1996 में जर्नल ऑफ एनवायरनमेंट एंड बिहेवियर में प्रकाशित एक शोध पत्र में महिलाओं को पर्यावरण के मुद्दे पर आगे बढ़ाने की वकालत की गयी थी। साल 1999 में न्यूजीलैंड में एक सर्वेक्षण से पता चला था कि सभी आयु वर्ग में महिलाएं पर्यावरण को पुरुषों की अपेक्षा अधिक समझती हैं और उनका कार्बन-फुटप्रिंट पुरुषों से कम रहता है।

साल 2014 में यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न द्वारा किये गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि, महिलाएं पर्यावरण को बचाने के लिए अधिक सजग रहती हैं और इस दिशा में जाने-अनजाने अधिक जागरूक होती हैं। हाल में यूनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का-लिंकन और इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन द्वारा अमेरिका और यूरोप के अर्थशास्त्रियों पर किये गए एक सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि महिला अर्थशास्त्री पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर पुरुषों की अपेक्षा अधिक पैनी नजर रखती हैं।

समय-समय पर दुनिया भर में जनजातियों और वनवासियों पर किये गए अध्ययन से भी यही पता चलता है कि जहां पर्यावरण संरक्षण की कमान महिलाओं के हाथ में है, वहां पर्यावरण के सभी अवयव अपेक्षाकृत अधिक संरक्षित रहते हैं और वनों से होने वाली कमाई का बराबर बंटवारा किया जाता है।

स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभावों पर महिलाएं अधिक यकीन करती हैं और इसे रोकने के उपाय भी आसानी से सुझा सकती हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि पुरुष प्रधान समाज कब इस तथ्य को समझ पाता है।

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