विचार

धर्म के नाम पर हिंसा करना लोकप्रिय हुआ, पिछले एक दशक में बढ़ी खतरनाक प्रवृत्ति

हिन्दुत्व कोई धार्मिक अवधारणा या संस्करण नहीं है- वह एक राजनैतिक विचारधारा है। यह आकस्मिक नहीं है कि हिन्दुत्व के समर्थन में कभी किसी संस्थापक ग्रंथ का हवाला नहीं दिया जाता क्योंकि ऐसा करना लगभग असंभव है।

धर्म के नाम पर हिंसा करना लोकप्रिय हुआ, पिछले एक दशक में बढ़ी खतरनाक प्रवृत्ति
धर्म के नाम पर हिंसा करना लोकप्रिय हुआ, पिछले एक दशक में बढ़ी खतरनाक प्रवृत्ति फोटोः सोशल मीडिया

धर्म फिर राजनैतिक विवाद के केन्द्र में आ गया है। इसकी शुरुआत लोकसभा चुनाव से हुई और अब यह व्यापक रूप से चर्चा में है। धर्म सामाजिक संस्थाएं और शक्तियां हैं और लोकतंत्र में उन्हें असंबोधित नहीं किया जाना चाहिए। यह और बात है कि हमारे प्रायः सभी धर्म लोकतंत्र से पिछड़े हुए धर्म हैं। स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्य जो मूलतः अध्यात्म और धर्म में ही जन्मे हैं और वहीं से राजनीति में आए हैं, हमारे धर्मों में व्यापक या ठोस स्वीकृति नहीं पा सके हैं। कोई धार्मिक समूह या दल जब धर्म को आधार बनाकर कोई अन्याय, अत्याचार, कदाचार, हिंसा, हत्या, बलात्कार आदि करता है, तो उसकी निंदा या विरोध या प्रतिकार धर्मनेता नहीं करते। यही नेता ऐसी ही राजनीति के मुखर प्रचारक या अनुयायी बनने में धर्म से अपनी विपथगामिता नहीं देखते।

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यह कहना होगा कि पिछले एक दशक में धर्म के नाम पर डराना-धमकाना, हिंसा और हत्या करना, नफरत और झूठ फैलाना बहुत बढ़ा और निंदनीय ढंग से लोकप्रिय हुआ है। ऐसे में लोकसभा में जब विपक्ष के नेता ने सभी धर्मों के हवाले से यह कहा कि कोई भी धर्म डरने-डराने का सबक नहीं सिखाता और सभी अभय देते हैं, तो इस पर विवाद किया जाने लगा है। यह कहना सही था और सही है कि हिन्दू धर्म न तो खुद डराता है, न ही किसी से डरता है। यह भी कि हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करने का ठेका न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को, न बीजेपी को, न किसी राजनेता को मिला हुआ है। ये सभी स्वनियुक्त ठेकेदार हैं जिनका सामाजिक आचरण हिन्दू धर्म के बुनियादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाता। हिन्दुत्व कोई धार्मिक अवधारणा या संस्करण नहीं है- वह एक राजनैतिक विचारधारा है। यह आकस्मिक नहीं है कि हिन्दुत्व के समर्थन में कभी किसी संस्थापक ग्रंथ का हवाला नहीं दिया जाता क्योंकि ऐसा करना लगभग असंभव है।

हमारी परंपरा में जब यह कहा गया कि ‘सत्य एक है जिसे विद्वान लोग तरह-तरह से कहते हैं’, तो उसका आशय यही था कि सत्य की बपौती किसी के पास नहीं है और विद्वानों को उसे अलग-अलग ढंग से कहने का अधिकार है। सत्य कहने का अधिकार विद्वान के पास है जिसका बौद्धिक-नैतिक कर्तव्य ही सत्य की खोज है। यह अधिकार राजनेता नहीं हड़प सकते क्योंकि उसके लिए आवश्यक योग्यता उनके पास नहीं है। वे राजनेता तो कतई नहीं जो दिन में कम-से-कम दस झूठ बोलने और कई भेष बदलने में व्यस्त रहते हैं। सत्य देवप्रदत्त उपहार नहीं है और न ही वह किसी अजैविक प्राणी को सीधे परमात्मा से मिल सकता है। सत्य एक मानवीय अविष्कार है जिसे मनुष्य ही खोजता-पाता है, अपने श्रम और संघर्ष से, अपने खुलेपन और जीवट से। सत्य खोजे जाकर मुक्त हो जाता है- उसे कोई भी वैसी ही निष्ठा और लगन से, प्रयत्न से पा सकता है, स्वायत्त कर सकता है: वह साझी संपत्ति हो जाता है मनुष्यता की।

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नया पुरस्कार

हिन्दी में छोटे-बड़े पुरस्कारों की ऐसी बाढ़-सी आई हुई है कि किसी नए पुरस्कार की स्थापना से आम तौर पर उत्साहित होना कठिन होता है। ज्यादातर पुरस्कारों की विश्वसनीयता और पारदर्शिता बहुत कम होती गई है। कई बार तो यह शक होता है कि हर अच्छे-बुरे लेखक को कोई-न-कोई पकड़कर पुरस्कार दे ही देता है। हिन्दी के अखबारों में अनेक अज्ञात-कुलशील लेखकों को उतने ही अज्ञातकुलशील भद्रजन द्वारा पुरस्कार दिए जाने के फोटो छपते रहते हैं और फेसबुक पर भी उनकी भरमार रहती है।

पर स्वयं कुछ युवा लेखकों द्वारा ‘जानकीपुल’ लेखक-समवाय द्वारा दिवंगत युवा कथाकार शशिभूषण द्विवेदी की स्मृति में युवा कथा-साहित्य के लिए स्थापित पुरस्कार इन सबसे अलग है, और आशा की जा सकती है कि भविष्य में भी अलग रहेगा।

ज्यादातर स्मृति पुरस्कार हमारे यहां संबंधित लेखकों के परिवार स्थापित और पोषित करते आए हैं। युवा कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार और युवा आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार ऐसे ही पुरस्कार हैं। सौभाग्य से यही दो ऐसे पुरस्कार हैं जिनकी विश्वसनीयता और पारदर्शिता दशकों से बनी हुई है। शशिभूषण द्विवेदी पुरस्कार अब मिलकर एक त्रयी बना देगा, ऐसी आशा है। यह पुरस्कार प्रभात रंजन और कुछ अन्य लेखकों द्वारा अपने एक दिवंगत लेखक-मित्र की स्मृति में स्थापित किया गया है। यह उसे आम पुरस्कारों से अलग करता है और एक तरह का नैतिक बल भी देता है।

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ऊपर जिस त्रयी का जिक्र किया गया, उसमें अब एक-एक पुरस्कार युवा कविता, युवा आलोचना और युवा कथा के लिए हो गया। हिन्दी साहित्य की सार्वजनिक सक्रियता के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि युवा साहित्य की तीन प्रमुख विधाओं के लिए अब तीन अलग-अलग पुरस्कार हैं। युवाओं को ऐसा सार्वजनिक प्रोत्साहन-पुरस्कार पहले शायद ही कभी मिला हो। अब अगर जब-तब युवाओं की उपलब्धि इनमें से किसी पुरस्कार के योग्य न हो पाए, तो कम-से-कम बहाना नहीं चलेगा कि युवाओं को पर्याप्त प्रोत्साहन या जगह नहीं दी जा रही है।

यह भी याद करने की जरूरत है कि हमारे कई मूर्धन्य लेखकों जैसे, मुक्तिबोध और कृष्ण बलदेव वैद को कोई प्रतिष्ठित पुरस्कार कभी नहीं मिला। इससे उनकी मूर्धन्यता, सक्रियता और महत्व में कोई कमी नहीं आई। इन दिनों राजनीति, राजकाज, धर्म, मीडिया आदि में तिकड़म का बड़ा बोलबाला है। तिकड़म को प्रवीण प्रबंधन मानकर उसको प्रशंसा और अनुमोदन की दृष्टि से देखने वालों और उसे समर्थन देने वालों की संख्या करोड़ों में है। कुछ ऐसा माहौल है कि जीने के लिए या कुछ भी करने के लिए प्रतिभा और कौशल की नहीं, तिकड़म की दरकार है। साहित्य तिकड़मबाजी से अछूता नहीं है। फिर भी, यह उम्मीद करना चाहिए कि इस पुरस्कार-त्रयी को तिकड़म से अप्रभावित रखने की नैतिक सतर्कता निरंतर बरती जाएगी।

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आठ वर्ष

इस 23 जुलाई, 2024 को रज़ा साहब को सिधारे आठ बरस हो जाएंगे। इस बीच, उनकी कीर्ति में अंतरराष्ट्रीय इजाफा हुआ है; उनकी छवि और उजली हुई है; उनके अवदान को स्वीकार करने वालों की संख्या बढ़ी है और उनकी कला के रसिक और संग्राहक बहुत, कई गुना बढ़े हैं। अपने से इतर दूसरों की कलाओं को, विशेषतः युवाओं को अवसर-साधन-समर्थन देने के क्षेत्र में रज़ा फाउंडेशन के माध्यम से उनकी चिंता और उदारता किंवदंती ही बन गई है।

मंडला में अपनी प्रिय और पवित्र नदी नर्मदा जी से कुछ ही दूरी पर वह एक कब्रगाह में अपने पिता के बगल में अपनी इच्छा के अनुसार दफ्न हैं। यह शहर उन्हें पहचानने और याद करने लगा है। मंडला की स्त्रियों-बच्चों के बीच विशेषतः रज़ा अब जाना-पहचाना नाम है क्योंकि वर्ष में दो बार उनकी जन्मतिथि 22 फरवरी और पुण्यतिथि 23 जुलाई के आसपास मंडला में स्त्रियों-बच्चों-युवाओं के लिए कला-शिविर, छाता-गमला चित्रकारी शिविर, मिट्टी-लकड़ी के शिल्प शिविर आदि लगते हैं।

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इनके अलावा, संगीत, नृत्य, कविता और गोंड प्रधान कला के आयोजन होते हैं। मंडला की अपेक्षाकृत शांत साधारणता में ये सभी असाधारण घटनाओं की तरह होते हैं और इनमें नागरिकों की रुचि और शिरकत लगातार बढ़ रही है। एक दिवंगत कलाकार की उपस्थिति जो आज से लगभग 80 वर्ष पहले एक बालक के रूप में दर्ज हुई थी और जो अपनी कला-साधना करता हुआ फ्रांस में 60 वर्ष बिताने के बाद स्वदेश वापस आया और जो इस दौरान कई बार अपने बचपन के शहर मंडला में नर्मदा जी का आशीर्वाद लेने बिना किसी शोरगुल के चुपचाप आता रहा, अब मंडला में फिर संभव हो रही है। देश के अनेक क्षेत्रों से कलाकार यहां आने लगे हैं और स्वयं मंडला के सामान्य जन में यह भाव घर गया है कि उनके यहां का एक व्यक्ति देश का एक महान चित्रकार बना।

मंडला में बारिश अच्छी-खासी होती है। उससे बचने के लिए जो छाते अब हर वर्ष सड़क पर आते-जाते नजर आते हैं, उनमें से एक बड़ी संख्या उन छातों की होती है जो वहीं के नागरिकों ने जिनमें अधिकांशतः स्त्रियां होती हैं, अपने हाथों रंगे या चित्रित किए होते हैं, रज़ा फाउंडेशन द्वारा नर्मदा जी के तट पर आयोजित शिविर में। यह सोचना लोमहर्षक है कि यों तो रज़ा के भौतिक अवशेष एक कब्र में सोए हैं, पर वे स्वयं अनेक रंगों में, अनेक गमलों में फूल बनकर अनेक छातों पर रंग बनकर मंडला में जाग और व्याप रहे हैं।

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(वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी का लेख thewirehindi.com से साभार)

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