उत्तराखंड सरकार ने जनता दरबार लगाया जिसमें प्रदेश के मुखिया त्रिवेंद्र सिंह रावत अपने सहयोगियो, अफसरों और बाकी कई सरकारी नुमाइंदों की मौजूदगी में न्याय की कुर्सी पर खुद विराजमान थे। 57 साल की शिक्षिका उत्तरा पंत बहुगुणा ने गैलरी में पहुंच कर बाअदब फरियाद की - सर, 25 साल से पहाड़ के दूरस्थ स्थान में तैनात हूं, पति की मौत हो चुकी है, बच्चों को अनाथ की तरह नहीं छोड़ सकती, नौकरी भी नहीं छोड़ सकती...सर आपको मेरे साथ न्याय करना ही पड़ेगा।
मुख्यमंत्री को ये कुछ बेअदबी लगी। पूछा नौकरी पाते वक्त क्या लिख कर दिया था?
उत्तर तल्ख था- सर, सारी उम्र वनवास भोगूं ये तो नहीं लिखा था...।
सीएम ने उसे तुरंत सस्पेंड करने का मौखिक आदेश और महिला को वहां से हटाने का हुक्म दिया। इस पर महिला भी उत्तेजित हो गईं। तब उसे हिरासत में लेने का हुक्म हुआ।
उत्तरा पंत बहुगुणा तो कई दिन पहले से एक तरह के सविनय अवज्ञा आंदोलन पर थीं। वह अपने स्कूल नहीं जा रही थीं। डर था कि काम करने लगेंगी तो उनका मामला फिर टाल दिया जाएगा। बीजेपी समर्थक टिप्पणियां कर रहे हैं कि ऐसे लोग जो पहाड़ में नौकरी नहीं कर सकते उन्हें निकाल देना चाहिए। पर समझें कि उत्तरा जी का असल केस क्या है? पहाड़ों में पत्रकार उमेश डोभाल की मौत के समय से ही शराब माफिया बहुत सक्रिय रहा है। उत्तरा पंत बहुगुणा ने पुराने मुख्यमंत्री से भी फरियाद की थी कि पति अकेले रहते थे। शराब की लत पड़ गई है। अगर संभालने-समझाने के लिए पत्नी भी साथ नहीं रही तो एक दिन शराब का शिकार बन जायेंगे। बात कैडर का हवाला दे कर टाल दी गई। आशंका सही साबित हुई और पति की मौत के बाद अब बच्चों को सहेजने-संभालने की चुनौती भी उत्तरा जी पर आ पड़ी है।
ऐसे अन्य मामलों में कई बार मानवीय आधार पर तबादले किये या रद्द कराये जाते रहे हैं। खुद मुख्यमंत्री जी की पत्नी शिक्षिका हैं और 1996 से देहरादून में अपने पति के साथ हैं। एक अन्य नेता की पत्नी के लिए खुद सरकार ने उपाय निकाला, उन्हें एक महिला अधिकारी के विभाग में अटैच करवाया गया। जानकार बताते हैं कि किसी प्रभावशाली नेता ने तो उच्च शिक्षा में अपनी पत्नी को दिल्ली तक से ‘अटैच’ करवा लिया।
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यहां एक बड़ा सवाल यह है कि पीड़िता को जनता दरबार में खुल कर बात कहने के बदले नौकरी नियमावली और अनुशासन का पाठ पढ़ा कर इस तरह जलील किए जाने पर लोकल मेनस्ट्रीम मीडिया के अखबारों ने क्या कोई सार्थक भूमिका निभाई? सोशल मीडिया पर तो पूरे प्रकरण को लेकर मुख्यमंत्री से सवाल करने के साथ व्यापक गुस्से का इजहार दिखा। उसने कई सवाल किये: क्या सरकार को ऐसे जनता दरबार जारी रखना चाहिए जहां पहले किसी जीएसटी से परेशान हलद्वानी के एक कारोबारी ने जहर खाकर जान दे दी और अब एक महिला शिक्षिका के साथ ऐसा व्यवहार किया गया? क्या सरकार वाकई पारदर्शी है? क्या ऐसे आदमी के रहते उत्तराखंड में मोदी मैजिक आगे चल सकेगा?
लेकिन देहरादून के तीन प्रमुख हिंदी अखबारों में खबरों की शुरुआत ही महिला शिक्षिका पर अशोभनीय व्यवहार के आरोप से की गई। यह चुस्त मीडिया प्रबंधन का उदाहरण माना जा रहा है। सोशल मीडिया पर अचानक देहरादून में ह्वाट्सएप पर एक ऐसा ग्रुप प्रकट हो गया है जिसमें सरकार के मीडिया प्रबंधकों ने सरकार के स्पष्टीकरण के आलोक में उत्तरा जी को दोषी ठहराने वाली विज्ञप्ति से शुरुआत की है। जानकार कहते हैं कि यह विज्ञप्ति अखबारों में जरूर छपेगी। क्योंकि यह उनकी तरफ से आई है जिनका प्रेस क्लब की स्थापना से लेकर अस्थायी राजधानी बसाने तक में बड़ा योगदान है
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