उत्तराखंड में इन दिनों दो दृश्य बहुत आम हैं। पहला- किसी भी दिशा में चले जाइए, जगह-जगह लाल अक्षरों में बोर्ड लगे मिलते हैं- ‘प्राइवेट लैंड, नो ट्रेसपासिंग’, यानी ‘यह निजी संपत्ति है, प्रवेश निषेध।’ दूसरा, सुदूर पर्यटक स्थलों पर भी सीमेंट, सरिया, बजरी आदि निर्माण सामग्री के ढेर और समीप ही खड़ी हो रही कंक्रीट की विशाल इमारतें। तैयार भवनों में लगे ‘होम स्टे’ और ‘रिसॉर्ट’ के नाम पट। दोनों दृश्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उत्तराखंड अकेला ऐसा राज्य है जिसके पास अपनी अत्यंत सीमित कृषि-भूमि एवं ग्रामीणों/ग्राम पंचायतों की सामूहिक भूमि को स्थानीय जनता के हित में बचाए रखने का कोई कानून नहीं है। सरकारों ने भू-कानून में ऐसे-ऐसे संशोधन कर दिए हैं कि आज कोई भी व्यक्ति कहीं भी, कितनी ही भूमि क्रय कर सकता है और उसे भू-उपयोग बदलवाने का कष्ट भी नहीं उठाना पड़ता। बाकी सभी हिमालयी राज्यों में ऐसे भू-कानून हैं जो किसी बाहरी व्यक्ति को सीमित भूमि खरीदने और भू-उपयोग परिवर्तित करने की अनुमति नहीं देते। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश की सुरक्षित और विकसित खेती, विशेषकर प्रसिद्ध बागवानी का श्रेय उसके सख्त भू-कानून को ही जाता है।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पहली निर्वाचित कांग्रेस सरकार ने नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर भू-कानून बनाने की पहल की थी लेकिन भू माफिया और स्वार्थी राजनीतिक नेताओं और दलालों के दबाव में उसे लचीला बना दिया। बाद की सरकारों ने उस कानून में इस तरह बार-बार संशोधन किए कि राज्य में भूमि की लूट शुरू हो गई। भाजपा की त्रिवेन्द्र सिंह रावत वाली सरकार ने तो 2018 में कानून इतना लचीला बना दिया कि हर किसी को हर तरह की असीमित भूमि क्रय करने की छूट मिल गई। अब न केवल सरकारी और बेनाम भूमि धड़ल्ले से बिक रही है बल्कि कृषि भूमि सहित ग्रामीणों के चारागाह, पनघट, आदि भी बेचे जा रहे हैं।
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यूपी, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक के उद्योग घरानों ने ही नहीं, धनाढ्य लोगों ने बड़ी-बड़ी जमीनें खरीद ली हैं। इन्हीं जमीनों पर ‘प्राइवेट लैंड, नो ट्रेसपासिंग’ के बोर्ड लगे हैं। रिसॉर्ट, होटल और होम स्टे बन गए हैं। अनेक जगह तार-बाड़ से घेर दी गई जमीनों के कारण ग्रामीणों के आवागमन के मार्ग, पनघट और मंदिर के रास्ते तक बंद हो गए हैं।
पर्यटन को उद्योग बनाने की सरकारी नीति के तहत बढ़ते होटल और ‘होम स्टे’ में स्थानीय लोगों की भागीदारी अत्यंत कम है। खेती और फलोत्पादन सब चौपट हो गया है। जहां कहीं कुछ बाग बचे भी हैं, उन पर बंदरों, सुअरों-जैसे वनचरों का हमला हो रहा है। कुछ हद तक अब भी आबाद गांवों में इसी कारण लोगों ने खेती करना छोड़ दिया है। वे बाजार से मोल लेकर गुजारा करते हुए गांव में किसी तरह टिके हैं। रामगढ़, हर्षिल और खिर्सू-जैसी फल पट्टियों में फलोप्तादन बहुत सीमित रह गया है।
किसान समस्याओं से इतने त्रस्त हैं कि पिछले मास देहरादून में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का हर्षिल के किसानों ने बहिष्कार किया। पिछले कुछ वर्षों में अच्छी-भली नौकरी छोड़कर अपने गांव लौटे कुछ युवाओं ने खेती और फलोत्पादन में नए और स्वागत योग्य प्रयोग किए हैं लेकिन उन्हें भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उत्तराखंड का ‘अपना’ सेब भी बाजार में ‘हिमाचल सेब’ के नाम से बिकता है। सरकार का इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं है।
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पहले से ही पलायन की विकट समस्या से जूझ रहा उत्तराखंड भाजपा सरकार के भू-कानून से और तेजी से उजड़ रहा है। रहे-बचे ग्रामीण भी जमीनें बेच कर भाग रहे हैं या निकट ही बन रहे होटलों, रिसॉर्टों और होम स्टे में ‘नौकरी’ कर रहे हैं। कोरोना संकट से उपजी ‘वर्क फ्रॉम होम’ की कार्यशैली में घर बैठे-बैठे ऊब गए युवाओं ने उत्तराखंड को ‘वर्क डेस्टिनेशन’ बना लिया। ‘लॉकडाउन’ से मुक्त हुआ शहरी मध्य वर्ग भी राहत के लिए यहां रमणीक स्थलों का रुख कर रहा है। प्रत्येक शनिवार-रविवार को नैनीताल-मसूरी ही नहीं, रामगढ़, मुक्तेशवर, कौसानी, चम्बा, धनौल्टी, चकराता-जैसी जगहों तक भी पर्यटक वाहनों का लंबा रेला लग रहा है। ‘पर्यटन को उद्योग का दर्जा’ देने वाली सरकारों ने राज्य की पर्यटन क्षमताओं का जनहित में उपयोग नहीं किया। न ही प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा देते हुए प्रकृति और स्थानीय वन्यता का सम्मान किया। उलटे, होटल, रिसॉर्ट, होम स्टे, आदि बाहरी धनाढ्यों के हाथ चले गए हैं। बढ़ते पर्यटन में स्थानीय विशेषताओं का कोई स्थान नहीं है। ‘पर्यटन उद्योग’ की जिस आर्थिकी से स्थानीय जनता को लाभ मिलना चाहिए था, वह उसे उजाड़कर अमीरों को और अमीर बना रही है।
पिछले कुछ समय से उत्तराखंड का सचेत समाज, आंदोलनकारी संगठन और हाशिये पर पड़े स्थानीय राजनीतिक दल- सभी राज्य में सख्त भू-कानून बनाने की मांग करने लगे हैं। वैसे, यह आश्चर्य की बात है कि पृथक राज्य के लिए बड़ी लड़ाई लड़ने वाली और लंबे जन आंदोलनों के लिए ख्यात पहाड़ी जनता ने राज्य बनने के साथ ही जन हितैषी भू-कानून के लिए राजनीतिक दलों पर पर्याप्त दबाव नहीं डाला। खैर, आजकल यह उत्तराखंड में सबसे गर्म मुद्दा है। भाजपा ने राज्य में अपनी सरकार का मुख्यमंत्री बदला तो नए नेता पुष्कर सिंह धामी ने जनता का मन समझते हुए भू-कानून की समीक्षा करने की बात कह डाली, यद्यपि उस दिशा में कुछ सकारात्मक होने के संकेत नहीं हैं।
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हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर-जैसे ‘मैदानी’ जिलों कोछोड़ दें, तो पूरे उत्तराखंड में मात्र तीन से चार फीसदी कृषि योग्य भूमि है। उसमें भी ‘उपराऊं’ यानी असिंचित भूमि काफी है। अधिकतर गांवों में खेती लाभकारी नहीं रही। उस भूमि का किस तरह फल, सब्जी, मोटे अनाजों, जड़ी-बूटी, आदि उत्पादन के लिए उपयोग करके लाभकारी बनाया जाए, यह वैज्ञानिक सोच न उत्तर प्रदेश में रहते पनपी और न ही उत्तराखंड की सरकारें इस दिशा में काम कर सकीं। अलाभकारी खेती के कारण ही उत्तराखंड से पलयान होता रहा। अब उत्तराखंड के गांव भुतहा होते जा रहे हैं। वर्तमान भाजपा सरकार एक तरफ ‘रिवर्स पलायन’ का शिगूफा छोड़ती रही और दूसरी तरफ जमीनें लुटाती रही।
सख्त भू-कानून की तेज होती मांग के बावजूद आसन्न चुनाव में यह बड़ा मुद्दा बनेगा, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। राज्य में दो ही बड़े राजनीतिक दल हैं- कांग्रेस और भाजपा जो बारी- बारी सत्ता में आते रहे हैं। उत्तराखंड क्रांति दल-जैसी स्थानीय जड़ों वाली पार्टी कभी जनता के सपनों के अनुरूप न बन सकी, न ही कोई बेहतर स्थानीय स्वप्न बुन सकी। आंदोलनकारी सामाजिक संगठन बहुत देर से राजनीतिक दलों में बदले अवश्य लेकिन आंदोलनों में जनता का भारी समर्थन पाने के बावजूद उसे राजनीतिक जनाधार में नहीं बदल सके। वाम दल, विशेष रूप से यहां सक्रिय सीपीएम, कोई विश्वसनीय विकल्प पेश नहीं कर सके। इस बार आम आदमी पार्टी ने अपनी दावेदारी ठोककर हलचल मचाई है लेकिन वह कोई विकल्प बन सकेगी, इसमें पर्याप्त संदेह बना हुआ है।
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उत्तराखंड में सत्ता की लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है। दोनों ही दलों का दामन भू-कानून के मामले में काला है, भाजपा का कुछ अधिक ही। बाकी सभी संगठन और दल स्थानीय जनता के हित में नए और सख्त भू-कानून की मांग कर रहे हैं। जमीनों की लूट के विरुद्ध हमेशा लड़ने वाली उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी त्रिवेन्द्र सरकार के 2018 के भू-कानून को रद्द करने के लिए जनजागरण में लगी है। उत्तराखंड लोकवाहिनी ने भी भू-कानून को मुद्दा बनाया है। सीपीएम भी इसके खिलाफ मोर्चा बांधे है लेकिन इन सभी का बड़ा जनाधार नहीं बन पाया है। ये दल जनता का राजनीतिक भरोसा नहीं कमा पाए हैं। इसलिए जनता के हित में एक बेहतर भू-कानून की मांग प्रमुख चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रही। मुख्यमंत्री धामी भी अपनी शुरुआती घोषणा के बाद अब मौन हो गए हैं।
भाजपा का ध्यान धार्मिक ध्रुवीकरण पर ही है। जमीन के मुद्दे पर वह मौन है लेकिन यह प्रचारित अवश्य किया जा रहा है कि बाहर से मुसलमान यहां आ-आ कर काबिज होते जा रहे हैं। अपने एकमात्र सशक्त प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को वह दल-बदल कराकर कमजोर करने में लगी है। जनता की असल समस्याएं हाशिये पर पड़ी हैं। जन आंदोलनों की भूमि में बेचैनी तो है लेकिन सन्नाटा गहरा है।
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