बात सितंबर, 2020 की है। सूंघने की ताकत रखने वाले बहुत अच्छी तरह सूंघ सकते थे कि उस वक्त बिहार के शहरी इलाकों में सत्ता और खासकर नीतीश कुमार के खिलाफ माहौल था। लोग सोच ही नहीं, बोल भी रहे थे। इस बीच, चुनाव का ऐलान होता है।
चुनाव की घोषणा के कुछ दिनों बाद एक महागठबंधन का एलान होता है। जब तक वह जमीन पर आता, तब तक पहले दौर के चुनाव के लिए महज तीन हफ्ते बचे थे। नतीजा…जबरदस्त दौड़ लगाने के बाद भी, ठीक आखिरी वक्त में विपक्ष सत्ता की डोर पकड़ते-पकड़ते रह जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि विपक्ष के हाथ में आई कामयाबी की डोर को जबरन छीन लिया गया। मुमकिन है। लेकिन इतना तो तय है कि वह ऐसी छलांग नहीं लगा पाया था जहां से उसके हाथ में आई डोर को छीनना किसी की भी पहुंच से बाहर होता। जहां तक महामारी की बात। महामारी तो सबके लिए थी। सबके लिए यानी सत्ता और विपक्ष- दोनों के लिए थी।
इससे पांच साल पहले, यानी 2015 की बात है। तब नीतीश कुमार की आलोचना करने वाले मुखर आम लोग बहुत कम मिलते थे। नीतीश कुमार महागठबंधन का हिस्सा थे। मगर इस और उस महागठबंधन में फर्क था। इस महागठबंधन में पार्टियां अलग-अलग इकाइयों में बंटी थीं। वह चुनाव के काफी पहले से अपनी शक्ल में लोगों के सामने था। प्रचार हो या उम्मीदवारों की घोषणा- सब एक मजबूत इकाई की ओर इशारा करते थे। इसलिए 2015 की जीत को जो लोग महज अंकगणित में देखते हैं, वे 2020 में कुछ और देखने लगते हैं।
वह रणनीति, छवि और माहिर चुनाव प्रबंधन की जीत थी। उस महागठबंधन ने लोगों के जहन में एक मजबूत-भरोसेमंद विकल्प देने का यकीन पैदा किया था। इसीलिए वे छलांग लगा पाते हैं।
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सवाल है, बिहार चुनाव के अरसे बाद यह बात क्यों कही जा रही है? इसलिए कि भारतीय राजनीति में खासतौर पर हिंदी भाषी प्रदेश में विपक्ष की जरूरत जितनी शिद्दत के साथ महसूस होती है, वह उतनी शिद्दत के साथ दिखती नहीं है। इसलिए कि महज चुनाव के ऐन पहले दलों के मिलने से विपक्ष का विजयी गठबंधन नहीं बनता। बिहार विपक्ष की कामयाबी और नाकामी का नमूना है। बिहार जैसे उदाहरण और जगहों पर भी देखे जा सकते हैं।
सन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद भारतीय चुनावी राजनीति में जबरदस्त बदलाव आ चुका है। वह बदलाव भारतीय जनता पार्टी के रूप में है। चाहे यह पार्टी सत्ता बचाने के लिए लड़ रही हो या सत्ता में आने के लिए। उसने कुछ बदला हो न बदला हो, छवियां बदल दी हैं। चुनाव लड़ने की छवियां!
रणनीति, राजनीति का ही हिस्सा है। इसमें पैसा भी भूमिका अदा करता है। इसीलिए भाजपा के लिहाज से असम और त्रिपुरा के विधानसभा चुनावों के तौर- तरीके को समझना भी अहम है और पश्चिम बंगाल भी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने अपनी सरकार बरकरार रखी। मगर देखते-देखते भारतीय जनता पार्टी ने अपने को मुख्य विपक्ष बना लिया। कितने राजनीतिक विश्लेषकों ने आज से दस साल पहले गैर हिंदी प्रदेशों- असम, त्रिपुरा या बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की ऐसी छवि के बारे में हमें बताया था?
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कहने का गरज यह है कि भारतीय जनता पार्टी चुनावों को कैसे लेती है, इसका अंदाजा हैदराबाद के नगरपालिका के चुनाव को देख कर हम लगा सकते हैं। इसीलिए चंद दिन पहले, उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों के नतीजे आए थे। इस नतीजे से उसकी जो छवि बन रही थी, उसने देखते-देखते जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में उस छवि से उबरने के लिए सारे घोड़े खोल दिए।
यह कहने की बात नहीं है कि देश में चुनावी राजनीति के लिहाज से उत्तर प्रदेश की बड़ी अहमियत है। अब बारी इसी प्रदेश की है। अगला मजमा यही लगने वाला है। इसलिए निगाहें अब यहां होने वाली हर गतिविधि को गौर से देख रही हैं। यहां एक साथ कई चीजें चल रही हैं। लोग यहां सरकार से प्रसन्न होते तो पंचायत चुनावों के ऐसे नतीजे न आते। मगर इस नतीजे के बाद सत्ता और इस सत्ता को मददगार बनाने वाले समूह बेहद सक्रिय हो गए हैं। वे अपने घर को दुरुस्त करने में कम से कम जोर लगाते दिख रहे हैं। दूसरी ओर, वैसी सक्रियता और एकजुटता लोगों के सत्ता से गुस्से, नाराजगी, निराशा को आवाज देने और उसे मुख्यधारा में लाने का काम करने वाली विपक्ष में नहीं दिखती।
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ऐसा नहीं है कि विपक्ष के रूप में आवाज नहीं है। खूब आवाजें हैं। मगर उन्हें दबाने की भी भरसक कोशिश हो रही है। आवाज उठाने की वजह से कार्यकर्ता पीटे जा रहे हैं। उन पर मुकदमे हो रहे हैं। जेल भेजे जा रहे हैं। डराया-धमकाया जा रहा है। बहुत सारे लोग शांत हो गए हैं। मगर ये कार्यकर्ता हैं या स्थानीय लीडर। ये वे लीडर नहीं हैं जिनके बल पर मजबूत, सक्रिय और संघर्ष करते विपक्षीलीडर की छविबनती है। वैसे लीडर की छवि जो जनता के बीच है/ रहता है। महामारी के सवा साल ने सभी लीडर को जनता के बीच रहने के अनेक मौके दिए। कुछ रहे। कुछ ने रहने की छवियां बनाईं। कुछ रहे ही नहीं।
उत्तर प्रदेश बाकी राज्यों से कई मायने में अलग तरह की प्रयोग भूमि भी बन रहा है। अरसे से कमजोर पड़ा मंदिर का मुद्दा अब निर्माण की विजय के रूप में है। धर्मांतरण, गोरक्षा, लव जिहाद, जनसंख्या… जैसे मुद्दे उछल रहे हैं। दूसरी ओर, महामारी की वजह से पैदा हुए संकट में लोगों की मदद के लिए लगातार होती घोषणाएं हैं। वैक्सीन का आंकड़ा है। एक मजबूत, अनुशासित, सख्त और साथ में कट्टर धार्मिक छवि वाले संन्यासी के हाथ में सत्ता की कमान है। इन छवियों को मजबूत बनाते ढेरों कैमरे हैं। इसके बरअक्स विपक्ष की मुख्य छवि कौन है?
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ऐसा नहीं है कि विपक्ष की छवि का बनना न बनना, यह महज उस पर ही निर्भर। मीडिया भी तो लोकतंत्र का अहम हिस्साहै । अखबारों और टीवी चैनलों ने तो विपक्ष के, विपक्ष की भूमिका अपना ली है। इसीलिए जिन छवियों के वे हकदार होते हैं, वे भी नहीं बनतीं। चुनाव पहले भी रणनीति थी। अब भी है। अब यहां ज्यादा महीन रणनीति की मांग करती है। ज्यादातर पार्टियों, खासकर विपक्ष के पास ऐसे महीन रणनीतिकार नहीं बचे हैं। इसलिए पेशेवर रणनीतिकारों की ज़रूरत है। खासतौर पर छवि निर्माण में पेशेवराना अंदाज की सख्त जरूरत है। जिसने इस जरूरत का मजाक उड़ाया, वह गया।
विपक्ष पर बात करना दो वजहों से लाजमी है। एक, बिना सक्रिय और मजबूत विपक्ष के लोकतंत्र बेमानी है। सत्ता मदमस्त और निरंकुश होती है। दो, जनता के उस धड़े की आवाज बनने के लिए विपक्ष चाहिए जो सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक तौर पर सताए जा रहे हैं। इन दोनों बातों के साथ एक सबसे अहम चीज जुड़ी है- निरंतरता। यानी विपक्ष सतत तौर पर बेआवाजों की आवाज बन रहा है या नहीं।
तो कहां है वह विपक्ष जो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले चुनौती देता दिख रहा है ? कौन है जिसकी छवियां दिख रही हैं? लोगों को अपने दिमाग़ से बाहर उस छवि का दिखना ज़रूरी है… चुनाव की उलटी-गिनती तो शुरू हो चुकी है। बिहार 2020 भी याद रखें और 2015 भी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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