साल 2019 में जो मुद्दे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत चर्चा में रहेंगे, उनमें ईरान पर अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध सबसे अहम हैं। अकसर इन प्रतिबंधों के बारे में पहला सवाल यही पूछा जाता है कि उनका ईरान की अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा। फिलहाल यह सवाल काफी अहम है, लेकिन घटनाचक्र आगे बढ़ेगा तो इससे भी बड़ा सवाल यह हो सकता है कि इन प्रतिबंधों का विश्व राजनीति और कूटनीति पर क्या असर पड़ेगा। विश्व का आर्थिक और राजनीतिक संतुलन इस मुद्दे से कहां तक और कितना प्रभावित होगा।
यह हाल के समय में पहली बार हुआ है कि अमेरिका के यूरोप के बड़े सहयोगी देश जैसे फ्रांस, जर्मनी और यहां तक कि ब्रिटेन भी खुल कर संयुक्त राज्य अमेरिका की किसी बड़ी कार्यवाही के विरोध में खुलकर सामने आए हैं। इतना ही नहीं, अमेरिका के प्रतिबंधों से बचने की कार्यवाही के लिए उन्होंने ठोस कदम उठाने का भी निर्णय लिया है। यह कार्यवाही यूरोपीय यूनियन के स्तर पर अगर वास्तव में महत्त्वपूर्ण रूप में होती है तो विश्व के राजनीतिक और आर्थिक समीकरण बदलने में इसकी बड़ी भूमिका होगी।
चूंकि ओबामा के राष्ट्रपति काल में ईरान से परमाणु समझौता हो गया था और इस कारण पश्चिमी कंपनियों को ईरान में अपना कारोबार जमाने के अच्छे अवसर नजर आ रहे थे, इसलिए फ्रांस, इटली आदि कई यूरोपीय देशों की कंपनियों ने ईरान में नए सिरे से निवेश करना आरंभ किया था। साल 2018 में अपने आक्रमक प्रवृत्ति के सलाहकारों के परामर्श से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने परमाणु समझौते से एकतरफा वापसी का निर्णय लिया और इसके लिए अपने यूरोपीय सहयोगी देशों जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन से भी सलाह नहीं की, जबकि वे भी इस समझौते के भागीदार थे।
इस फैसले का यूरोप में बहुत विरोध हुआ। राजनेताओं, कूटनीतिज्ञों, उद्योगों के नेतृत्वकर्ताओं ने इसका विरोध किया। जिस तरह हाल ही में चीन की एक बड़ी कंपनी की शीर्ष अधिकारी को प्रतिबंधों की अवहेलना के जुर्म में कनाडा से गुजरते समय अमेरिकी पहल पर गिरफ्तार कर लिया गया, उससे बिजनेस हितों की चिंता और बढ़ गई है कि पता नहीं कब, किस के विरुद्ध प्रतिबंधों की अवहेलना पर ट्रंप नेत्तृत्व एकतरफा कार्रवाई कर दे।
यूरोपीय यूनियन की विदेश मंत्री ने घोषणा की है कि जिन यूरोपीय कंपनियों ने ओबामा के समय के समझौते के आधार पर ईरान में निवेश किया था, उनके हितों की रक्षा के लिए यूरोपीय यूनियन जरूरी कदम उठाएगी। इस संदर्भ में प्रतिबंधों का तोड़ क्या हो सकता है, इस पर चर्चा होती रही है। सबसे चर्चित प्रस्ताव यह रहा है कि यूरोपीय यूनियन सरकारी स्तर पर एक उपक्रम तैयार करेगी, जिसके माध्यम से विभिन्न कंपनियां ईरान से कारोबार कर सकती हैं।
इन प्रतिबंधों के कारण अमेरिकी बैंकिंग व्यवस्था और डॉलरो से जुड़ा कारोबार ईरान से नहीं हो सकता है, लेकिन जिस सरकारी स्तर के उपक्रम की चर्चा चल रही है उसके द्वारा अदला-बदली या यूरो के माध्यम से व्यापार हो सकेगा। इतना ही नहीं, यह संभावना भी है कि जो अन्य देश ईरान पर लगे प्रतिबंधों का खुला विरोध कर रहे हैं, वे भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस उपक्रम का लाभ उठा सकेंगे।
यदि ऐसी या इससे मिली-जुली कोई कार्रवाई हुई तो इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हड़कंप आ सकता है। इस तरह विश्व स्तर पर राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं और अमेरिकी दबदबा कम हो सकता है।
दूसरी बड़ी बात होगी कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में डॉलर के वर्चस्व पर कुछ रोक लगेगी। कुछ वर्षों से अमेरिका के बढ़ते व्यापार घाटे और अन्य कारणों से अमेरिकी डॉलर वैसे भी दबाव में रहा है और अनेक देश अपने विदेशी मुद्रा के भंडार के कुछ अधिक भाग को अन्य मुद्राओं (जैसे यूरो और येन) के रूप में रखने लगे हैं। लेकिन यदि प्रतिबंधों से बचने के दौर में अंतरराष्ट्रीय विनियम की कोई वैकल्पिक व्यवस्था उभरती है तो इससे डालर पर दबाव और बढ़ जाएगा और अंतरारष्ट्रीय मुद्रा के रूप में इसका वर्चस्व पहले की अपेक्षा कहीं कम हो जाएगा। इसके भी दूरगामी परिणाम होंगे।
दूसरी ओर अगर इन हलचलों के दौर में ईरान पर प्रतिबंधों का दबाव कहीं कम हो जाता है, तो उसकी आर्थिक क्षति भी कम हो सकेगी। जब फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, रूस, चीन जैसे महत्त्वपूर्ण देश प्रतिबंधों के विरोध में उतरने को कम या अधिक स्तर तक तैयार हैं, तो प्रतिबंध कितने असरदार रह जाएंगे? दक्षिण कोरिया ने भी वैकल्पिक व्यवस्था की ओर कदम उठाए हैं ताकि उसकी कंपनियों की ईरान जैसे महत्त्वपूर्ण बाजार में जगह बनी रहे। तुर्की ने तो प्रतिबंधों का बहुत स्पष्ट विरोध किया है।
इन सब स्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही भारत सरकार को भी अपनी नीति तय करनी चाहिए ताकि एक ओर भारतीय नीति न्याय के पक्ष में खड़ी नजर आए और दूसरी ओर भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा भी हो। अमेरिका के दबदबे में बहुत आसानी से आकर अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा न कर पाना उचित नहीं होगा और भारत जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण विकासशील देश को अपनी मजबूत पहचान बनानी चाहिए।
अब अगर विश्व में अमन-शांति और राजनीतिक स्थिरता के व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो इस समय सबसे उचित स्थिति यही रहेगी कि अमेरिका, ईरान पर 2018 में लगाए गए नए प्रतिबंधों को वापस लेने में देरी न करे। लेकिन इस समय ट्रंप और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोल्टन जिस नीति पर चल रहे हैं उसमें ऐसे निर्णय की संभावना बहुत कम नजर आ रही है। इसलिए फिलहाल तो हमें इस निर्णय से जुड़े अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों और बड़े बदलावों वाले हड़कंपों के लिए अपने को तैयार रखना चाहिए।
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