पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश पर सबसे अधिक फोकस इसलिए भी है कि इससे तय होगा कि बीजेपी राज में इस वक्त डॉ. मुरली मनोहर जोशी कौन हैं।
पिछले डेढ़ बल्कि दो दशकों के दौरान जो अपनी उम्र की वजह से पहली बार वोट देने के काबिल बने हैं, सिर्फ उनकी जानकारी के लिए कि डॉ. जोशी की बात क्यों हो रही है। अटल-आडवाणी दौर में भी डॉ. जोशी को मिलाकर बीजेपी की त्रिमूर्ति कहा जाता था। उस दौर में डॉ. जोशी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे, पर कभी अटल के जोड़ीदार नहीं बन पाए। आज आडवाणी के साथ वह भी पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में हैं, हालांकि पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को भी शायद ही अंदाजा हो कि इस मंडल का क्या काम है या इसे कौन-सा काम सौंपा गया है। वैसे, डॉ. जोशी के लिए यह सदमे वाला तो होगा लेकिन आडवाणी की तुलना में कम ही क्योंकि वह पार्टी या अटल सरकार में कभी नंबर टू नहीं बन पाए जबकि वह आडवाणी का प्रतिस्पर्धी बनने या कम-से-कम ऐसा दिखाने की सब दिन कोशिश करते रहे। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स के प्रोफेसर थे लेकिन केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रहते हुए उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में विज्ञानेतर तमाम चीजें लागू करने की हरसंभव कोशिश की।
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मोदी की बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी से भी बड़ा नेता बन जाने के बाद लड़ाई, दरअसल, यही है कि अब डॉ. जोशी कौन है। अटल के समय सब दिन कार्यकर्ता से लेकर संघ नेतृत्व तक को बिल्कुल साफ था कि प्रधानमंत्री बनने का अवसर आया, तो अटल को ही प्राथमिकता दी जाएगी, आडवाणी बगल की छोटी कुर्सी पर विराजमान होंगे। गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने सांप्रदायिक सामूहिक नरसंहार के जरिये जिस तरह अपनी हिन्दुत्ववादी छवि बनाई, अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के दौरान वही छवि आडवाणी की बनी। अटल के हाथ से जब केन्द्र की सत्ता फिसल गई, तो आडवाणी ने पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाकर उन्हें ‘सेकुलर’ तक बता दिया ताकि वह सर्वस्वीकृत हो जाएं। इस बयान पर संघ के कहने पर आडवाणी को पार्टी के विभिन्न पद छोड़ने भी पड़े। लेकिन चूंकि 2009 में अटल स्वास्थ्य कारणों से जरा भी सक्रिय नहीं थे इसीलिए आडवाणी को पार्टी ने प्रधानमंत्री-पद का उम्मीदवार बनाया। बीजेपी हार गई और आडवाणी अंततः कभी भी अपने को पीएम मेटेरियल साबित नहीं कर पाए। डॉ. जोशी की आस थी कि इन सबमें उनके हाथ बाजी कभी तो आएगी, पर उनकी मुट्ठी में इतनी रेत भी नहीं आई कि फिसले। बात इसीलिए हो रही कि आखिर, मोदी युग में उनके-जैसा कौन होगा।
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मोदी 71 साल पूरे कर चुके हैं और 2024 लोकसभा चुनाव के बाद 75 साल के हो जाएंगे। उन्होंने अपनी पार्टी में सरकारी पदों के लिए 75 साल की उम्र- सीमा तय कर रखी है क्योंकि इसी बिना पर उन्होंने कई बड़े नामों को मार्गदर्शक बना रखा है। अमित शाह जब तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे और बाद में केन्द्रीय गृह मंत्री बनकर उन्होंने जिस-जिस तरह संघ बल्कि मोदी की इच्छाओं के अनुरूप काम किए, उससे लगा कि वह नंबर टू बन गए हैं। लेकिन पहले लॉकडाउन के बाद से ही वह सार्वजनिक तौर पर कम ही दिख रहे हैं। इसका कारण लोग उनका स्वास्थ्य बताते हैं हालांकि यह कितना सच है, कहना मुश्किल है।
ऐसे में, पार्टी में विभिन्न स्तरों पर अनौपचारिक तौर पर माना जाता है कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आने वाले दिनों में मोदी का स्थान लेंगे। यह बात किसी अमित शाह को क्यों कर अच्छी लगेगी, कोई साधारण आदमी भी इस बारे में अनुमान लगा सकता है। मोदी बनाम योगी और योगी बनाम शाह के सार्वजनिक तौर पर हुए टंटे को इसी क्रम में देखना चाहिए। स्वाभाविक मनोविज्ञान है कि शीर्ष पद पर बैठा कोई व्यक्ति तब तक इन सबमें रुचि लेता है जब तक उसे चुनौती देने की स्थिति न बनती हो। पार्टी में मोदी को चुनौती देने वाला एक तो कोई है नहीं; जो इक्का-दुक्का कभी-कभार दिखते भी हैं, वे लोग पार्टी में अपने राजनीतिक भविष्य को धूमिल ही देखते हैं, इसलिए वैसे कर पाते हैं।
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यूपी चुनाव पर इसीलिए निगाह रखनी चाहिए। अगर योगी उसमें इतनी संख्या नहीं जुटा पाए कि सरकार बना सकें, तो वह मुरली मनोहर जोशी की गति को प्राप्त होंगे। अपने को ‘चाणक्य’ कहलाना पसंद करने वाले अमित शाह यही चाहते भी हैं। शाह समर्थक किस तरह कहां योगी की राजनीति पर मिट्टी डालते रहेंगे, कहना मुश्किल ही है। इसी वजह से योगी उन्हें लेकर अत्यधिक सतर्क हैं। दोनों ही आडवाणी बनना चाहते हैं। इस दृष्टि से इन दोनों पर निगाह बनाए रखने की जरूरत है।
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