विचार

खरी-खरी: यूपी में कमंडल पर भारी मंडल, मोदी नहीं कर पा रहे योगी पर भरोसा, इसीलिए डाला है यूपी में डेरा

मौजूदा परिस्थितियों में बीजेपी के लिए यूपी का चुनाव बेहद कठिन है। इसी कारण मोदी जी ने चुनावी कमान योगी के बजाए अपने हाथों में अभी से ले ली है। लेकिन, वह अभी से जिस तरह चुनावी अभियान में जुटे हैं, उससे स्पष्ट है कि वह भी स्वयं जमीनी हालात से चिंतित हैं।

फोटो : सोशल मीडया
फोटो : सोशल मीडया 

मोदी जी इन दिनों भाग-भाग कर उत्तर प्रदेश जा रहे हैं। कभी लखनऊ, तो कभी काशी, तो कभी अयोध्या। बात भी कुछ ऐसी ही है कि आए दिन उत्तर प्रदेश का रुख करना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश कोई मामूली प्रदेश नहीं है। यह लोकसभा में सबसे अधिक 80 सांसद भेजता है। राजनीतिक में कहा जाता है कि जिसने उत्तर प्रदेश जीता, समझो, उसने भारत जीता। उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव इसी कारण लोकसभा चुनाव की पहली सीढ़ी समझा जाता है। करीब तीन माह बाद होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मोदी जी की रुचि स्वाभाविक है। यूं भी मोदी जी हर प्रदेश का चुनाव अपने कंधे पर ले लेते हैं। परंतु उत्तर प्रदेश चुनाव में मोदी की रुचि पिछले चुनाव से कुछ अधिक ही नजर आ रही है।

चुनाव की घोषणा से पूर्व स्वयं प्रधानमंत्री का भाग-भाग कर उत्तर प्रदेश जाना बीजेपी के लिए कुछ अच्छे संकेत नहीं देता है। यह साफ दिखाई पड़ रहा है कि बीजेपी खेमे में कुछ घबराहट है। इस घबराहट का कारण भी है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जनता में बहुत लोकप्रिय नहीं हैं। पिछले पांच वर्षों में प्रदेश में क्या कुछ नहीं हो गया। हद यह है कि अभी पिछले सप्ताह स्वयं उच्च न्यायालय ने यह बात मान ली कि लखीमपुर खीरी में किसानों की हत्या एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत हुई थी। ऐसी कितनी घटनाएं पिछले पांच सालों में हुईं, उनकी प्रदेश में चर्चा है। प्रदेश अभी हाथरस में होने वाले दलित लड़की के रेप को भूला नहीं है। फिर कानपुर के दबंग विकास दुबे को पुलिस ने जिस प्रकार तथाकथित एनकाउंटर में मारा, उससे प्रदेश का ब्राह्मण वर्ग बहुत प्रसन्न नहीं है। योगी जी के प्रशासन पर यह भी इल्जाम लग रहा है कि उनके शासनकाल में प्रदेश में खुला ठाकुरवाद चल रहा है।

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स्पष्ट है कि इन परिस्थितियों में चुनाव बीजेपी के लिए कठिन है। इसी कारण मोदी जी चुनावी कमान योगी जी के हाथों में नहीं छोड़ अपने हाथों में अभी से ले चुके हैं। परंतु वह अभी से जिस प्रकार चुनावी अभियान में जुटे हैं, उससे स्पष्ट है कि वह भी स्वयं जमीनी हालात से चिंतित हैं। इसके स्पष्ट कारण हैं। किसान आंदोलन के चलते प्रदेश का पश्चिमी भाग लगभग बीजेपी के हाथों से निकल गया। वह जाट समाज जो मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बीजेपी का वोट बैंक बन चुका था, उस समाज ने कृषि कानूनों के बाद बीजेपी का दामन छोड़ दिया। इस क्षेत्र में पिछली बार बीजेपी ने सबको पटखनी दी थी। अतः इस क्षेत्र में चिंता है। परंतु बात केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नहीं है। आग तो पूरे प्रदेश में लगी है। उत्तर प्रदेश से जो खबरें मिल रही हैं, उसके अनुसार प्रदेश चुनाव जातीय आधार पर ध्रुवित हो रहा है। और यही बीजेपी के लिए सबसे अधिक चिंता का विषय है।

बीजेपी की संपूर्ण रणनीति हिन्दू पहचान पर निर्भर रहती है। नरेंद्र मोदी हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के बादशाह हैं। वह मुसलमानों को हिन्दू-शत्रु की छवि देकर हिन्दू वोट बैंक को बीजेपी के हक में एकत्र कर चुनाव निकालते रहे हैं। यदि चुनाव जातीय आयाम ले लेता है, तो बीजेपी एवं मोदी जी की धर्म की रणनीति धूमिल पड़ सकती है। परंतु सन 2014 से जातिगत राजनीति छोड़चुका उत्तर प्रदेश पुनः जाति के आधार पर क्यूं सोच रहा है।

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योगी जी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों का उन पर यह आरोप है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षों से खुला ठाकुरवादी शासन चल रहा है। हद यह है कि प्रदेश की पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि केशव प्रसाद मौर्य एवं ब्राह्मण समाज के उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा की भी शासन में कोई पूछ नहीं है। फिर दलितों एवं अतिपिछड़ी जातियों पर आए दिन अत्याचार के समाचार आते रहते हैं। दलित महिलाओं से बलात्कार के न जाने कितने समाचार सुनने में आए। इन परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश शासन हिन्दुत्व शासन कम और ठाकुरवादी शासन अधिक हो गया है।

स्वाभाविक है कि पिछले तीन दशकों में जातीय मंडल राजनीति के गढ़ उत्तर प्रदेश में यदि हिन्दुत्व की पकड़ ढीली पड़ी, तो जातिवाद का जोर सिर उठाएगा ही। अभी तक जो समाचार मिल रहे हैं, उससे यह आभास होता है कि अति पिछड़ी जातियों का एक बड़ा वर्ग एवं दलितों की बड़ी जनसंख्या इस चुनाव में बीजेपी का विकल्प ढूंढ़ रही है। फिर, जाट एवं मुसलमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में एकजुट होकर बीजेपी को हराने की रणनीति के बारे में सोच रहे हैं। यदि चुनाव में ऐसा ध्रुवीकरण हो गया, तो बीजेपी के लिए गहरा संकट उत्पन्न हो सकता है।

अब हिन्दुत्व राजनीति के सर्वश्रेष्ठ स्तंभ नरेंद्र मोदी एवं संघ के पास केवल यही उपाय है कि किसी प्रकार उत्तर प्रदेश चुनाव को पुनः हिन्दू- मुस्लिम ध्रुवीकरण की ओर ठेला जाए। यही कारण है कि पिछले सप्ताह मोदी जी ‘काशी कॉरिडोर’ में घूमकर उत्तर प्रदेश चुनाव को ‘औरंगजेब बनाम शिवाजी’ का आयाम देने की चेष्टा कर रहे थे। बीजेपी को जातीय ध्रुवीकरण का इतना भय है कि वह केवल काशी ही नहीं, अपितु मथुरा एवं अयोध्या हर धार्मिक कार्ड खुलकर इस चुनाव में प्रयोग कर रही है।

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मोदी जी धर्म के साथ-साथ ‘डेवलपमेंट’ का भी तड़का लगाते हैं। इसके लिए जेवर एयरपोर्ट से लेकर हर क्षेत्र में आठ एवं छह लेन एक्सप्रेस वे निर्माण का शिलान्यास किया जा रहा है। परंतु बीजेपी को इस पर भी भरोसा नहीं है कि इससे चुनाव वह जीत ही जाएगी! अतः इस बार सरकार की ओर से गरीब जनता को बीजेपी के पक्ष में मोड़ने के लिए मुफ्त डबल राशनसे लेकर स्कूली बच्चों के ड्रेस के लिए नकदी पैसा बांटकर चुनाव को खरीदने की रणनीति का भी प्रयोग हो रहा है।

स्पष्ट है कि बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश चुनाव वॉकओवर नहीं है। परंतु मोदी जी, बीजेपी एवं संघ- कोई भी उत्तर प्रदेश कों हाथों से निकलने नहीं दे सकता है। अतः चुनावी प्रचार के साथ- साथ हर प्रकार की व्यवस्था की संपूर्ण शक्ति भी इस चुनाव में झोंक दी जाएगी। उत्तर प्रदेश चुनाव में इस बार जैसे पैसा पानी की तरह बहेगा, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। फिर धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्था संपूर्ण शक्ति के साथ चुनावी मैदान में होगी। यदि आवश्यकता पड़ी तो चुनाव बिहार एवं त्रिपुरा मॉडल पर भी हो सकते हैं। लब्बोलुबाब यह कि इस बार उत्तर प्रदेश में चुनाव नहीं, चुनावी महाभारत होगा जिसमें पुनः कमंडल एवं मंडल शक्तियों का आमना-सामना होगा। देखें, जब वोटों की गिनती होगी तो पलड़ा किसका भारी रहता है।

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और अब ओमिक्रॉन की दहशत!

कोविड-19 की तीसरी लहर की दहशत संसार को जकड़ चुकी है। अबकी डेल्टा नहीं, ओमिक्रॉन का भय है। दक्षिण अफ्रीका एवं यूरोप में अभी तक इसका जोर है। ब्रिटेन, डेनमार्क एवं हालैंड जैसे देशों में यह महामारी तेजी से फैल रही है। दक्षिण अफ्रीका में तो अस्पताल भरे पड़े हैं। भारत में भी यह बीमारी पैर रख चुकी है। ओमिक्रॉन का आतंक कब हमारे देश में फैल जाए, कहना मुश्किल है। यूं तो इसके बारे में अभी तक वैज्ञानिक स्तर पर कुछ कहना कठिन है। परंतु दो बातें बहुत स्पष्ट हैं। पहली तो यह कि ओमिक्रॉन डेल्टा से अधिक तेजी से फैलता है। ओमिक्रॉन का एक मरीज तीन से अधिक लोगों को बीमार करवा सकता है जबकि डेल्टा वायरस से एक व्यक्ति प्रभावित होता था। दूसरी बात जो स्पष्ट है, वह यह है कि अभी तक ओमिक्रॉन से प्रभावित व्यक्तियों की मौत कम हो रही है। परंतु ऐसा ही होगा, यह कहना अभी सही नहीं होगा।

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भारत में ओमिक्रॉन से एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है। अतः बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है। चिंताजनक बात यह है कि अभी तक जिन लोगों को कोरोना का टीका लग चुका है, उन पर ओमिक्रॉन का क्या प्रभाव होगा, यह बात भी स्पष्ट नहीं है। ऐसे लक्षण हैं कि जिनका टीकाकरण हुए अधिक समय बीत चुका है, उन पर भी ओमिक्रॉन का प्रभाव हो रहा है। परंतु जिन लोगों को टीका अभी हाल में लगा है, उन पर ओमिक्रॉन का प्रभाव कम है। भारत में समस्या यह है कि बहुत बड़ी जनसंख्या को टीके की दूसरी डोज नहीं मिली है। ऐसी दशा में यह महामारी तेजी से फैल सकती है। परंतु यह निश्चित है कि ओमिक्रॉन से भी बचने का एकमात्र उपाय टीका ही है।

हैरत की बात यह है कि यूरोप में एक बहुत बड़ी वैक्सीन विरोधी लॉबी है जो टीकाकरण की घोर विरोधी है। दूसरी ओर, एक बहुत बड़ा समूह वैक्सीन के पक्ष में है। हद तो यह है कि यूरोप के कुछ देशों में इन दोनों समूहों के बीच सड़कों पर झड़पें भी हो चुकी हैं। वैक्सीन का विरोध बेकार बात है क्योंकि वैक्सीन ही ओमिक्रॉन से भी बचा सकती है। सावधान रहिए एवं अपना टीकाकरण करवाइए।

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