भारत में बेशक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था हो लेकिन जहां तक व्यवहार की बात है, 2014 के बाद से यहां जैसे राष्ट्रपति प्रणाली ही चल रही है। प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली ऐसी है कि इस सरकार को लोग ‘मोदी सरकार’ कहने लगे हैं और लगता है कि यह बस वक्त की ही बात है, जब लोग उन्हें राष्ट्रपति मोदी कहने लगेंगे।
हो सकता है कि 2020 के भारत में किसी ऐसे व्यक्ति से शासित होने के भाव के साथ देश के ज्यादातर लोग सहज न हों, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जिन्होंने यह महसूस करते हुए खुद को समझा लिया है कि उनकी किस्मत का फैसला अब इसी शख्स के हाथ है।
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सत्ता में छह साल बिताने के बाद अब लोगों के मन में यह सवाल उठने लगा है कि नीरव मोदी, विजय माल्या, मेहुल चोकसी से लेकर नित्यानंद तक के मोदी सरकार की नाक के नीचे से विदेश भाग जाने के पीछे आखिर माजरा क्या है, किसका किसको आशीर्वाद प्राप्त है। ‘शासक’ ने राफेल सौदे में दो हफ्ते पहले बनी अनिल अंबानी की कंपनी को फायदा पहुंचाया और बेशक इसपर सुप्रीम कोर्ट को कोई गलत बात नहीं दिखी, लेकिन संदेह तो पैदा होता है।
शब्द जेहन में गूंजते रहते हैं और पिछले छह साल के दौरान नरेंद्र मोदी ने ऐसी तमाम बातें कहीं हैं जो अब उन्हीं से सवाल करने लगी हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान तब गुजरात के मुख्यमंत्री ने कहा था, “कांग्रेस का हाथ केवल चुनाव के दौरान दिखता है और फिर यह अगले चुनाव तक गायब रहता है। इसके नेता बड़े होशियार हैं जो पहले तो हाथ दिखाते हैं, फिर हाथ जोड़ते हैं, हाथ मिलाते हैं और फिर हाथ हिलाते हुए चल देते हैं।”
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यह बात उन्होंने एक के बाद एक, तमाम रैलियों में कही और तालियां बटोरते रहे। छह साल बाद मोदी के शब्द भारतीय जनता पार्टी पर ही खरे उतर रहे हैं, जिसका एकमात्र मकसद चुनाव जीतना और सत्ता पर कब्जा करना है। तब मोदी ने कहा था कि पिछले साढ छह दशकों के दौरान लोगों ने महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार को झेला है और उनकी सरकार यह सब बदल देगी।
छह साल बाद पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस से लेकर ट्रेन टिकट-प्लेटफॉर्म टिकट- सबकुछ महंगा हो गया है। जिंदा रहने के लिए बड़ी संख्या में लोगों ने सब्जी बेचना-पकौड़े तलना शुरू कर दिया है और आम आदमी की जेब से ताल्लुक रखने वाली ज्यादातर बातों पर बड़बोले मोदी ने चुप्पी साध ली है।
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उन्हें रेडियो-टीवी पर आत्मप्रशंसा करते और हर विषय पर पांडित्य बघारते सुना-देखा जा सकता है, लेकिन उनके पास उन लाखों-लाख प्रवासी मजदूरों के लिए कोई समय नहीं जिन्हें मोदी के बिना किसी नोटिस के लॉकडाउन लागू कर देने के बाद काम-धंधे से निकाल बाहर किया गया। पिछले दो माह के दौरान इन लोगों के लिए मोदी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला।
पिछले छह साल में इस सरकार ने बार-बार यह साबित किया है कि दुष्प्रचार पर टिकी यह सरकार मुख्यतः दुष्प्रचार को ध्यान में रखते हुए ही काम करती है। 3 जून को सभी प्रमुख समाचारपत्रों में विज्ञापन प्रकाशित कराया गया, जिसमें कहा गया- “प्रवासी मजदूर और दिहाड़ी श्रमिंक मित्रों... देश आपके साथ है!”
यह भी कहा गया कि मनरेगा के अंतर्गत दैनिक मजदूरी में 20 रुपये की वृद्धि की गई है, ताकि कोरोना वायरस वैश्विक महामारी के कारण पैदा मुश्किल हालात से निकलने में उन्हें आसानी हो। इसे क्रूर मजाक ही कह सकते हैं। एक ऐसी सरकार जिसने लाखों-करोड़ों लोगों के लिए वस्तुतः कुछ भी नहीं किया, वह प्रति परिवार प्रति दिन 20 रुपये अतिरिक्त की पेशकश करते हुए जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है।
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लेकिन ऐसा भी नहीं कि 2014 से 2020 की यात्रा तय करने में हर किसी की स्थिति खराब ही हुई है। भारत में इस दौरान अरबपतियों की संख्या में अच्छा-खासा इजाफा हुआ है और धनी-मानी लोगों ने विदेशों में कहीं अधिक संपत्तियां खरीदीं और बाहर कहीं ज्यादा पैसे लगाए। लेकिन देखने की बात है कि आम लोगों की स्थिति क्या है।
जीडीपी विकास दर 11 साल के न्यूनतम स्तर पर है और बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर, निजी निवेश की हालत खस्ता है, रेटिंग एजेंसी भारत की रेटिंग को कम करती जा रही हैं, मुद्रास्फीति बढ़ती जा रही है, ब्याज दर घटती जा रही है जिससे बचत और वरिष्ठ नागरिक प्रभावित हो रहे हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा-जैसे सामाजिक क्षेत्रों से लेकर रक्षा तक के लिए बजट आवंटन में कमी कर दी गई है। ऐसा लगता है कि देश के लिए बलिदान की अपेक्षा सरकार के अलावा हर किसी से की जा रही है।
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आम लोगों से लेकर अर्थव्यवस्था के लिए ऋण लेकर जिंदा रहने का नुस्खा तैयार कर दिया गया है- लोन लो, खुश रहो। ब्याज दर कम हो ही गई है, ईएमआई का बोझ घटा ही दिया गया है, ऋण लेना आसान कर ही दिया गया है। सरकार को लगता है कि इसके अलावा तो किसी चीज की जरूरत है नहीं। लोग ज्यादा खरीदने लगेंगे तो विकास की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी।
लेकिन इन सबसे ज्यादातर लोगों की जिंदगी पर कोई फर्क नहीं पड़ता। फायदा केवल उन चंद ठेकेदारों, व्यापारियों, सप्लायर्स को होगा जो सरकार या भारतीय जनता पार्टी से जुड काम कर रहे हैं। यही लोग खुश हैं। हां, सरकार ने जिन वकीलों की सेवाएं ले रखी हैं, वे सबसे ज्यादा खुश हैं।
सरकार चाहती है कि लोग मान लें कि ‘छह साल बेमिसाल’ रहे। लेकिन कैसे? जैसा किसी भी सरकार के साथ होता है, इस सरकार ने भी कुछ अच्छे काम किए हैं। लेकिन उसके ज्यादातर काम गलत और कुछ तो बहुत ही गलत रहे। इसने बैंकरप्सी कोड, एनसीएलटी और जीएसटी- जैसे कदम उठाए, जिनकी दिशा तो सही थी लेकिन इस मामले में भी सरकार ने जैसे अपने ही पैर में गोली मार ली।
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देश अभी नोटबंदी और दोषपूर्ण जीएसटी के झटके से उबरने की कोशिश कर ही रहा था कि अचानक लागू कर दिए गए लॉकडाउन ने सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बीजेपी सरकार ने तीन बड़ी भूलें की हैं। मजबूत केंद्र और कमजोर राज्य की उसकी अवधारणा के कारण सत्ता का केंद्रीकरण हो गया। भारत जैसे विशाल, विविध और जटिल देश में विकेंद्रीकरण ही काम कर सकता है और इसी कारण शक्तियों का केंद्रीकरण विनाशकारी साबित हुआ है।
एक ही समय में बहुत सारे मोर्चों पर आगे बढ़ना इसकी दूसरी गलती रही। वह सरकार भाग्यशाली होती है जो साल में एक या दो बड़े फैसले लेकर उसे क्षमता से पूरा कर ले। कदम-दर-कदम बढ़ने की जगह सरकार ने एक ही झटके में सबकुछ बदल देने में अपनी सारी ऊर्जा, संसाधन और वक्त लगा दिया जिसके कारण भ्रम और अफरातफरी की स्थिति बनी। विपक्ष में रहते हुए बीजेपी ने सभी को सबकुछ देने का वादा किया था।
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अपने इसी वादे को पूरा करने के चक्कर में बीजेपी ने सुशासन को जमीन सुंघा दी। सरकार की तीसरी गलती अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने में की गई हड़बड़ी रही। बैंकिंग, पुलिस और प्रशासनिक सुधारों की जगह उसने राम मंदिर, तीन तलाक, अनुच्छेद 370, एनआरसी और संशोधित नागरिकता कानून पर आगे बढ़ने का फैसला किया।
इनके अलावा मोदी सरकार ने जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे को बेदर्दी से खर्च करके एक और बड़ी गलती की। लड़ाकू विमानों से अस्पतालों पर फूलों की बारिश, विशालकाय मूर्तियों और भवनों का निर्माण, गोबर और गोमूत्र को प्रोत्साहन, पंचगव्य को प्रोत्साहन देने के लिए कामधेनु आयोग- जैसे संस्थानों के गठन, अनुसंधान के पैसे को यह खोजने में लगाना कि क्या प्राचीन भारत के लोग स्टेम सेल के बारे में जानते थे, ये सब ऐसी गतिविधियां हैं, जिनपर होने वाले खर्च को टाला जा सकता था। क्या यह जरूरी था कि महामारी के इस दौर में 20,000 करोड़ की लागत वाली लुटियन दिल्ली की सेंट्रल विस्टा परियोजना पर आगे बढ़ा जाता?
मोदी सरकार के छह साल के दौरान इस तरह किए गए नुकसानों की लंबी फेहरिस्त है। लेकिन इसने सामाजिक सौहार्द्र को जो नुकसान पहुंचाया है और जिस तरह से आंकड़ों और संस्थानों की विश्वसनीयता को दूषित किया है, उसका खामियाजा देश को लंबे समय तक भुगतना होगा।
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2014 के चुनाव से भारत के चुनावी इतिहास का एक नया अध्याय खुला। अमेरिका के प्रचार की तर्ज पर प्रचार हुआ। दोनों हाथों से पैसे लुटाते गए, सोशल मीडिया के ज्वार की सवारी करते हुए मोदी ने लोगों से अपील की- एक परिवार ने भारत पर 60 साल तक शासन किया है, आप मुझे केवल 60 महीने दें। उन्होंने गुजरात को पूरे जोर-शोर से शोकेस करते हुए कहा कि उनका राज्य आज 21वीं सदी में है, जबकि सारा देश 19वीं सदी में रह रहा है।
लोगों को बताया कि वह गुजरात में एक ऐसे शहर का निर्माण कर रहे हैं जो दिल्ली से दूना और शंघाई से छह गुना बड़ा होगा। उन्होंने गुजरात के रेगिस्तान तक में पानी पहुंचाया है। क्या शहर-क्या गांव, हर जगह बिजली पहुंचाई है। उन्हें मौका दें, वह देश को गुजरात बना देंगे। वादा किया कि पाकिस्तान को सबक सिखा देंगे और चीन को उसकी औकात बता देंगे। भारत को उसकी जगह दिलाएंगे, विदेशों में जमा किए गए काले धन को वापस लाएंगे। ऐसे तमाम वादे करते हुए उन्होंने देश के लोगों को अच्छे दिन का सब्जबाग दिखाया। छह साल बाद उन्होंने देश को कहां पहुंचाया, यह सबके सामने है।
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