अमेरिका ने अपने 46वें राष्ट्रपति के रूप में जोसेफ आर बिडेन को चुना है, 7 नवंबर को इसका ऐलान होते ही दुनिया ने चैन की सांस ली है। चार दिन चली वोटों की गिनती के बाद आखिरकार इसका ऐलान हुआ और इसके साथ ही कमला हैरिस ने अमेरिकी इतिहास में पहली महिला उपराष्ट्रपति चुने जाने का इतिहास भी रच दिया।
इस बार अमेरिकी चुनाव सिर्फ अमेरिकियों के लिए ही नहीं था, बल्कि पूरी दुनिया की नजरें इस चुनाव पर लगी हुई थीं। यह वह चुनाव था जिसमें अमेरिका सिर्फ अपना अगला राष्ट्रपति नहीं चुन रहा था, बल्कि अमेरिका को चुनना था कि वह डोनल्ड ट्रंप की विभाजनकारी, नस्लभेदी और गैर उदारवादी नीतियों पर मुहर लगाते हैं या नहीं। ट्रंप की इन नीतियों से बीते चार साल में दुनिया के कई हिस्से प्रभावित हुए हैं।
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आखिरकार अमेरिकियों ने धमाके के साथ ट्रंप को खारिज कर दिया और जो बिडेन को 40 लाख से ज्यादा वोटों से जिता दिया। बिडेन ने भी अमेरिका में अबतक हुए चुनावों में सर्वाधिक वोट हासिल कर इतिहास रच दिया। एक जमाइकन-अमेरिकन पिता और एक भारतीय-अमेरिकन मां की बेटी कमला हैरिस को चुनकर अमेरिका ने यह भी साबित किया कि अमेरिका दरअसल एक बहुलतावादी समाज है जो सिर्फ श्वेतों का नहीं है, उदारवादी मूल्यों वाला है और अमेरिका एक ऐसा देश है जहां प्रवासी, शरणार्थी और सभी लोग एक दूसरे के साथ शांति से रह सकते हैं।
अमेरिकी चुनावों में उदारवादी और समावेशी नीतियों की जीत वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि बीते करीब एक दशक से दुनिया के कई हिस्सों में विभाजनकारी और दक्षिणपंथी राजनीति का बोलबाला रहा है। इसमें भारत भी शामिल हैं जहां नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के बाद से बहुसंख्यावादी राजनीति को बढ़ावा दिया है।
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रूस में व्लादिमिर पुतिन, तुर्की में अर्दोगन और कई अन्य दक्षिणपंथी शासकों ने इस दौरान सत्ता पर कब्जा किया है और अति-राष्ट्रवादी राजनीति को बढ़ावा दिया है जिससे बड़े पैमाने पर नस्लभेद और अल्पसंख्यकों के खिलाफ माहौल बना है।
अमेरिका में बिडेन का राष्ट्रपति बनना और बिहार में उदारवादी महागठबंधन की जीत के अनुमानों से उम्मीद जगी है कि एक बार फिर उदारवादी और बहुलतावादी राजनीति का दौर आ रहा है
उच्च तकनीक वाली मुक्त बाजार के आर्थिक पूंजीवाद ने दुनिया भर में करोड़ों नौकरियां खत्म की हैं और बड़े पैमाने पर असमानता और असुरक्षा बढ़ी है जिसका फायदा ट्रंप और मोदी जैसे लोगों को एक अदृश्य की छवि गढ़ने का मौका मिला। सत्ता हथियाने के लिए अमेरिका में शरणार्थियों का हौवा खड़ा किया गया तो भारत में मुस्लिमों का। इन लोगों ने नफरत भरा एक जहरीला माहौल तैयार किया जिससे पैदा सामाजिक विभाजन से बड़े पैमाने पर लोग प्रभावित हुए।
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बिडेन की अगुवाई में डेमोक्रेट ने केंद्रीय और वामपंथी झुकाव वाले श्वेत अमेरिकी मध्य वर्ग, कामकाजी अश्वेतों, उपनगरों में रहने वाले श्वेत अमरीकियों का एक गठबंधन तैयार किया। इनमें युवा छात्रों और अमेरिकी महिलाओं की महती भूमिका रही जिन्होंने अंतत: ट्रंप की नस्लभेदी और दक्षिणपंथी नफरत की राजनीति को पराजित किया। इस चुनाव से भारत के उदारवादी लोकतांत्रिक लोगों के लिए संदेश है कि वे भी राष्ट्रीय स्तर पर सभी समुदायों, जातियों का एक गठबंधन बनाएं, जैसा कि बिहार चुनावों में तेजस्वी यादव ने किया या फिर 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किया था।
बड़े पैमाने पर बढ़ती बेरोजगारी और गर्त में जाती अर्थव्यवस्था से हताश भारतीय मतदाताओं को ऐसी ही सामान्य राजनीति का इंतजार है जो खास वर्ग की राजनीति को धता बता सके।
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ध्यान रहे कि नरेंद्र मोदी का जादू फीका हो रहा है, क्योंकि सिर्फ अपने दम पर चुनाव जिताने की उनकी क्षमता क्षीण हो रही है। बीते कुछ सालों में बीजेपी आधे दर्जन से अधिक विधानसभा चुनाव हार चुकी है, इनमें राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड शामिल हैं। यहां तक कि मध्यप्रदेश और कर्नाटक में भी बीजेपी ने धोखाधड़ी कर ही सत्ता हासिल की है। इन सभी चुनावों में नरेंद्र मोदी की छवि और उनका एजेंडा ही दांव पर था। इन सभी राज्यों में वोटर मोदी के झांसे में नहीं आए, और अगर एग्जिट पोल के अनुमानों को मानें तो अब बिहार भी एनडीए की पहुंच से दूर होता दिख रहा है
लेकिन दक्षिणपंथी राजनीति से पैदा खतरा टला नहीं है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने सही ही लिखा है, “भले ही ट्रंप चुनाव हार गए हों, लेकिन ट्रंपवाद को हराना बाकी है...”
ऐसे में उदारवादी और लोकतांत्रिक ताकतों को एक वैश्विक गठबंधन बनाना होगा, बिल्कुल उसी तरह जैसा कि 1040-40 के दशक में नस्लभेद के खिलाफ बना था और हिटलर का पतन हुआ था। अमेरिका ने बिडेन-हैरिस विजय से रास्ता दिखाया है कि कैसे श्वेत-अश्वेत, प्रवासी और अन्य का एक बहुरंगी गठबंधन बनाकर इन्हें हराया जा सकता है।
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