दक्षिणपंथी, महिलाओं के बारे में उलजलूल बोलने वाले दुनिया के उन शासनाध्यक्षों में संभवतः डोनाल्ड ट्रंप सबसे खास हैं जिन्होंने निर्वाचन प्रक्रिया के तहत सत्ता पाई और जिन्होंने पहचान की राजनीति करने को कभी छुपाने की कोशिश नहीं की। ट्रंप अपनी दोस्ती का इजहार करने में भी बड़े बेबाक रहे हैं। गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर भाग लेने के लिए जनवरी में ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो दिल्ली आए और उसके बाद अब फरवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत आ रहे हैं। ट्रंप की इस यात्रा को लेकर विश्लेषक कुछ ज्यादा ही सोच रहे हैं और वे यह अनुमान लगाने में व्यस्त हैं कि ट्रंप कश्मीर पर मध्यस्थता की पेशकश करेंगे या नहीं!
मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह सच है कि ट्रंप ने पहले कई मौकों पर कश्मीर पर मध्यस्थता करने को लेकर परस्पर विरोधाभासी बातें कही हैं। ट्रंप ने जब भी ऐसा किया, अटकलबाजी का बाजार गर्म हो गया कि इससे भारत की गतिविधियों पर क्या असर पड़ेगा, पाकिस्तान का रुख क्या होगा, अगर मामला आगे बढ़ा तो बातचीत त्रिकोणीय होगी या चतुष्कोणीय। बिना कश्मीरियों को शामिल किए कश्मीर मसले को हल करने को इच्छुक विश्लेषक सुरक्षा संबंधी समीकरणों के हवाई आयामों पर नजरें गड़ा बैठे।
लेकिन सवाल यह उठता है कि ट्रंप आखिर भरोसा क्यों नहीं जगाते हैं? इसका जवाब उनके व्यक्तित्व में है, उनके और उनके प्रशासन के महत्वपूर्ण लोगों के बीच उनके रिश्तों से उभरते संदेश में है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की कोई भूमिका ही नहीं। बिल्कुल है, और यह कई तरह से है कि कई फोरम की भूमिका इसमें है। बात चाहे भारत या बाहर शांति की पहल की हो या फिर अमेरिकी कांग्रेस और संयुक्त राष्ट्रसंघ की।
अगस्त, 2019 में त्रासदी और संघर्ष के लंबे दौर की इंतिहा हो गई और तब से कश्मीरी जबर्दस्त घुटनभरी जिंदगी जी रहे हैं। उनकी जुबां पर ताले लगा दिए गए हैं और उनके साथ क्या होना है, इसे तय करने में कश्मीरियों की इच्छा बिल्कुल अप्रासंगिक हो गई है। भारत ने कश्मीर में जो किया है, इस संदर्भ में अमेरिकी कांग्रेस में हुई चर्चा महत्वपूर्ण हो जाती है।
पहली बार अक्टूूबर, 2019 में चर्चा हुई जिसमें मैंने भी हिस्सा लिया और फिर नवंबर, 2019 में इस संबंध में एक प्रस्ताव पेश किया गया। इससे इनकार नहीं कि सत्ता के दुरुपयोग के मामले में अमेरिका का एक इतिहास रहा है और राष्ट्रपति ट्रंप के नेतृत्व वाला प्रशासन किसी भी तर्कशील व्यक्ति में कोई उम्मीद नहीं जगाता लेकिन अमेरिकी कांग्रेस के प्रतिनिधियों का कश्मीर पर पत्र लिखना और इस पर चर्चा करना निश्चित तौर पर एक महत्वपूर्ण घटना है।
भारत लोकतंत्र और उभरती हुई शक्ति होने का दावा करता है, लेकिन 2014 के बाद इसके नेतृत्व ने, खास तौर पर सांप्रदायिक एजेंडे के साथ, प्रतिगामी और प्रतिशोध की भावना से काम करते हुए कश्मीर का इस्तेमाल भय और भेदभाव भरी राजनीति के लिए किया है, कश्मीर में विकास के नाम पर वहां के संसाधनों पर कब्जे का रास्ता साफ किया है और भारत में असहमति जताने को घृणित बना दिया है। आम कश्मीरियों का जीवन और उनकी आजीविका के लिए दैनिक आपातकाल- जैसी स्थिति हो गई है।
अगर हम बुनियादी मानवीय अर्थ में देखें तो कश्मीर की समस्या तो हर किसी की समस्या होनी चाहिए। एक और बात, यह बात बिल्कुल साफ है कि औपनिवेशिक शैली की बातों से कोई हल नहीं निकल सकता, जो उन्हीं के सिर की बाजी लगाती हो जिनका जीवन दांव पर हो। कश्मीर मसले को हल करने की किसी भी विश्वसनीय और ठोस प्रक्रिया की शुरुआत तो कश्मीरियों से ही होनी होगी।
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य व्यक्ति-निरपेक्ष नहीं, औपनिवेशिक से न्यायिक संप्रभुता में आने के दरमियान खाली जगह रह जाती है और आबादी की प्रकृति के आधार पर राजनीति करने वाले नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप- जैसे व्यक्ति राजनीति के सवाल को अस्तित्व का सवाल बना देते हैं। कश्मीर संघर्ष के संबंध में सबसे बुनियादी बात यही है। यह समझना होगा कि वैसी आबादी जो न केवल सैनिक कब्जे, बल्कि उनके संघर्ष को हाशिये पर डालने वाले किसी भी राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ भी जद्दोजहद कर रही हो, उस पर कोई भी हल ऊपर से नहीं थोपा जा सकता।
कश्मीर में लोकतांत्रिक विरोधाभास का मतलब उन नेताओं से है जो कश्मीरी राष्ट्रवादी विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, चुनावी क्षेत्र में लोगों के प्रतिनिधि नहीं हो सकते। घाटी के कश्मीरी दशकों से अपने वाजिब अधिकारों से वंचित, घोर मानवाधिकारों के हनन को सहने वाले, आपातकाल के कानून को झेलने वाले, अपमान और उत्पीड़न के दौर को झेलने वाले हैं।
इस संदर्भ में संप्रभुता के न्यायिक दावे खोखले और अमूर्त हैं। भारत द्वारा कश्मीर पर संप्रभुता बनाए रखने का एकमात्र तरीका क्षेत्र का बड़े पैमाने पर सैन्यीकरण और लोगों के खिलाफ बल का प्रयोग है, जिसे कानूनी रूप से वैध ठहराने की व्यवस्थाओं से बनाए रखा जाता है। जाहिर है, यह सब करते रहने के लिए एक समय के बाद भारतीय जनमानस की स्वीकृति तैयार करने की जरूरत थी और इसके लिए बड़ी होशियारी से कश्मीर की राजनीतिक आकंक्षाओं, नरसंहारों, यौन हिंसा, यातनाओं, लोगों को जबरन लापता कर देने और तमाम अन्य अपमानजनक घटनाओं को सार्वजनिक विमर्श से दूर रखा गया।
पिछले साल 5 अगस्त को जब कश्मीरियों से उनकी स्वायत्तता छीन ली गई, क्षेत्र को दो केंद्रशासित प्रदेशों के रूप में विभक्त कर राज्य का दर्जा घटा दिया गया, तो सार्वजनिक विमर्श से इन्हें अलग करना संभव नहीं रह गया क्योंकि अब भारतीय शासन में कश्मीर की स्थिति का पता तमाम भारतीयों को हो रहा है।
यह समझने की बात है कि कश्मीर विशुद्ध रूप से एक राजनीतिक मसला है और सांप्रदायिकता की भट्ठी में स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले इसे हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य के पुराने विवाद की तरह प्रचारित कर रहे हैं। समकालीन भारत में इसका बड़ा सशक्त तरीका देखने को मिलता है जब कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है, उसे तर्कसंगत ठहराने के लिए यह कहा जाता है कि कश्मीरी पंडितों के साथ क्या हुआ। दक्षिणपंथी जनोत्तेजक नेता सार्वजनिक विमर्श में तथाकथित पीड़ित की बात करके सियासी फायदा उठाते हैं।
छह माह से भी अधिक समय गुजर गया है और कश्मीरियों का मुंह सिल दिया गया है, उन्हें मनमाने तरीके से गिरफ्तार किया जा रहा है, उन्हें एकजुट होने और विरोध जताने से रोका जा रहा है और उन्हें मानवीय त्रासदी से दो-चार होना पड़ रहा है। ऐसे में कभी इधर, कभी उधर पलटी मारने वाले ट्रंप ने अगर कश्मीर पर मध्यस्थता की एक और लापरवाह सी टिप्पणी कर भी दी तो इससे क्या कोई फर्क पड़ेगा? नहीं, बिल्कुल नहीं। कश्मीरियों पर तो बिल्कुल नहीं और इससे भारतीयों का कोई लेना-देना नहीं होगा। हां, प्रभावी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और हस्तियां अगर लोकतंत्र और मानवाधिकारों में विश्वास रखने वाले भारतीयों और कश्मीरी के साथ मिलकर लगातार काम करें तो फर्क जरूर पड़ेगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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