इस समय जब वसंत अलविदा ले रहा है और एक नया संवत्सर दहलीज पर खड़ा है, अंग्रेजी दां विश्व के दो देशों- अमेरिका और स्वीडन की संस्थाओं ने अपने वैज्ञानिक रूप से मान्य पैमानों पर जांचने के बाद दुनिया के लोकतांत्रिक देशों की फेहरिस्त में भारत को नीचे उतार दिया है। तिस पर दुनिया के कई जाने-माने अखबारों दि गार्जियन, न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट भी इधर भारतीय गणतंत्र में मीडिया, विपक्ष और सिविल सोसायटी की दशा पर चिंता जताते रहे हैं।
अब खबर है कि विदेश मंत्रालय हमारे लोकतंत्र की विदेशों में दिखाई दे रही छवि को सुधारने की बाबत भारी कदम उठा रहा है। एक आरटीआई की मार्फत मिली जानकारी से एक अंग्रेजी अखबार का कहना है कि विदेश मंत्री जी ने भारत सरकार की छवि सुधारने की बाबत अंग्रेजी का एक महत्वपूर्ण प्रेजेंटेशन लोकसभाध्यक्ष के साथ साझा किया है।
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मंत्रालय से मिली जानकारी तथा ई मेलों के अनुसार, इस अंग्रेजी मसौदे का ध्येय यह है कि लोकसभाध्यक्ष जी सभी भारत नियुक्त वैदेशिक राजनय के प्रतिनिधियों से इस बात को साझा करें कि सरकार की मान्यतानुसार अंग्रेजी जानने वाली दुनिया भारत के लोकतंत्र को नहीं समझ पाई है। हमारे नादान पश्चिमी आलोचक नहीं जानते कि भारत के संघीय गणतंत्र की जड़ें उनके पाश्चात्य तर्ज के संसदीय लोकतंत्र से कहीं पुरानी हैं। हमारी संघीय गणतंत्र प्रणाली का मूल वेस्टमिंस्टर नहीं, भारतीय भाषाओं में लिखे ग्रंथों- रामायण तथा महाभारत में निहित है।
खबर के अनुसार, भारत में सिविल समाज, अभिव्यक्ति की आजादी तथा अल्पसंख्यक समुदाय की बाबत लगातार लगाए प्रतिबंधों से जुड़े विश्व नेताओं तथा मीडिया के तीखे सवालों का जवाब देने की बजाय विदेश मंत्री जी ने कहा है कि भारत को अपने लोकतांत्रिक राजकाज पर बाहरी अनुमति नहीं चाहिए। और न ही (विश्व राजनय में) भारत उस खेल का भागीदार बनना चाहता है जो यह देश खेल रहे हैं। इत्यलं!
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राजनय की बिसात पर जिस असहिष्णुता से आलोचकों को जवाब दिए जा रहे हैं, घरेलू स्तर पर वही अर्थनीति के धरातल पर साल 2022-23 के बजट पर हुई बहस में भी झलकती रही। जब विपक्ष ने कोविड काल के बाद खस्ताहाल बाजार, बढ़ती बेरोजगारी के संदर्भ में नए बजट में महिला बाल कल्याण और मनरेगा जैसी मदों में कटौतियों और अमीरों को कॉरपोरेट कर में छूट देने पर बात उठाई, तो वित्तमंत्राणी जी के तेवर बचाव की बजाय आक्रामक हो गए। बजट भाषण की शुरुआत में उन्होंने कोविड के आपातकाल में महिला फ्रंटलाइन कामगारों के प्रति शत-शत नमनादि किया, पर विपक्ष द्वारा 2014-2021 के आर्थिक फैसलों की ईमानदार पड़ताल की बात छिड़ते ही विपक्षी कांग्रेस से 1947 के बाद के दशकों पर जवाब-तलब करने का पलटवार अपना लिया गया।
अब बजट के बाद चुनावी रैलियों में युवाओं और महिलाओं को हरचंद जताने की कोशिश तो हो रही है कि वे कितनी वंदनीय, पूजनीय और महत्वपूर्ण नागरिक हैं। लेकिन आम जनता की असल चिंताएं कब बमों को सायकिल पर ही किसलिए रखा गया? गुप्त खालिस्तान समर्थक कौन हैं? वंशवाद कितना खतरनाक है, इन सब से नहीं जुड़ी हैं। उनकी असली चिंताएं फिलवक्त अपने रोजगार की क्षतिपूर्ति, बंद पड़े शिक्षालयों के कारण बच्चों की पढ़ाई छूटने के डर, महंगाई और शहर-गांव, घर के भीतर-बाहर, हर कहीं लड़कियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को लेकर हैं।
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हम अमेरिका स्वीडन की मान्यता को छींके पर रख भी दें, तो भी यह सचाई ओझल नहीं होती कि भारत की अपेक्षित कुल आबादी में से आज हर जाति, वर्ग और संप्रदाय की करोड़ों महिलाएं शिक्षा, पोषण, निजी स्वास्थ्य और सुरक्षित संचरण के स्तर पर अपने घर भीतर भी मूलभूत अधिकारों में हर कहीं पुरुषों से पिछड़ी हुई हैं। सीधा मतलब यह कि महिला और बच्चियों के प्रति घर तथा कार्यक्षेत्र- दोनों जगह विषमता मिटाने में बहुप्रचारित कानूनी सुधार और आकर्षक सरकारी स्कीमें व सब्सीडियां भारतीय समाज के भीतर छुपी खामोश दमनकारिता और उनके हकों की उपेक्षा को ले कर रही कायरता को मिटाने में विफल हैं। 50 फीसदी आबादी होते हए भी हमारी संसद में महिला सदस्य आज भी कुल की 14.5% हैं।
ताजा विधान सभा चुनावों में भी उनको हर राज्य में हर दल द्वारा पुरुषों से कम टिकट दिए गए हैं। लिहाजा, तय है कि सबों में चाहे जो दल जीते, महिलाओं को बहुत अधिक सीटें विधान सभा में भी नहीं मिलेंगी। तब जल जीवन मिशन, सक्षम आंगनवाड़ी, नेशनल क्रेच योजना, पोषण 2.0 क्लब, मिशन शक्ति संबल, प्रधानमंत्री मातृवंदना योजना, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना आदि के लुभावने जुमलों को महिलाएं-बच्चियां क्या अचार लगा कर चाटें?
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अगर महज आकर्षक नाम वाली योजनाओं की घोषणा से महिला सशक्तीकरण हो सकता, तो यकीन मानें हमारी बहनें आज दुनिया के लिए मिसाल होतीं। क्या सबका साथ, सबका विकास का नारा देनेवाली सरकार ने महिला वित्तमंत्री नियुक्त कर यह मान लिया है कि शीर्ष का यह सशक्तीकरण उजाले की बूंदों की तरह टपकता हुआ सब महिलाओं का जीवन हरा-भरा कर देगा? इतना आशावाद तो अब अक्षय कुमार या कंगना राणावत की हिंदी फिल्मों में भी नहीं बचा है।
मजेदार यह कि आज विश्व स्वास्थ्य और महिला विकास पर संयुक्त राष्ट्र की इकाइयों द्वारा भारत के केरल, तमिलनाडु, बंगाल और महाराष्ट्र सरीखे गैर राजग शासित राज्यों के समाज में लड़कियों की स्वास्थ्य तथा शिक्षा दर राजग की इकाइयों द्वारा शासित राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश या गुजरात से बेहतर दिख रही है। जहां तक युवा पीढ़ी के सोच की बात है, वहां भी मसला शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने, गर्ल्स हॉस्टल के नियमों को सख्त बनाने का हो या हिजाब का, खुद महिलाओं तथा लड़कियों को शरुआती बातचीत में शामिल न करना आम है। जो पुरुष इन कमेटियों पर हावी रहते हैं, उनके बीच महिलाओं को भले प्रतिगामी सोच नजर आता हो, पर उससे निबटने के कारगर साधन या राज्य का सहारा उनको नहीं मिलता। मिलता सिर्फ तब है जब किसी फैसले को धुकाने या रुकवाने में पार्टियों का अपना चुनावी हित-स्वार्थ निहित हो।
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युवा पुरुषों को आम तौर से औरतों को लेकर अधिक लचीला और कोमल मनवाला माना जाता है। पर हमारे यहां जो उम्र वीर बन कर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ खड़े होने की मानी जाती है, उसमें सभी राज्यों के युवा वर्ग में खूब सारा पैसा जल्द कमा लेने की अदूरदर्शी कामना लगातार बढ़ती जा रही है। ऊपरखाने भारत को माता कहलवाने, बेटी पढ़ाओ और यत्र नार्यस्तु पूजयंते रमन्ते तत्र देवता के नारे लगाने वाले और संत वैलेंटाइन डे को मातृ-पितृ दिवस की तरह मनाने वाले वीर जत्थों की सामाजिक सोच आज कैसी है, यह कई छेड़छाड़ के दोषी युवाओं की गिरफ्तारी होने, कई महिला मीडिया सदस्यों पर नामहीन ट्रोल्स की वहशियाना टिप्पणियों और हिजाब मसले पर सोशल मीडिया में उभर रहे बयानात से साफ झलकता है।
आज जब विश्व पर्यावरण के छीजने से सूखा, बाढ़ और तूफान बढ़ते जा रहे हैं, भारतीय समाज में मर्द और औरत के बीच सच्ची सहभागिता नदारद है। और राजनीति में भी ढपोरशंखी वायदों की झड़ी लगाने वालों की सोच औरतों को मुफ्त राशन और सस्ते सिलेंडरों से खुश करने से आगे नहीं जा रही। तब विदेशी आलोचकों पर नजला झाड़ना व्यर्थ ही तो है!
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सरकारी इमदाद पाने वाले गोदी मीडिया या सरकार के प्रिय मुद्दों को एजेंडा बनाकर चलाए जा रहे स्वैच्छिक संगठनों की देश में कोई कमी नहीं। लेकिन विधानसभा चुनावों के भाषणों से साफ है कि निजी अहं, सांगठनिक स्पर्धा या राजनीति के विचारधारा से सहज कदमताल न बिठा पाने में कमी की वजह से राजनेता व्यापक जनाधार नहीं बना सके हैं, जो सरकार को जमीनी सच्चाइयों का फीड बैक देने, समाज को पुराने सोच से बाहर लाने और आम महिला के मुद्दों को चुनावी बहसों में केन्द्रीय बनाने में कारगर हों।
सरकारी राय में औसतन आलीशान इमारतें, कारों-दुपहिया वाहनों की बढ़ती तादाद, ब्रैंडेड माल से पटे उपभोक्ता बाजार, फास्ट फूड और आयातित खाद्य पदार्थों की बढ़ती बिक्री ही अमीरी का लक्षण भले कहा जा रहा हो, महामारी के दौरान अस्पतालों का निजीकरण होने से गरीबों के लिए सस्ती सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का कम होना कितनी बड़ी कीमत वसूल कर गया, क्या हम यह भूल जाएं?
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शहरी गरीब और ग्रामीण इलाकों के बच्चों और शहरी ग्रामीण संपन्न घरों के बच्चों के बीच शिक्षा में बनीं भीषण डिजिटल खाइयां भी सिर्फ मुफ्त लैपटॉप बांट कर या लड़कियों का हिजाब उतरवाकर या लड़कों को शाखा भेज कर कम नहीं हो सकतीं। स्कूली किताबों में ‘वीरों का कैसा हो वसंत?’ सरीखी वीर रस की कविताएं हम सब दशकों से पढ़ते रहे हैं। फिर भी समाज और सरकारी प्रचार में वीर (खासकर सीमा पर खड़े जांबाज) का नाम लेने पर आम तौर से खबरों या विज्ञापनों में आज भी एक सीना ताने वर्दीधारी पुरुष की छवि छपती है। यह बात अपने में ही बहुत कुछ कहती है।
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