भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी 2019-20 की परफॉर्मेंस रिपोर्ट में कहा था, 'सीएजी भारत की सर्वोच्च लेखा परीक्षा संस्था है और उससे लेखापरीक्षित संस्थाओं के मामलों में वित्तीय जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ावा देने की उम्मीद है।'
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा संस्थानों पर शिकंजा कसने के नतीजतन सरकार की आंतरिक निगरानी में गिरावट के रूप में सामने आ रहा है। सीएजी ने प्रभावी ढंग से काम करना बंद कर दिया है। केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों से संबंधित सीएजी रिपोर्टों की कुल संख्या 2015 में 55 से घटकर 2020 में 14 हो गई, जो 75 प्रतिशत की गिरावट है। गिरावट क्रमिक रूप से 55 से 42, 45, 23, 21 और 14 तक जा पहुंची है।
रक्षा ऑडिट की 2017 में 7 रिपोर्ट थीं जो 2020 में गिरकर शून्य हो गई। याद दिला दें कि यह वही संस्था थी जिसने 2 जी नीलामी, कोयला ब्लॉक नीलामी और राष्ट्रमंडल खेलों सहित अपनी कई मजबूत रिपोर्टों के माध्यम से मनमोहन सिंह सरकार की प्रतिष्ठा पर सवालिया निशान लगा दिए थे।
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तो सवाल है कि आखिर हाल के वर्षों या दिनों में इस मामले में हो क्या रहा है? इस संस्था में जब लोग स्वतंत्र रूप से काम करने का प्रयास करते हैं, तो उन्हें दंडित कर दिया जाता है। कुछ हफ्ते पहले संसद के मानसून सत्र में सीएजी की 12 रिपोर्टें पेश की गई थीं, जिसमें कुछ भ्रष्टाचार के संकेत थे। लेकिन इस भ्रष्टाचार का खुलासा करने वाले ऑडिट के लिए जिम्मेदार सीएजी अधिकारियों को कुछ दिन बाद ही उनके पद से हटा दिया गया और उनका तबादला कहीं और कर दिया गया।
जिन लोगों का तबादला किया गया उनमें से एक दत्तप्रसाद सूर्यकांत शिरसाट भी हैं, जो आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के परफॉर्मेंस ऑडिट के प्रभारी थे। उन्होंने सभी 28 राज्यों के 161 जिलों के 964 अस्पतालों का ऑडिट किया और पाया कि 2.25 लाख मामलों में, 'सर्जरी' की तारीख डिस्चार्ज की तारीख के बाद की दिखाई गई थी। महाराष्ट्र में 1.79 लाख से ज्यादा ऐसे मामले पाए गए, जिनमें इलाज का खर्च 300 करोड़ रुपये से ज्यादा था। इस मामले पर विस्तार से बताते हुए अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट 'द वायर' ने बताया कि जिन लोगों की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी, उनके लिए लाखों दावे किए जाते रहे। ऑडिट में डुप्लिकेट लाभार्थियों के 1.57 लाख मामले भी पाए गए।
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इसी तरह राजमार्ग परियोजनाओं का ऑडिट करने वाले अतूरवा सिन्हा को उनकी रिपोर्ट में द्वारका एक्सप्रेसवे परियोजना की लागत में वृद्धि पाए जाने के बाद स्थानांतरित कर दिया गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति द्वारा मंजूर किए गए 18 करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर की लागत के मुकाबले बढ़ी हुई लागत का एक हिस्सा बढ़ाकर 250 करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर कर दिया गया था।
विपक्ष ने इन मुद्दों को उठाने की कोशिश तो की, लेकिन सरकार इस मामले पर कोई एक्शन लेना तो दूर, यही मानने को तैयार नहीं है कि कुछ गलत हुआ है। जैसा कि हम जानते हैं, मीडिया को सरकार को किसी भी मामले में जिम्मेदार ठहराने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसके प्राथमिक निशाने पर तो विपक्ष और नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) ही रहती है। पाठकों को यह जानने में रुचि हो सकती है कि सीएजी को अंदर से कैसे खोखला कर दिया गया था।
इस समय गिरीश मुर्मू भारत के सीएजी हैं। वे गुजरात के अधिकारी हैं, और मोदी के इतने वफादार हैं कि, अतीत में, उनका अपने 'बॉस' के खिलाफ गवाही देने से वरिष्ठ अधिकारियों को डराते हुए टेप सामने आया था।
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गुजरात के पूर्व डीजीपी आर.बी. श्रीकुमार, जिन्होंने 9 अप्रैल 2002 से 17 सितंबर 2002 तक राज्य खुफिया ब्यूरो की कमान संभाली थी, उन्होंने गोधरा दंगों की जांच कर रहे नानावती आयोग को दिए एक हलफनामे में कहा था कि मुर्मू ने उन्हें पक्ष में गवाही देने के लिए 'रटी-रटाई बात बोलने को कहा और इसके लिए उन्हें डराया, मजबूर किया और दबाव डाला। उस समय मुर्मू मोदी के प्रधान सचिव थे।
श्रीकुमार ने बैठक में मौजूद एक अन्य अफसर का नाम लिया था और कहा था कि उनसे कहा गया था कि वह अपना बयान इस तरह से न दें, जिससे 'और अधिक नाम खुलें, जिससे उन्हें जिरह के लिए बुलाया जाएगा।' उन्होंन कहा था कि, “मुझे यह भी धमकी दी गई कि यदि मैंने सरकार के हितों के विपरीत कोई बयान दिया, तो मुझे शत्रुतापूर्ण गवाह घोषित कर दिया जाएगा और बाद में उचित कार्रवाई की जाएगी। मैंने उनसे कहा कि मैं वैधानिक आवश्यकताओं के अनुसार आयोग के सामने जाऊंगा और सच्चाई को नहीं दबाऊंगा, क्योंकि यह झूठी गवाही का कार्य होगा।“
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मुर्मू को 'सरकार और गृह विभाग के सर्वोच्च अधिकारियों द्वारा नानावती आयोग के समक्ष पेश होने वाले सरकारी अधिकारियों को ‘समझाने’ और ब्रीफिंग करने का काम सौंपा गया था।' और मुर्मू ऐसा तभी कर सकते थे जब उन्हें विशिष्ट समर्थन हासिल हो' और सरकार में उच्च अधिकारियों, यानी माननीय गृह मंत्री/माननीय मुख्यमंत्री से मंजूरी मिली हो।
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने मुर्मू को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया था और अब वे सीएजी हैं। सरकारी वेबसाइट pmindia.gov.in पर पारदर्शिता को लेकर एक सेक्शन है, जिसमें लिखा है, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दृढ़ विश्वास है कि किसी भी जन-समर्थक सरकार की आधारशिलाएं पारदर्शिता और जवाबदेही हैं।”
पारदर्शिता और जवाबदेही न केवल लोगों को सरकार के करीब लाती है बल्कि उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया का समान और अभिन्न अंग भी बनाती है।'
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लेकिन मोदी सरकार के असली कार्यों का इन शब्दों के साथ तालमेल बैठाना काफी मुश्किल काम है, क्योंकि ऐसे अहम मुद्दों पर जिनमें चीजों को छिपाया-दबाया गया हो उनमें सरकार की प्राथमिकता दिखती है। पीएम की वेबसाइट पर 'पारदर्शिता की तलाश' शीर्षक वाले इस पूरे खंड में केवल 184 शब्द हैं और इसे ऐसे लिखा गया है जैसे कि किसी अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति ने इसे तैयार किया हो। इसमें कहा गया है कि 'नियम और नीतियां एयरकंडीशंड कमरों या चैंबरों में बैठकर नहीं बल्कि लोगों के बीच बनाई गई थीं।' आगे कहा गया है कि 'लोगों को अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव देने के लिए मसौदा नीतियों को ऑनलाइन रखा गया है।' यानी पारदर्शिता का यही दिखावा है।
इसमें कहा गया है कि मोदी का 'पारदर्शिता के प्रति दृढ़ संकल्प और जिस तरह से वे इस प्रतिबद्धता को व्यवहार में लाए हैं वह भारत के लोगों के लिए खुली, पारदर्शी और जन-केंद्रित सरकार के युग का संकेत देता है।'
नहीं, ऐसा नहीं है। मोदी के कार्यकाल उतने ही अपारदर्शी रहे हैं, और कई मायनों में तो उनसे पहले की किसी भी सरकार की तुलना में उससे भी अधिक।
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