‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’! उर्दू भाषा की इस मिसाल का अर्थ कुछ यूं है कि न तो ईश्वर ही मिला और न ही इस दुनिया का आनंद प्राप्त हुआ। इन दिनों देश की स्थिति कुछ ऐसी ही है। क्योंकि इस लेख को लिखते समय मेरे सामने जो समाचारपत्र हैं, उनमें दो मोटी-मोटी सुर्खियां हैं। पहली सुर्खी के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में भारतीय अर्थव्यवस्था 23.9 प्रतिशत घट गई।
ऐसा भारत के सांख्यिकीय (स्टैस्टिकल) इतिहास में पहली बार हुआ है। नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उनके अनुसार, इमारतों का काम 50.3 प्रतिशत घटा है। कारखानों के कामकाज में 39.3 प्रतिशत की गिरावट आई है। खरीद-फरोख्त, होटल इंडस्ट्री- जैसे अन्य सेवा क्षेत्रों में 47.9 प्रतिशत की गिरावट है। केवल एक खेती-बाड़ी का काम ऐसा है, जिसमें 3.4 प्रतिशत की उन्नति है।
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ये तो मोटे-मोटे आंकड़े हैं जिन्हें अर्थशास्त्री ही भली-भांति समझ सकते हैं। परंतु हम और आप जैसा आम व्यक्ति सरकारी आंकड़ों के आधार पर मोटा-मोटी यह कह सकता है कि पिछले तीन माह में शहर आर्थिक तौर पर डूब गए। केवल गांव-देहात में खेती-बाड़ी के कुछ काम से जीवन चल रहा है। अब सवाल यह है कि यह हुआ क्यों! सीधा उत्तर यह है कि मार्च से अब तक कोरोना महामारी को रोकने के लिए सरकार ने लगभग जून तक जैसा कठोर लॉकडाउन लगाया कि उसने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी।
अब दूसरा प्रश्न यह है कि कोरोना महामारी का हाल क्या है? तो उसकी स्थिति, समाचारपत्रों की दूसरी सुर्खी के अनुसार, यह है कि केवल अगस्त के महीने में लगभग बीस लाख भारतीय इस बीमारी की चपेट में आए जो दुनिया भर में एक रिकॉर्ड है। बात अब समझ में आई- ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम!’
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अर्थात न तो महामारी का प्रकोप कम हुआ और न ही अर्थव्यवस्था संभल सकी, यानी दीन से भी गए और दुनिया से भी गए। लब्बोलुआब यह है कि एक आम भारतीय के लिए अब केवल एक रास्ता बचा है। वह केवल मौत का रास्ता है, क्योंकि एक आदमी या तो कोरोना की चपेट से मर सकता है या फिर अर्थव्यवस्था के जंजाल में फंसकर भूख से मर सकता है। अगर बच गया तो भगवान की कृपा से!
आखिर, इस भारतवर्ष को यह हो क्या रहा है! छह वर्ष पहले मोदी जी के सत्ता में पधारने से पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था संसार की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। भारत दुनिया का एक विशालतम मार्केट था, जिस पर संसार की निगाह थी। अब भारत का 12 करोड़ युवा सरकारी आंकड़ों के हिसाब से पिछले तीन माह में बेरोजगार हो चुका है। वह परेशानी से घबराकर नाउम्मीद होता जा रहा है और रोज आत्महत्या की खबरें आ रही हैं।
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क्या यही मोदी जी का ‘न्यू इंडिया’ है जिसमें देशवासी या तो महामारी का शिकार हो अथवा बेरोजगारी और भूख का शिकार होकर आत्महत्या कर ले। खरी बात तो यह है कि मोदी के ‘न्यू इंडिया’ का यही अंजाम होना था, क्योंकि इसकी नींव घृणा पर आधारित है। इसमें अंग्रेजों की बांटो और राज करो की रणनीति के अनुसार, जनता को हर रोज हिंदू-मुस्लिम घृणा की अफीम तो पिलाई जा रही है, परंतु उनको रोजगार देना तो दूर, उलटा उनसे रोजगार छीना जा रहा है। एक ओर देश में भुखमरी फैल रही है, दूसरी ओर देश में लूट मची है।
अभी पिछले सप्ताह जीएसटी काउंसिल की बैठक हुई। इस बैठक में यह राज खुला कि केंद्र सरकार को राज्य सरकारों का जीएसटी का पैसा देना था, लेकिन केंद्र ने वह पैसा दिया ही नहीं। कई राज्य सरकारें ऐसी हैं जो अपने कर्मचारियों को वेतन देने तक में असमर्थ हैं। स्थिति यह है कि केंद्र सरकार पीढ़ियों की दौलत, यानी सरकारी कंपनियों को बेच-बेच कर खर्चा चला रही है। सरकार जो चाहे बेचे, जहां का माल चाहे लूटे, बैंकों में जमा जनता की गाढ़ी कमाई को पूंजीपतियों को लोन देकर डुबो दे। और जनता! उसके लिए कुछ भी नहीं। तब ही तो अर्थव्यवस्था का यह हाल है कि तीन माह में लगभग 24 प्रतिशत की घटोतरी।
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परंतु दूसरी ओर एक अजीब स्थिति है जो हर किसी की समझ से बाहर है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के खिलाफ घोर आक्रोश होना चाहिए था। परंतु भारत की सड़कों पर शांति है। कहीं कोई धरना-प्रदर्शन ही नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि टीवी मीडिया के माध्यम से लोगों को ऐसी अफीम पिलाई जा रही है कि आम आदमी अपनी समस्याएं भूलकर टीवी पर चलने वाले एक घंटे के ‘सोप ओपेरा’ के जंजाल में फंसकर सब कुछ भूला हआ है।
साहब, इन दिनों सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को एक ‘सोप ओपेरा’ बना दिया गया है। ‘रिपब्लिक टीवी’ और ‘इंडिया टुडे टीवी’ पर हर रोज एक ‘एपिसोड’ आता है जिसके जंजाल में रोज हर व्यक्ति फंसा रहता है। फिल्म जगत आम आदमी के लिए सदा से रहस्मय दुनिया रही है। बॉलीवुड की चमक-दमक, दौलत एवं शोहरत से हर व्यक्ति प्रभावित रहता है। हर किसी को यह जल्दी समझ में नहीं आता कि वह जगत जहां दौलत और हुस्न- दो सबसे बड़ी मानव कमजोरियों की बारिश होती है, आखिर वह जगत चलता कैसे है।
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हर किसी को यह जानने की जिज्ञासा होती है कि बॉलीवुड में क्या हो रहा है? क्योंकि एक आम व्यक्ति को न ही वह दौलत, न ही वह शोहरत, न ही वह हुस्न नसीब होता है जो बॉलीवुड में हर समय दिखाई पड़ता है। ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक है कि साधारण व्यक्ति के मन में इस फिल्म जगत के प्रति केवल जिज्ञासा ही नहीं अपित ईर्ष्या का भी दबा-दबा-सा भाव होता ही है।
भारतीय टीवी ने सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को बॉलीवुड एपिसोड बना दिया है। संपूर्ण बॉलीवुड को अब सेक्स, ड्रग्स, षडयंत्र और हर गंदी प्रवृत्ति का भंडार बना दिया गया है। इस समय इस जगत का हीरो सुशांत सिंह राजपूत है और रिया चक्रवर्ती उसकी विलेन है। रोज टीवी पर इस कथा को एपिसोड-दर-एपिसोड ऐसे पेश किया जा रहा है कि सारे भारत की रुचि उसी में लगी है। जनता को यह होश ही नहीं है कि वह कोरोना महामारी और तबाह होती अर्थव्यवस्था के विकट जंजाल में फंसी है।
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अर्नब गोस्वामी-जैसा माहिर एंकर जनता के मन में भरे आक्रोश को उसकी चरम सीमा पर ले जाता है। फिर, अपनी डांट-फटकार से रोज किसी विलेन का वध कर जनता के आक्रोश की तृप्ति जिसको अंग्रेजी में ‘कैर्थासिस’ कहते हैं, वह करवा देता है। और इस प्रकार टीवी के माध्यम से जनता का मन रोज हल्का कर दिया जाता है।
अर्थात आप टीवी पर जो पागलपन और चिल्लाना-फटकारना देखते हैं, वह कोई पागलपन नहीं, अपितु एक सोची-समझी रणनीति है, जिसका उद्दे्श्य रोज एक झूठे शत्रु का वध कर जनता में वास्तविक समस्याओं के प्रति होने वाले आक्रोश को उबाल तक पहुंचने से रोकना होता है। एक वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका फोन पर मुझसे पूछती हैं कि यह क्या पागलपन है? आखिर, हम कैसी दुनिया में जी रहे हैं।
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निःसंदेह यह एक समझदार व्यक्ति के लिए पागलपन ही होना चाहिए। परंतु नरेंद्र मोदी जिस ‘न्यू इंडिया’ का निर्माण कर रहे हैं, उसमें घृणा ही घृणा है, रोज किसी शत्रु की हत्या है। वह ‘मॉब लिंचिंग’ भी हो सकती है अथवा ‘टीवी लिंचिंग’ भी हो सकती है, ताकि एक साधारण भारतीय अपनी आर्थिक और सामाजिक दुर्दशा को भूलकर अपने झूठे-मूठे शत्रु के वध का आनंद लेता रहे और सरकार मजे से देश का खजाना लूटती रहे। निःसंदेह यह पागलपन है परंतु यह सफल है जिसके शिकार हम और आप सब हैं। परंतु जब तक मोदी हैं, तब तक यही पागलपन रहेगा। और सफल भी रहेगा।
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