एक बड़े और सम्मानित अंग्रेजी अखबार ने दिनांक 29 जुलाई को अयोध्या के जिला प्रशासन का बड़ा अजीब आदेश छापा है। इसमें प्रस्तावित भूमिपूजन की बाबत मीडिया को कुल मिलाकर नौ हिदायतें दी गई हैं। इनमें से यह दो भी हैं कि तस्वीरें भले ही घटनास्थल से प्रसारित हों लेकिन इस कार्यक्रम पर चर्चा किसी खुली जगह में नहीं, सिर्फ स्टूडियो में ही कराई जाएगी। और ‘इस कार्यक्रम में किसी विवादित पक्षकार को नहीं बुलाया जाएगा।’ इस निर्देश की पुष्टि करते हुए अखबार से बातचीत में प्रदेश के उप निदेशक सूचना प्रसार विभाग ने कहा कि जहां सूबे की सरकार ने कोविड के मद्देनजर मीडिया के लिए अयोध्या में सब तरह के इंतजामात किए हैं, वहीं मीडिया से इन निर्देशों का और तय प्रोटोकॉल का पूरा पालन करने की अपेक्षा की जाती है। इसी आदेश के तहत सभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समूहों के प्रमुखों को भी सरकार को कवरेज के लिए लिखित अनुरोध के साथ आश्वासन देना होगा कि वे अगले सप्ताह राम मंदिर के भूमिपूजन से जुड़ी चर्चाओं में विवादित पक्ष के किसी भी पैरोकार को नहीं बुलाएंगे। और नही उनके चैनल इस बीच किसी धर्म, समुदाय या संप्रदाय पर कोई टिप्पणी करेंगे! उनको कहना होगा कि ‘अगर किसी प्रकार से कोई गड़बड़ी होगी तो इसकी जिम्मेदारी मेरी व्यक्तिगत रूप से होगी।’
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आज की पत्रकारिता भारत में लगभग उन्नीसवीं सदी के अंत में तैयार हुई जब ब्रिटिश राज अपनी ताकत के चरम पर था। और अंग्रेजों के बनाए सेंसरशिप कानून के तहत पत्रकारों की पकड़-धकड़ और छापाखानों पर तालाबंदी भी नियमित रूप से होती रहती थी। पर हमारे यहां तब के पत्रकारों में लेखकीय धर्म और जन सरोकारों को लेकर एक दृढ़ता और लेखकीय स्वाभिमान हमेशा मौजूद रहा यद्यपि ‘जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालो’ के युग में जन पत्रकारिता का सीधा मतलब था कि बरतानवी कानूनों के बावजूद जनता तक उसकी भाषा में सीधी सच्ची खबरें लगातार पहुंचें। सरकार से कोई विज्ञापन स्वीकार करने वाले हिंदी के बड़े से बड़े संपादक भी तब लगभग फटेहाली में जीने को मजबूर थे। पर जेलों-कचहरियों में निरंतर आवाजाही के बीच भी उनकी पत्रकारिता में हमको स्वाभिमान से समझौते नहीं दिखते। उदाहरण के लिए, गांधी युग में महामना मदन मोहनमालवीय का योगदान हम सब मानते हैं। जब वह बनारस में एक गरीब छात्र के बतौर कानूनकी पढ़ाई करते थे, उनको कालाकांकर के राजा साहेब ने हिंदुस्थान नाम से बतौर सवैतनिक संपादक हिंदी का समाचार पत्र ‘हिंदुस्थान’ निकालने के लिए न्योता भेजा। कम उम्र के मालवीय जी ने बेधड़क कहा कि उनकी भी चंद शर्तें हैं: एक, महाराजा खुद अधिकतर विलायत में रहते हैं, वहां उनका जीवन जो हो, पर स्वदेश आकर वह जब भी अपने संपादक को बुलाएं तो बेवक्त नहीं। दूसरे, वह ध्यान रखें कि उनसे विमर्श करते हुए वह मदिरापान न किए हों। दोनों शर्तें मानली गईं। पर सालेक बाद एक दिन आधी रात को नशे में धुत्त महाराज ने जब उनको बुलवा भेजा, मालवीय जी त्याग पत्र देकर चले आए। उनका यह विकट लेखकीय स्वाभिमान उनको मध्यकालीन लेखकों से मिला था जो अपने वक्त में तमाम अभूतपूर्व सामाजिक तथा राजनीतिक हलचलों से मुकाबिल होते रहे।
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हमारे पत्रकारिता के विद्यार्थियों को मध्यकालीन भारत के साहित्यकारों की जिंदगी को जरूर पढ़ाया जाना चाहिए। उनको पढ़ना अभिव्यक्ति की आजादी, लेखकीय स्वाभिमान और सत्ता से घिरे होने पर भी लेखक का सही धर्म समझने में बहुत मदद करेगा। यह लेखिका आजकल उनकी मार्फत अपने वक्त की गहराइयां समझने की और अपने पत्रकारीय पेशे का सही धर्म आंकने की कोशिश करती रही है। इससे कई रत्न हाथ लगे। मुलाहिजा फर्माएं। पंद्रहवीं सदी के कवि कुंभन दास को जब किसी दुनियादार ने सलाह दी कि उस समय सत्ता की पीठ (फतेहपुर सीकरी) जाकर सत्ताधारी से एक बार मिल तो लें, तो उनका जवाब था: संतन कहा सीकरी सों काम? आवत जात पनहियां टूटीं, बिसरिगयो हरिनाम।। हमको सीकरी क्या जाना? हरिनाम भूलने का खतरा है, आते-जाते जूतियां टूटेंगी, सो अलग।
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लगभग उनके समकालीन जंगल में रह कर ‘पद्मावत’ जैसा महाकाव्य रचने वाले सूफी कवि जायसी को पढ़िए। उन्होंने भी शेरशाह सूरी के बुलावे पर दिल्ली जाना अस्वीकार किया और जब खुद उनसे बादशाह मिलने आए तो उनको कोई खास भाव नहीं दिया। बस, अपनी बदशक्ल सूरत पर बादशाह के चेहरे पर उपहास भाव देख कर चुपचाप पूछा: ‘मोकों हंसहि कि कोंहरहिं?’ तू मुझ पर हंसता है या मुझे गढ़ने वाले कुम्हार पर?’ बादशाह पर घड़ों पानी पड़ गया। फिर आते हैं काशी के पंडितों से पंगा लेकर जनभाषा अवधी का अमर ‘रामचरित मानस’ लिखने वाले दरबारी मुसाहिबी से फिरंट काशी के घाट या मस्जिद तक में कहीं भी सोये रहने वाले संसार से उदासीन तुलसीदास! उनसे जब पूछा गया कि वह काहे नहीं बादशाह से मिलकर कुछ मनसबदारी आदिका इंतजाम कर लेते? तो उनका खरा जवाब था: ‘हम तौ चाकर राम के, पटा लिखो दरबार, तुलसी अब का होयेंगे नर के मनसबदार?’ हम तो अपने राम के दरबारी का पटा लिखाए हैं भैया किसी मनुष्य के तलबगार क्यों बनें?
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उत्तर प्रदेश सरकार के ताजा फरमान से साफ जाहिर है कि तब से अब तक लेखकीय गंगा-जमुना काफी उतर चुकी हैं। सरकार की ठसक भरी हिदायत में लेकिन हिंदी पट्टीका एक विलक्षण गुण बरकरार है। लोकतांत्रिक उदारता और धर्म निरपेक्ष संविधान के जिन आश्वासनों को हमारा शासक वर्ग हिकारत से परे करता है, मीडिया को लेकर उनकी बाबत उसकी तेज और कठोर प्रतिक्रिया आने में विलंब नहीं होता। चूंकि मीडिया के अधिकतर मालिकान ने इन दिनों जबरदस्त का ठेंगा सर पर धरना स्वीकार कर लिया है, सीकर की पैरोकारी से नियुक्त और पोषित कई मनसबदार पत्रकारों की बन आई है। हर कहीं वे छाए हुए हैं और मशीनी बुद्धि चालित उनके ट्रोल प्रशंसक यह झूठा आभास पैदा कराते रहते हैं कि दरबारी कृपा के बदले में उनके माध्यम से मीडिया में दिन-रात भरे जा रहे विचार ही आज की सचाई का इकलौता आईना हैं। कोविड, चीन, पाक और नेपाल के नए हमलावर तेवर और बिगड़ती आर्थिक दशा-जैसे कई प्रकरणों को जिनको समझदार लोगों के बीच एक दीर्घकालीन और संवेदनशील बहस का मुद्दा बनना चाहिए, बहस का विषय बनने से पहले ही ‘ऊपरी दबाव’ रुकवा देते हैं। या बहस हुई भी तो हर कहीं अधिकतर सिर्फ शब्दों का घटाटोप या मन में अन्यान्य वजहों से पल रही चिड़चिड़ाहट का सार्वजनिक विरेचन। जभी ये बहसें मसले की जड़ तक नहीं जा पातीं।
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संभव है, इस तरह की नाटकीय अतिरेकमय रपटों के पीछे पाठक, दर्शक या सरकारी विज्ञापनों को बढ़वाने का कोई दबाव भी काम करता हो। लेकिन एक के बाद एक लेखक–पुलिस अफसर–उपकुलपति आदि के अंतर्मन में निहित भदेसपना टीवी पर आ कर हमको विस्मित करता है।
एक सभ्यदेश में ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’ ही चरम सत्य है। जो नागरिक रोग या पुलिसिया डर के बावजूद आज भी अपना मानवीय धर्मनिभाते हुए भूखे तालाबंद लोगों के लिए लंगर और बंद गली के घरों तक जाकर दवाएं और राहत बांट रहे हैं, वे किसी दूसरे ग्रह से नहीं उतरे हैं। वे भी हमारे बीच के ही लोग हैं। कहते हैं, ऐसे ही एक दार्शनिक डायजिनिस ने धूप सेंकते हुए बादशाह सिकंदर के, ‘बोलो क्या मांगते हो?’ के उत्तर में कहा था, ‘जनाब बस थोड़ा परे हट कर मेरी धूप मुझ तक आने दीजिए।’
मीडिया को अपने लेखकीय धर्म और विश्वसनीयता को बचाना है तो उसे भी अब सीधे अपने हिस्से की धूप मांगनी होगी।
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