विचार

खरी-खरी: आज के दौर में पत्रकारिता एक धंधा और पत्रकार ठेकेदार

वह बेचारा पत्रकार जो एक फटी जींस और टूटी-सी कलम लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस से दूसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहुंचने के लिए किसी मित्र के स्कूटर का सहारा लेता था, वही पत्रकार अब लंबी-लंबी गाड़ियों में शाम को किसी फाइव स्टार होटल में थकान मिटाने के लिए बैठा चुस्की लेता है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

कभी पत्रकार समाज का एक सम्मानित व्यक्ति होता था। हमें याद है कि कोई पंद्रह वर्ष पहले एक गोष्ठी में शामिल होने के लिए हमको विदेश से आमंत्रण आया था और हमने वहां जाकर उस गोष्ठी में भाग लिया था। हमको बहत आदर-सम्मान मिला। परंतु पिछले दो दशकों में पत्रकारिता जगत में एक क्रांति आ गई है। सचमुच पत्रकारिता की दुनिया ही बदल गई है। वह बेचारा पत्रकार जो एक फटी जींस और टूटी-सी कलम लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस से दूसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहुंचने के लिए किसी मित्र के स्कूटर का सहारा लेता था, वही पत्रकार अब लंबी-लंबी गाड़ियों में शाम को किसी फाइव स्टार होटल में थकान मिटाने के लिए बैठा चुस्की लेता है। भला वह अब ऐशे-इशरत क्यों न करे। लाखों रुपये माह की तनख्वाह, मंत्रियों और उद्योगपतियों की सोहबत, शाम को टीवी पर देश से सवाल पूछना, जिसको चाहे डांटना और फटकारना, अरे साहब! आज का पत्रकार तो भगवान हो गया है। बड़े-बड़े चैनलों और समाचारपत्रों के संपादकों के पांव जमीन पर नहीं पड़ते। और पांव जमीन पर पड़ें तो पड़ें कैसे! सुनते हैं कि एक मशहूर संपादक जी का सालाना वेतन एक करोड़ रुपये था। गाड़ी-घोड़ा, हवाई जहाज, फाइव स्टार होटल, विदेश यात्रा- ये सब तो मामूली बात है। बीस-पच्चीस लाख रुपये का माहभर का वेतन बटोरना प्रसिद्ध चैलनों के ‘महान एंकरों’ के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। अरे भाई, शाम को चुस्की के बीच यही एंकर और संपादक अपने प्रोग्राम के बीच चुटकी बजाकर गर्व से कहते हैं, हम सरकार गिराते और बनाते हैं।

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और यह एक कटु सत्य है। पत्रकारिता अब आदर्श नहीं, सेवा भाव नहीं बल्कि धंधा है जैसे कोई दूसरा धंधा होता है। हर धंधे का लक्ष्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है। उसी तरह से पत्रकारिता का लक्ष्य भी अब बड़ा से बड़ा वेतन जुटाना, महंगी से महंगी कार में दर-दर घूमना और हर शाम सरकार को गिराना अथवा बनाना होता है। अब जाहिर है कि इस होड़ में आदर्श, सत्य और समाज सेवा की तो कोई गजुर संभव ही नहीं है। इसके लिए आप अपनी कलम ही नहीं , अपनी आत्मा भी बेचिए। और यह खेल हमारा आधुनिक पत्रकार हर शाम बहत बेशर्मी से करता है। सुनते हैं कि बहुत से पत्रकार ‘साइड’ में उद्योगपतियों के लिए ‘डील मेकिंग’ का काम भी करते हैं। अरे, शाम को प्रेस क्लब चले जाइए तो छोटे-मोटे बेचारे पत्रकार बड़े संपादकों का नाम लेकर ऐसे बहुत से किस्से सुनाते हैं। पता नहीं, कितना सच होता है और कितना मिर्च-मसाला। परंतु कुछ कटु सत्य तो सबको दिखाई पड़ते हैं। मसलन, एक बड़े टीवी एंकर एक बड़े उद्योगपति को ब्लैकमेल करने के इल्जाम में तिहाड़ हो आए। परंतु अब सुना है कि उनका प्रधानमंत्री से मिलना-जलु ना है। अरे, वह अब एक अत्यंत सम्मानित पत्रकार हैं और रोज शाम को टीवी के माध्यम से देश को उपदेश देते हैं। हमें याद है कि 1980 के दशक में एक पत्रकार महोदय लैम्ब्रेटा स्कटूर पर चलते थे, ढाबे पर चाय पीते थे, अब वही भागवान एक प्रसिद्ध चैनल के मालिक हैं। अरे, रोज शाम को देश से चिल्ला-चिल्लाकर सवाल पूछने वाले महान एंकर एक रिपोर्टर से एक चैनल के साझीदार बन गए।

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जी हां, जितनी भ्रष्ट राजनीति की दुनिया हो चुकी है, उतना ही भ्रष्ट अब पत्रकारिता का जगत है। तभी तो अब पत्रकार ‘वॉचडाग’ नहीं, ‘लैपडॉग’ कहलाता है। आदर्श और सत्य सब ताक पर, पत्रकार तो सच या झूठ सरकार बनाने एवं गिराने का ठेका लेता है। दूर क्यों जाते हैं, सन 2012 से 2014 के बीच टू जी मामले में भ्रष्टाचार का हव्वा खड़ाकर पत्रकारों ने कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को गिराने का खुलेआम ठेका ही तो लिया था। अंततः सारा मामला झूठ निकला। वह मंत्री जो टू जी मामले में पत्रकारों के शोर के कारण जेल गए, उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया। हर टीवी चैनल उस समय लोकपाल की मांग के लिए गला फाड़ रहा था। सन 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आ गई तो फिर किसी पत्रकार को लोकपाल की याद नहीं रही। बरसों बाद उसकी नियुक्ति हुई। अब कोई यह भी नहीं पूछता कि वह कौन है और क्या कर रहा है। स्पष्ट है कि 2012 से 2014 के बीच अधिकतर टीवी और प्रिंट पत्रकार 2014 के आम चुनाव में यूपीए सरकार को हरवाने का काम ठेके पर कर रहे थे।

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परंतु जब से मोदी जी आए हैं, तब से पत्रकारिता जगत की ठेकेदारी का स्वरूप बदल गया है। इन दिनों पत्रकार सरकार चलाने का ठेका लेते हैं। मोदी जी की राजनीति का आधार एक ‘शत्रु’ होता है। वह हिंदू बहुसंख्यक वोट बैंक को अपने पक्ष में इकट्ठा करके चुनाव जीतने की रणनीति का इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए वह हिंदू समाज में एक काल्पनिक भय उत्पन्न करते हैं। जाहिर है कि भय उत्पन्न करने के लिए एक शत्रु तो होना ही चाहिए। मोदी जी की रणनीति में वह शत्रु मुसलमा न होता है। परंतु सवाल यह है कि आम जनता के बीच उस शत्रु का भय कैसे उत्पन्न किया जाए। तो यह काम पत्रकारों को ठेके पर दिया जाता है। इस ठेके में उनका काम क्या होता है! उनका काम समाज में अल्पसंख्यक मुसलमानों को हिंदू शत्रु की छवि देकर उसके प्रति घृणा उत्पन्न करना होता है। अरे, अभी कोरोना वायरस मामले से तबलीगी जमात को जोड़कर मीडिया ने यह कार्य इतनी सफलता से किया है कि अब इस समय हिंदू समाज में मुसलमान अछूत हो गया है। मुसलमान सब्जीवाला और रेहड़ी-पटरीवाला अब हिंदू बस्तियों में जाकर अपना सामान नहीं बेच सकता। धन्य हो भारतीय मीडिया का जिसने तबलीगी जमात की एक गलती को ऐसा रंग दिया कि आम हिंदू के विचारों में एक मुसलामान अब कोरोना जिहादी बन गया है और उसके प्रति हिंदू मन में घृणा उत्पन्न हो गई है।

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चुनाव के समय मोदी जी अपने डायलॉगों से इस रावण-जैसे मुस्लिम जिहादी हिंदू शत्रु का वध करेंगे और चुनाव लूट ले जाएंगे। देखा आपने, आज के आधुनिक धंधेबाज पत्रकार ने मोदी जी के लिए पूरे मुस्लिम समाज को कैसे जिहादी बना दिया और उसको हिंदू शत्रु की छवि दे दी। अर्णब गोस्वामी पर अभी महाराष्ट्र में दो साधुओं की हत्या के मामले की रिपोर्टिंग पर हिंदू जज्बात भड़काने के मामले में जो दर्जनों एफआईआर दर्ज हुईं, वे ऐसे ही नहीं थीं। एक सम्मानित महिला एवं कांग्रेस अध्यक्ष का नाम लेकर अर्णब गोस्वामी उन्हें साधु की हत्या के मामले से जोड़ दे और देश उसके आगे नत-मस्तक रहे, यह संभव नहीं। महाराष्ट्र सरकार ने इस संबंध में जो कदम उठाया है, एक पत्रकार के रूप में मैं उसका पूरी तरह से समर्थन करता हूं। मैं यह भी कतई नहीं मानता कि अर्णब गोस्वामी के खिलाफ महाराष्ट्र की पहल पत्रकारिता की आजादी पर कोई प्रहार है। यह पत्रकारिता की आड़ में जो धंधेबाजी हो रही है, उस प्रथा पर प्रहार है। अब समय आ गया है कि पत्रकारिता को ठेकेदारी पर रोक लगे वरना घृणा की राजनीति से देश झलस जाएगा।

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