प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन मई तक लॉकडाउन बढ़ाने की घोषणा करते हुए लोगों की सुरक्षा के लिए सात सूत्र निर्धारित किए। उन्होंने इसे ‘सप्तपदी’ कहा और हैरान लोगों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि आखिर, सरकार को अपने नागरिकों को सुरक्षित रखने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए।
दरअसल, कोविड-19 की महामारी के खिलाफ लड़ाई को मजबूत करने के लिए जिन दो महत्वपूर्ण कदमों की जरूरत थी, उन पर प्रधानमंत्री चुप्पी साध गए। ये कदम थे – स्वास्थ्य कर्मियों को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट्स यानी पीपीई) मुहैया कराना और बड़े पैमाने पर लोगों की टेस्टिंग करना। इसके विपरीत प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन जल्दी करने का श्रेय लेते हुए कहा कि इसी वजह से हम इस महामारी को फैलने से रोक सके।
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भारत में लॉकडाउन 24 मार्च को घोषित किया गया, हालांकि देश में कोरोना वायरस का सबसे पहला मामला 30 जनवरी को दर्ज किया गया। लॉकडाउन से पहले के सात हफ्तों तक कोई यथोचित कदम नहीं उठाए गए। प्रधानमंत्री के 22 मार्च के जनता कर्फ्यू की घोषणा की पूर्व संध्या तक संसद सत्र के साथ ही सारी गतिविधियां सामान्य तरीके से चल रही थीं, मध्य प्रदेश में एक निर्वाचित सरकार को गिराया जा रहा था और बीजेपी की सरकार का सत्तारोहण किया जा रहा था। हालांकि बड़े जमघटों पर पाबंदियां थीं, फिर भी इनका उल्लंघन करने वाली इस तरह की किसी भी गतिविधि को नहीं रोका गया।
जहां तक लॉकडाउन का सवाल है, तो कई देशों ने कहीं ज्यादा तत्परता से कदम उठाए– चीन ने वुहान को 23 जनवरी को लॉकडाउन कर दिया था; पूरे इटली को 10 मार्च को लॉकडाउन कर दिया गया; अमेरिका ने 13 मार्च को राष्ट्रीय इमरजेंसी की घोषणा कर दी थी; स्पेन ने 14 मार्च, फ्रांस ने 17 मार्च और ब्रिटेन ने 23 मार्च को लॉकडाउन घोषित कर दिया था। इसलिए प्रधानमंत्री का यह दावा पूरी तरह से गलत था कि भारत ने लॉकडाउन की घोषणा पहले ही कर दी थी।
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प्रधानमंत्री ने एक और दावा किया था कि भारत ने विदेशों से आने वाले सभी यात्रियों की जांच-पड़ताल बहुत पहले ही शुरू कर दी थी। तो फिर, यह तो बड़ी अजीब बात है कि संक्रमित इतालवी पर्यटक बहुत सारे अन्य पर्यटकों के साथ फरवरी में भारत आए थे जो कि बाद में जांच के दौरान कोरोना पॉजिटिव पाए गए। प्रधानमंत्री ने यह भी दावा किया कि पर्याप्त टेस्टिंग की जा रही है। जहां से महामारी फैल रही है, उन कलस्टरों की पहचान करने के लिए टेस्टिंग अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसे कलस्टरों की पहचान करने के बाद ही उन्हें अलग-थलग किया जा सकता है और कोविड-19 के संक्रमण को सामुदायिक स्तर पर फैलने से रोका जा सकता है।
अपर्याप्त टेस्टिंग से हमें इसकी सूचना नहीं मिल पाती है। यह बहुत ही खतरनाक है- दोनों स्तरों पर। एक, इससे महामारी को फैलने से नहीं रोका जा सकता और दूसरा, संक्रमण वाले गंभीर इलाकों की पहचान नहीं हो पाती है। क्या भारत में पर्याप्त टेस्टिंग हो रही है, जैसा कि प्रधानमंत्री दावा करते हैं? गौरतलब है कि, दक्षिण कोरिया की तुलना में भारत में अप्रैल के पहले हफ्ते तक 241 गुना कम टेस्ट हुए थे।
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गरीबों को भोजन की उपलब्धता चिंता का विषय है। शहरों में भोजन के लिए लंबी कतारें तो कहीं-कहीं दिख रही हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों से अन्न की कमी की प्रामाणिक खबरें लगातार हर रोज आ रही हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भूख से हमारे देश में कोई मौत न हो। 1.7 लाख करोड़ का घोषित वित्तीय पैकेज हमारी जीडीपी का 0.8 प्रतिशत से भी कम है। मलेशिया ने अपनी जीडीपी का 16 प्रतिशत वित्तीय प्रोत्साहन पैकेज घोषित किया, अमेरिका ने 9 प्रतिशत से अधिक, जर्मनी ने 8 प्रतिशत से अधिक और इटली ने 5 प्रतिशत से अधिक की घोषणा की है। इन सभी के मुकाबले भारत बहुत ही कंजूस रहा है, मानव जीवन बचाने की अपनी कोशिशों में भारत अपराधी होने के कगार पर खड़ा है।
इस महामारी के खिलाफ लड़ाई में राज्य अग्रिम मोर्चे पर हैं। उनके प्रयासों को मजबूती देने के बजाय, केंद्र सरकार उन्हें उनकी वैधानिक वित्तीय देय राशि भी नहीं दे रही है। जाहिर है, इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। राज्य सरकारों के हाथों में जितना पैसा होगा, महामारी के खिलाफ उनकी लड़ाई उतनी ही प्रभावशाली होगी। प्रधानमंत्री के नाम से बनाए गए कोष में जो हजारों करोड़ रुपये का फंड एकत्र किया जा रहा है, उसे राज्यों को हस्तांतरित कर देना चाहिए। राज्यों को केंद्र द्वारा थोपी गई मौजूदा सीमा से भी अधिक उधार लेने की इजाजत होनी चाहिए ताकि वे इस स्वास्थ्य इमरजेंसी से निपट सकें।
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प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को अपील की थी कि किसी भी कामगार की छंटनी नहीं होनी चाहिए। उन्होंने अपनी यह अपील नियोक्ताओं को संबोधित करते हुए 14 अप्रैल को फिर से दोहराई। लेकिन मात्र अपील काम नहीं करती और न ही इसने किया। पहले ही हजारों नियमित कामगारों की छंटनी की जा चुकी है। सभी दिहाड़ी मजदूरों, अनियमित और अस्थाई कामगारों की नौकरियां भी पहले से ही जा चुकी हैं। इस लॉकडाउन के दौरान वेतन में बहुत बड़े पैमाने पर कटौती जबरदस्ती लागू की गई है। दुनिया भर में कई देशों ने मजदूरों/कर्मचारियों को लगातार वेतन मिले और उनकी नौकरियां बची रहें इसके लिए नियोक्ताओं (मालिकानों) के कुल वेतन खर्च का 80 फीसदी भार भी उठाया है। भारत सरकार ने अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया है।
यह फसल की कटाई का मौसम है। सरकार के लिए जरूरी है कि वह घोषित सी2 +50 प्रतिशत के समर्थन मूल्य पर अनिवार्य रूप से खरीद को सुनिश्चित करे। मनरेगा के तहत कोई भी काम नहीं मिलने की खबरें काफी चिंताजनक हैं। काम हो या न हो लेकिन वे सभी मजदूर जो मनरेगा के तहत पंजीकृत हैं, उन्हें वेतन दिया जाना चाहिए।
बिना भोजन या समुचित शरण के देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के लिए केंद्र सरकार को यथोचित विशेष प्रबंध करने चाहिए। केरल सरकार लोगों की मदद से वहां रह रहे प्रवासियों की अच्छी देखभाल कर रही है। देश के बाकी सभी राज्यों में ये प्रवासी मजदूर बहुत ही पीड़ाजनक परिस्थिति में हैं। उचित है कि भारत ने विदेशों में फंसे भारतीयों को वहां से निकाला है। ठीक उसी तरह हम भारत में विभिन्न स्थानों पर फंसे अपने भाइयों को विशेष ट्रेनों और बसों द्वारा उनको उनके घर पहुंचा सकते हैं। बहुत बड़े स्तर पर सामुदायिक संक्रमण के खतरे को टालने के लिए भी यह कदम बहुत आवश्यक है।
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यह रेखांकित करने की जरूरत है कि केवल एकजुट भारत और एकजुट जनता ही इस संघर्ष में जीत हासिल कर सकती है। लोगों को सामाजिक या सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकृत करने के सारे प्रयास हमारे संघर्ष को भी कमजोर और लाचार कर देंगे। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है किप्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में धर्म के आधार पर समुदायों को निशाना बनाने, सांप्रदायिक रूप से उन्हें अलग-थलग करने और सामाजिक बहिष्कार जैसी प्रवृत्तियों की निंदा करना तो दूर रहा उनका जिक्र तक नहीं किया।
अब समय आ गया है कि सरकार स्वयं ही एक चार्टर अपनाए। अगर प्रधानमंत्री चाहें तो इस चार्टर को वह ‘नवपदी’ कह सकते हैं।
(आईपीए द्वारा सिंडिकेटिड)
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