इस समय दुनिया में दक्षिणपंथी सरकारों की बहुलता है और इस विचारधारा की सरकारों ने पूरी पृथ्वी के पर्यावरण को तहस-नहस करना शुरू कर दिया है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप खुले आम पर्यावरण विनाश की बातें करते हैं। वह पर्यावरण संरक्षण के सभी कानून बदल रहे हैं और जलवायु परिवर्तन को काला जादू मानते हैं। ऑस्ट्रेलिया की मोरिसन सरकार भी ऐसा ही कर रही है। वहां के जंगल जलते जा रहे हैं और ग्रेट बैरियर रीफ खतरे में है। ऑस्ट्रेलिया में कोयला खनन को बढ़ावा देने के लिए सारे नियम-कानून की अवहेलना की जा रही है। फ्रांस में भी पर्यावरण आन्दोलनों को कुचला जा रहा है।
भारत में साल 2001 से 2018 के बीच लगभग 16 लाख हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल नष्ट कर दिए गए, यह क्षेत्र गोवा के क्षेत्रफल से चार गुणा अधिक है। नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम और मणिपुर जैसे पूर्वोत्तर राज्यों के आधे से अधिक जंगल नष्ट किये जा चुके हैं। भारत सरकार की जलवायु परिवर्तन को रोकने की तमाम प्रतिबद्धता के बीच यहां के जंगलों के नष्ट होने के कारण वायुमंडल में लगभग 17.2 करोड़ टन कार्बन का उत्सर्जन हुआ है। वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार के वन क्षेत्र बढ़ने के दावों के विपरीत यह क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है। साल 2000 में देश के 12 प्रतिशत भू-भाग पर जंगल थे, जबकि 2010 तक यह क्षेत्र 8.9 प्रतिशत भू-भाग पर सिमट कर रह गया।
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ब्राजील में राष्ट्रपति जेर बोल्स्मारो के सत्ता में आने के बाद से ही पूरी दुनिया के पर्यावरणविद कयास लगा रहे थे कि अब वहां के पर्यावरण पर खतरा बढ़ जाएगा। इन पर्यावरणविदों की आशंका सही साबित हो रही है, पृथ्वी का फेफड़ा कहलाने वाले अमेजन के वर्षा वन तेजी से कट रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं। इस वर्ष जुलाई के महीने तक अमेजन के वर्षा वनों के कटने की दर इस पूरे दशक में सर्वाधिक रही है। इन वर्षावनों को सरकारी संरक्षण में भू-माफिया, कृषि आधारित उद्योगपति, खनन की कम्पनियां और लकड़ी के ठेकेदार नष्ट कर रहे हैं। इनके विरुद्ध आवाज उठाने वालों को मौत के घाट उतार दिया जाता है।
इस साल जुलाई के अंत तक ब्राजील के अमेजन क्षेत्र में 10000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र के जंगल या तो काटे जा चुके हैं या फिर नष्ट किये जा चुके हैं। ध्यान रहे कि यह क्षेत्र उस क्षेत्र से अलग है जो इस वर्ष के भयानक दावानल (जंगलों की आग) से नष्ट हो गए हैं। ब्राजील सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार इस साल अगस्त के महीने में अमेजन के जंगलों में आग के कुल 80000 मामले दर्ज किये गए, यह संख्या पिछले वर्ष की तुलना में 80 प्रतिशत अधिक है। इस साल नष्ट किये गए अमेजन के वर्षा वनों का यह क्षेत्र पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 30 प्रतिशत अधिक है। यहां औसतन हरेक मिनट फुटबाल के 2 मैदान के बराबर जंगल कट रहे हैं। ब्राजील के सोशियो इकोनॉमिक इंस्टीट्यूट के निदेशक एद्रियाना रामोस के अनुसार सरकार पर्यावरण से संबंधित अपराध करने वालों का खुले आम साथ दे रही है।
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जंगलों के साथ पूरे विश्व में ऐसा ही किया जा रहा है, पर अमेजन के वर्षा वनों की अपनी अलग पहचान है। दुनिया के सबसे सघन वनों में शुमार अमेजन के वर्षा वन दक्षिणी अमेरिका के लगभग हरेक देश में फैले हैं, इनके विशाल क्षेत्र और सघनता को देखते हुए ही इन्हें धरती का फेफड़ा कहा जाता है और पूरी दुनिया में इन्हें बचाने की मुहिम चल रही है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 20वीं सदी के दौरान पूरी दुनिया में लगभग एक करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के वनों को नष्ट किया गया। इसके पहले साल 2018 में फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में प्रति सेकंड एक फूटबाल मैदान के बराबर जंगल काटा जा रहा है। पिछले 25 वर्षों के दौरान 13 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के जंगल काटे जा चुके हैं।
जंगलों के कटने से केवल वन क्षेत्र ही कम नहीं होता बल्कि वनस्पतियों, पशुओं, पक्षियों और कीटों की अनेक प्रजातियों का विलुप्तिकरण भी होता है। अनेक वनवासी जनजातियों का अस्तित्व भी संकट में पद जाता है। इसके अतिरिक्त घने जंगल साफ और मृदु पानी के सबसे बड़े स्त्रोत भी हैं। फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन द्वारा साल 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में मीठे पानी के कुल स्त्रोतों में से 75 प्रतिशत से अधिक वनों पर आधारित हैं और दुनिया के 50 प्रतिशत से अधिक आबादी के पानी की तमाम जरूरतें इन्ही मीठे जल स्त्रोतों से पूरी होती हैं।
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जंगलों के कटने के कारण भारी मात्रा में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है और यह गैस जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार है। दूसरी तरफ जंगलों को बचाने और इनका क्षेत्र बढाने के कारण इस गैस का अवशोषण होता है, जिससे ये वायुमंडल में नहीं मिल पातीं।
इन्टर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार तापमान वृद्धि के साथ-साथ जीवन को संभालने की पृथ्वी की क्षमता खत्म होती जा रही है। तापमान वृद्धि से सूखा, मिट्टी के हटने (मृदा अपरदन) और जंगलों में आग के कारण कहीं कृषि उत्पादों का उत्पादन कम हो रहा है तो कहीं भूमि पर जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है। इन सबसे भूख बढ़ेगी, लोग विस्थापित होंगे, युद्ध की संभावनाएं बढेंगी और जंगलों को नुकसान पहुंचेगा। भूमि का विनाश एक चक्र की तरह असर करता है- जितना विनाश होता है उतना ही कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ता है और वायुमंडल को पहले से अधिक गर्म करता जाता है।
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यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के प्रोफेसर पियर्स फोरस्टर के अनुसार आईपीसीसी की रिपोर्ट से स्पष्ट है की पृथ्वी पर वनों का क्षेत्र बढ़ाना पड़ेगा और चारागाहों का क्षेत्र कम करना पड़ेगा। आईपीसीसी की रिपोर्ट के एक लेखक प्रोफेसर जिम स्केया के अनुसार पृथ्वी पहले से ही संकट में थी, पर जलवायु परिवर्तन ने इस संकट को कई गुना अधिक बढ़ा दिया है। पृथ्वी के तीन-चौथाई से अधिक क्षेत्र में मानव की गहन गतिविधियां चल रही हैं। अवैज्ञानिक भूमि-उपयोग, जंगलों का नष्ट होना, अनगिनत पालतू मवेशियों का बोझ और रासायनिक उर्वरकों के अनियंत्रित उपयोग के कारण वायुमंडल में मिलने वाले कुल कार्बन डाइऑक्साइड में एक-चौथाई का योगदान है।
पृथ्वी के 72 प्रतिशत क्षेत्र में सघन मानव-जनित गतिविधियां चल रहीं हैं और केवल 28 प्रतिशत भू-भाग ऐसा है जिसे प्राकृतिक कहा जा सकता है। इसमें से 37 प्रतिशत क्षेत्र में घास का मैदान या चारागाह है, 22 प्रतिशत पर जंगल हैं, 12 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है और केवल एक प्रतिशत भूमि का उपयोग बस्तियों के तौर पर किया जाता है। पर, पृथ्वी के केवल एक प्रतिशत क्षेत्र में बसने वाला मनुष्य पूरी पृथ्वी, महासागरों और वायुमंडल को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है।
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