कहा जाता है कि गंगा में डुबकी लगाने वालों के पाप धुल जाते हैं, शायद यही सोचकर कुछ पापी अनेक कैमरों के सामने गंगा में लोटा सहित डुबकी लगाते हैं। वर्ष 2014 में चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री मोदी में कहा था, मैं आया नहीं हूं, मुझे गंगा मां ने बुलाया है। इसके बाद गंगा सफाई कार्ययोजना अचानक से नमामि गंगे के स्वरुप में सामने आती है, पिछली सरकारों को कोसा जाता है, गंगा सफाई का बजट बढ़ाया जाता है और अचानक से गंगा घाटों की सज्जा बढ़ जाती है, गंगा आरती का पैमाना बढ़ जाता है- पर गंगा का प्रदूषण कम नहीं होता। नमामि गंगे ठीक वैसा ही है, जैसे कोई पुराना घटिया प्रोडक्ट एक चमकीले और नए कलेवर में प्रस्तुत किया जाए।
इसके बाद से गंगा के सफाई के वादों का दौर शुरू होता है– पहले उमा भारती थीं, फिर नितिन गडकरी आए– वादा करते रहे, सफाई का दावा करते रहे, गंगा सफाई के नए वर्ष बताते रहे, गंगा में क्रुज तैराते रहे, बंदरगाह बनवाते रहे। सबके वादे टूटते रहे और गंगा सफाई की समय सीमा पुरानी दवाओं की तरह एक्सपायर होती रही। इसके बाद बीएचयू, कुछ विश्विद्यालयों और कुछ आईआईटी के शोधार्थियों और अध्यापकों का एक ऐसा समूह तैयार किया गया, जो समय-समय पर बिना किसी अध्ययन और आंकड़ों के ही 'गंगा साफ़ हो गयी' का नारा लगाते हैं, अखबारों में वक्तव्य देते हैं।
गंगा के बारे में केंद्र सरकार का जल शक्ति मंत्रालय खूब भ्रम फैलाता है। पिछले साल दुनिया ने गंगा में बहती लाशों को देखा, हालांकि केंद्र और राज्य सरकार लगातार इसे झूठ बताते रहे और आज तक इनकी संख्या का कोई आंकड़ा प्रस्तुत नहीं कर सके। पर, सरकार के ही कुछ मंत्रालय और विभाग ऐसे हैं, जो गंगा में बहती लाशों का जिक्र करते हैं और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर सरकार से जवाब भी मांगा था। दूसरी तरफ नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा के अध्यक्ष और जलशक्ति मंत्रालय के अनुसार नदियों में लाशें बहने से गंगा जरा भी प्रदूषित नहीं हुई।
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यह एक हास्यास्पद तथ्य जरूर हैं, पर हमारी सरकारें इसी तरह काम करती हैं, विज्ञान का माखौल उड़ाती हैं और खुले आम भ्रम फैलाती हैं। लाशें बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा में तैर रही थीं, इसलिए गंगा प्रदूषित नहीं हुई, वर्ना अगर किसी और दल की सरकार इन राज्यों में होती तो जाहिर है गंगा मर चुकी होती और गंगा की पवित्रता खत्म ह चुकी होती। गंगा को गंगा जल से साफ़ किया जा रहा होता। हमारे देश में आज के दौर में वैज्ञानिक भी सरकारों के मतानुसार ही अध्ययन के परिणाम देते हैं।
विज्ञान की तौहीन करने में सबसे आगे पर्यावरण मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हैं। गंगा में बहती लाशों पर इन दोनों संस्थानों से कोई वक्तव्य नहीं आए, जबकि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नदियों से सम्बंधित जितनी भी पुरानी रिपोर्ट हैं, सबमें नदियों के प्रदूषण के लिए एक बड़ा कारण लाशों का नदियों में बहना बताया गया है।
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कोविड 19 की दूसरी लहर के बीच जब गंगा में लाशें बह रही थीं, और इसके किनारों पर लाशें बेतरतीब तरीके से रेत में दबाई गयी थीं, उस समय नदी किनारे की जनता ने गंगा में कोविड के वायरस के फैलने की आशंका जताई थी, अनेक विशेषज्ञों ने भी ऐसा ही कहा था। इसके बाद फिर से जलशक्ति मंत्रालय और नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा ने मिलकर देश में वैज्ञानिक अनुसंधान की धज्जियां उड़ाईं। नदी में वायरस के परीक्षण के लिए सबसे पहले सरकार ने प्रतिष्ठित संस्थान नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ वायरोलोजी से कहा, पर इस संस्थान ने ऐसे अध्ययन में भागीदारी से साफ़ इनकार कर दिया। कोई भी वैज्ञानिक संस्थान किसी अध्ययन को करने से तभी इनकार करता है, जब उसे मालूम हो कि सरकार अध्ययन के नतीजों को पहले से ही तैयार करके बैठी है, और उस पर सिर्फ मुहर लगानी है।
इसके बाद सरकार को सीएसआएआर (वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसन्धान परिषद्) की प्रयोगशाला इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टोक्सिकोलोजीकल रिसर्च का ध्यान आया। यहां यह जानना जरूरी है कि आरएसएस पिछले अनेक वर्षों से सीएसआईआर के भगवाकरण की मुहीम चला रहा है, बीजेपी के सत्ता में आते ही यह मुहीम पहले से तेज हो गयी और इसके परिणाम से सामने आ रहे हैं। सीएसआईआर अब बीजेपी सरकार का पालतू तोता है। खबरों के मुताबिक़ इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टोक्सिकोलोजीकल रिसर्च के वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया और अपनी रिपोर्ट को जलशक्ति मंत्रालय में प्रस्तुत किया। इस रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया, बस जलशक्ति मंत्री ने मीडिया और संसद में वक्तव्य दिया कि लाशों के नदी में तैरने से कोई असर नहीं हुआ और नदी में वायरस नहीं मिले। दूसरी तरफ सीएसआएआर की ही दूसरी प्रयोगशाला, सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने एक स्वतंत्र अध्ययन कर बताया था कि कोविड के वायरस पानी में आसानी से फैलते हैं और पानी में इसके विस्तार का परीक्षण कर आसपास की आबादी में वायरस के विस्तार को बताया जा सकता है।
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याद कीजिये, हरिद्वार में कुम्भ के समय हमारे अनपढ़ सांसद और मंत्रियों के साथ अनेक बीजेपी नेता बयानबाजी कर रहे थे कि गंगा में कोई वायरस नहीं फैलता। जाहिर है, इसके बाद इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टोक्सिकोलोजीकल रिसर्च की रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की जायेगी। हमारे देश के वैज्ञानिक समुदाय का आलम यह है कि सरकार और मीडिया लगातार अवैज्ञानिक तथ्यों को जनता के सामने रखते हैं, पर किसी भी वैज्ञानिक या वैज्ञानिक संस्थान की तरफ से इसका खंडन नहीं किया जाता।
पिछले वर्ष गैर-सरकारी संस्था, टॉक्सिकलिंक्स ने अध्ययन कर बताया था कि दुनिया में बड़ी नदियों से जितना माइक्रोप्लास्टिक बहकर नदी में जाता है, उसमें सबसे अधिक योगदान गंगा नदी का है। माइक्रोप्लास्टिक प्लास्टिक के 5 माइक्रोन से छोटे टुकडे हैं, जो प्लास्टिक के टूटने से बनते हैं और मानव और जलीय जीवन के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं। टॉक्सिकलिंक्स ने इसके लिए विशेष तौर पर हरिद्वार, कानपुर और वाराणसी में गंगा पर अध्ययन किया था। इस अध्ययन के अनुसार वाराणसी में गंगा नदी में माइक्रोप्लास्टिक की सांद्रता सर्वाधिक है और वाराणसी में भी अस्सी घाट पर यह सांद्रता अन्य सभी घाटों से अधिक है। टॉक्सिकलिंक्स के अनुसार गंगा नदी की कुल लम्बाई, 2525 किलोमीटर के दायरे में रोजाना 315 टन माइक्रोप्लास्टिक बहते हैं, जिनका वजन 79 हाथियों के बराबर है।
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पिछले वर्ष नेचर कम्युनिकेशन नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार विश्व में 20 नदियां ऐसी हैं जिनके माध्यम से महासागरों में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक जाता है| इसमें पहले स्थान पर चीन की यांग्तज़े नदी है, जिससे प्रति वर्ष 333000 टन प्लास्टिक महासागरों तक पहुंचता है। दूसरे स्थान पर गंगा नदी है जिससे 115000 टन प्लास्टिक प्रति वर्ष जाता है। तीसरे स्थान पर चीन की क्सी नदी, चौथे पर चीन की हुंग्पू नदी और पांचवे स्थान पर नाइजीरिया और कैमरून में बहने वाली क्रॉस नदी है।
मार्च 2019 में बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के वैज्ञानिकों ने वाराणसी में गंगा के पानी के नमूनों की जांच कर बताया कि हरेक नमूने में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया मिले। यह अंदेशा पिछले अनेक वर्षों से जताया जा रहा था, पर कम ही परीक्षण किये गए। एक तरफ तो गंगा में हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया पाए गए, यमुना, कावेरी और अनेक दूसरी भारतीय नदियों की भी यही स्थिति है, तो दूसरी तरफ गंगा से जुड़ी सरकारी संस्थाएं लगातार इस तथ्य को नकार रहीं हैं और समस्या को केवल नजरअंदाज ही नहीं कर रही हैं बल्कि इसे बढ़ा भी रहीं हैं। गंगा के पानी के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें बड़ी संख्या में लोग नहाते हैं और आचमन भी करते हैं। आचमन में गंगा के पानी को सीधे मुंह में डाल लेते हैं, इस प्रक्रिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया सीधे शरीर में प्रवेश कर जाता है और अपना असर दिखाने लगता है।
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विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में जल प्रदूषण के कारण सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत से अधिक भाग बर्बाद होता है और देश में 80 प्रतिशत से अधिक रोग और एक-तिहाई मौत का कारण जल प्रदूषण और पानी के प्रबंधन में लापरवाही है। वाटरऐड नामक गैर-सरकारी संगठन के अनुसार दुनिया के 122 देशों के लिए जब जल प्रदूषण से सम्बंधित वाटर क्वालिटी इंडेक्स तैयार किया गया, तब कुल 122 देशों में भारत का स्थान 120वां था। इसके बाद भी गंगा को साफ करने के बजाय उच्च अधिकारी और सत्ता के शीर्ष पर काबिज लोग जनता को गुमराह करने में व्यस्त हैं।
नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा के पूर्व निदेशक राजीव रंजन मिश्रा ने लम्बे समय तक इस पद को संभाला और हाल में ही इसी विषय पर उनके सह-लेखन में एक पुस्ताक भी प्रकाशित की गयी है। इसमें उन्होंने कोविड की दूसरी लहर का जिक्र करते हुए कहा है कि इस घटना के बाद हम गंगा सफाई के काम में 5 वर्ष पीछे पहुँच गए, पर उन्होंने इसके कारणों का खुलासा नहीं किया है। दूसरी तरफ अपने पद पर रहते हुए उन्होंने कहा था कि लाशों के बहने का गंगा के पानी पर कोई असर नहीं हुआ। एक साक्षात्कार में उन्होंने गंगा सफाई के मामले में पिछली सरकारों को कोसते हुए कहा था कि पिछली सरकारें इस काम के लिए वर्ष 1985 से 2014 तक केवल 4000 करोड़ रुपये ही खर्च कर पाई थीं, जबकि वर्ष 2014 के बाद से इस काम के लिए 11000 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं।
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यहां तक पढ़ने पर महसूस होता है कि वर्तमान सरकार सही में गंगा सफाई पर अधिक ध्यान दे रही है, पर आप गलत साबित होने वाले हैं| इसी साक्षात्कार में उन्होंने आगे बताया है कि गंगा अब बड़े हिस्से में साफ हो चुकी है, वर्ष 2021 तक कुल 97 जगहों पर पानी के गुणवत्ता का आकलन किया गया और इसमें से 68 जगहों पर गंगा साफ थी। उनके अनुसार वर्ष 2014 तक 53 स्थानों पर पानी की गुणवत्ता का आकलन किया जाता था, जिसमें 32 जगहों का पानी साफ़ थी। अब आप जरा सारे आंकड़ों को एक साथ देखे तब इस सरकार की असलियत स्पष्ट होगी – वर्ष 2014 तक 4000 करोड़ रुपये खर्च कर 60 प्रतिशत गंगा का पानी साफ़ कर लिया गया था, जबकि इसके बाद सात वर्षों में 11000 करोड़ रुपये खर्च कर महज 10 प्रतिशत अतिरिक्त हिस्सा साफ किया जा सका, क्योंकि आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2021 तक 70 प्रतिशत गंगा साफ हो पाई जिसमें से 2014 के पहले से साफ़ 60 प्रतिशत हिस्सा शामिल है।
इस सरकार के लिए गंगा भी एक ऐसा ही मुद्दा है जैसा गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई है- संसद में कोई आंकड़े नहीं होते और भाषणों में समय, परिस्थिति और श्रोता के हिसाब से आंकड़े बदल जाते हैं। गंगा भी राजनीति में उपेक्षित हो चली है क्योंकि इससे समाज को बांटने का खेल नहीं खेला जा सकता- अब विश्वनाथ मंदिर बड़ा मुदा है, यह मुद्दा जितनी जोर से सत्ता उठाएगी, भक्त उतनी जोर से मंदिर-मस्जिद का मुद्दा उठाएंगे। गंगा के बारे में इतना तो तय है कि हरेक पापी के पाप गंगा में नहीं धुलते।
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