इस वर्ष दीपावली के अगले दिन गुरुग्राम के वायु गुणवत्ता इंडेक्स को लेकर हरियाणा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के बीच थोड़ी तनातनी हो गयी थी। हरियाणा का कहना था कि गुरुग्राम में इतना प्रदूषण नहीं था, जितना केंद्रीय बोर्ड के इंडेक्स में दिखाया जा रहा है। यह पहली बार नहीं है जब इस तरह की स्थिति आयी हो, केंद्रीय बोर्ड जिस तरह से काम करता है, उसमें यह सामान्य स्थिति है। यह एक ऐसा संस्थान है जिसका काम आंकड़ों की बाजीगरी से सरकारों को खुश रखना है। प्रदूषण का निवारण तो इसके नाम (पहले इसका नाम जल प्रदूषण के निवारण और नियंत्रण का केंद्रीय बोर्ड था) से ही निकल गया है, इसलिए इसका तो प्रश्न ही नहीं उठता है। जहां तक नियंत्रण का सवाल है, तो देश के हरेक हिस्से में दिन-प्रतिदिन बढ़ता हरेक प्रकार का प्रदूषण ही इसके काम को बता देता है। अब इसका काम केवल प्रदूषण के आंकड़े जुटाना और फिर इसमें हेरा-फेरी कर के सरकार के मुताबिक उन्हें प्रस्तुत करना रह गया है।
इन सबके बीच प्रदूषण से संबंधित नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट और फिर पर्यावरण स्वीकृति का दायरा लगातार बढ़ रहा है। जाहिर है, पर्यावरण कंसल्टेंट भी अब देश के कोने-कोने में मिलने लगे हैं और साथ ही प्रदूषण को मापने वाली प्रयोगशालाएं भी हरेक जगह स्थापित हो गयी हैं। इन प्रयोगशालाओं से भारी मात्रा में प्रदूषण फैलता है, इसमें वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और खतरनाक अपशिस्ट सम्मिलित हैं। ऐसी बड़ी प्रयोगशालाएं स्वयं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कार्यालयों के साथ-साथ हरेक राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में भी हैं।
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इनके अतिरिक्त निजी प्रयोगशालाएं और संस्थानों की प्रयोगशालाएं भी हैं। पर, दुखद तथ्य यह है कि प्रदूषण का स्तर मापने वाली इन प्रयोगशालाओं से उत्पन्न प्रदूषण पर अंकुश लगाने वाला कोई नियम-कानून नहीं है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जून 2008 में “गाइडलाइन्स फॉर रिकग्निशन ऑफ एनवायर्नमेंटल लैबोरेट्रीज अंडर द एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट-1986” (LATS/9/2008-2009) को प्रकाशित किया था और अब यह इसके वेबसाइट पर उपलब्ध है। इसके पृष्ठ 12 पर एनवायर्नमेंटल लैबोरेट्रीज साउंडनेस है, जिसमें लिखा है कि प्रयोगशालाएं ऐसी ना हों जिनसे प्रदूषण फैलता हो या पर्यावरण नष्ट होता हो। इन प्रयोगशालाओं को पर्यावरण और ऊर्जा का विशेष ध्यान रखने के लिए आवश्यक है कि इनसे किसी प्रकार का प्रदूषण ना फैले, दुर्घटनाओं की संभावना को न्यूनतम किया जाए और ऊर्जा की खपत को कम किया जाए।
इसके लिए आगे अनेक उपाय भी बताये गए हैं, जिनमें गंदे पानी को साफ करने के लिए एफ्फलुएंट ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना और सौर ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग सम्मिलित है। पूरे 120 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में फिर इन सबकी चर्चा कहीं नहीं है। जाहिर है, प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए और फिर जब केंद्रीय बोर्ड इन्हें स्वीकृति प्रदान करता है तब इन सारे तथ्यों पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता।
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केंद्रीय बोर्ड के दिल्ली स्थित मुख्यालय और फिर जोनल कार्यालयों में बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएं हैं, और इनमें बहुत काम होता है। इन व्यस्त प्रयोगशालाओं से भारी मात्रा में गंदा और जहरीला पानी, विषैली गैसें और खतरनाक अपशिष्ट उत्पन्न होता है। पर, इस प्रदूषण को दूर करने का कोई भी उपाय किसी प्रयोगशाला में नहीं है। गंदा और जहरीला पानी सीवरेज तंत्र में मिलता है, विषैली गैसें वायुमंडल में मिलती हैं और खतरनाक अपशिष्ट सामान्य कचरे के साथ मिला दिया जाता है। कुल मिला कर स्थिति यह है कि प्रदूषण को मापने वाली इन प्रयोगशालाओं द्वारा फैलते प्रदूषण पर अंकुश लगाने वाला कोई नहीं है। यह विषय कभी किसी मीडिया के लिए भी बड़ा मुद्दा नहीं रहा। जिन संथाओं से स्वयं प्रदूषण फैलता हो, जहर फैलता हो, उन संस्थाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे प्रदूषण को नियंत्रित कर पाएंगे?
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दिल्ली स्थित मुख्यालय से जब उनकी प्रयोगशालाओं से उत्पन्न गंदे और जहरीले पानी के बारे में सवाल पूछा गया तब उनका जवाब (F.No. 4-1/Bldg/House Keeping/2019, 2.4.2019) था, अभी एफ्फलुएंट ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की योजना बनाई जा रही है। पत्र के अनुसार मुख्यालय भवन बनाने के समय प्रयोशालाओं के गंदे पानी के लिए एक न्युट्रलाइजेशन टैंक बनाया गया था। इस उत्तर के बाद यह प्रश्न किया गया कि यदि न्युट्रलाइजेशन टैंक है और उपयोग में आता है तब उसके किसी भी टेस्ट रिपोर्ट को भेजिए, पर इसका जवाब आज तक नहीं मिला है।
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दरअसल न्युट्रलाइजेशन टैंक कोई एफ्फलुएंट ट्रीटमेंट प्लांट नहीं होता बल्कि यह प्री-ट्रीटमेंट का हिस्सा होता है और इसका काम केवल बहुत अधिक अम्लीयता या क्षारीयता को ईटीपी तक पहुंचाने से रोकना होता है। केंद्रीय बोर्ड परिसर में या तो न्युट्रलाइजेशन टैंक होगा ही नहीं या फिर वह काम नहीं करता होगा। यह भवन 1988 से काम कर रहा है, यदि इसमें न्युट्रलाइजेशन टैंक स्थापित भी किया गया होगा तब भी अब तक सभी प्रयोगशालाओं की क्षमता कई गुना बढ़ चुकी है, नई प्रयोगशालाएं स्थापित की जा चुकी हैं, इसमें संभव ही नहीं है कि उसी क्षमता का न्युट्रलाइजेशन टैंक काम कर सके। दूसरी तरफ यदि वाकई में न्युट्रलाइजेशन टैंक काम कर रहा है तब तो केंद्रीय बोर्ड को उसके टेस्ट रिजल्ट और फिर उसके जहरीले स्लज का प्रबंधन जरूर बताना चाहिए।
दिल्ली विश्विद्यालय के वनस्पति शास्त्र विग्भाग से सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ पृथ्वीपाल सिंह अब पर्यावरण संरक्षण के मसलों पर काम कर रहे हैं। उनके अनुसार “चिराग तले हमेशा अंधेरा होता है, इसलिए उन्हें कोई आश्चर्य नहीं कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर चल रही प्रयोगशालाएं स्वयं प्रदूषण फैला रहीं हैं। कायदे से हरेक ऐसी प्रयोगशाला में कम से कम ईटीपी स्थापित किया जाना चाहिए और इन्हें भी पर्यावरणीय मानकों का अनुपालन करना चाहिए।
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पर समस्या यह है कि मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करने का काम प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का है जो स्वयं प्रदूषण फैला रहे हैं। इसी संदर्भ में डॉ डी सी गुप्ता, जो उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में वरिष्ठ वैज्ञानिक रह चुके हैं और लंबे समय तक वहां की प्रयोगशाला के इंचार्ज भी रह चुके हैं, के अनुसार, “ऐसी प्रयोगशालाओं से भारी मात्र में प्रदूषणकारी और जहरीले पदार्थ उत्पन्न होते हैं और इन्हें बिना उपचारित किये पर्यावरण में शामिल करना प्रदूषण नियंत्रण के साथ खिलवाड़ से कम नहीं है। ऐसी हरेक प्रयोगशाला को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से एनओसी लेने की जरूरत है पर इसपर ध्यान नहीं दिया जाता क्योंकि स्वयं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ही इस दायरे में आ जाता है।”
एक ऐसे देश में जहां केंद्र या राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड केवल दिखावे के लिए हैं, प्रदूषण नियंत्रण तो दूर इसकी कोई कागजी योजना भी नहीं है, फिर भी इन संस्थानों से प्रदूषण को नियंत्रित करने की उम्मीद भी बेमानी है। यही सारे न्यायालय पर्यावरण को नष्ट करने का हवाला देकर उद्योगों और दूसरी परियोजनाओं पर करोड़ों रुपये का फाइन लगाते हैं, जिसका पत्र केंद्रीय बोर्ड की तरफ से भेजा जाता है, पर इसे अपना या दूसरी प्रयोगशालाओं का ही प्रदूषण कभी नहीं दिखता।
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