हमें मिलकर काम करना चाहिए। लेकिन, क्या किया जा सकता है? हमें धीरे-धीरे अहिंसात्मक आम आंदोलन निर्माण का प्रयास करना चाहिए। कोई एक ब्लॉक पर काम करता है, तो कोई एक जिले में। बहुत ज्यादा काम करते हैं, तो भी सब मिलकर तकरीबन 150 जिलों में काम करते होंगे। लेकिन भारत में 672 जिले हैं। मौलिक बदलाव असल में देशव्यापी होना चाहिए। यही वजह है कि हमारे प्रयासों का प्रभाव नहीं दिखता। ऐसे में बहुत जरूरी है कि इस दिशा में काम कर रही संस्थाओं को फिर से सक्रिय किया जाए।
लेकिन हमारे पास इतने संसाधन हैं क्या कि संस्थाओं को फिर से सक्रिय किया जा सके? जब ग्लोबलाइजेशन देश में तेजी से बढ़ रहा था, तब मैंने गौर किया कि ग्लोबलाइजेशन में तो हिंसा के लिए रोजगार का जबरदस्त स्कोप है। पहले हिंसा को लेकर डाकुओं के बारे में सुना था, लेकिन डाकू तो मजबूरी में हिंसा में आ गए।
मैंने छत्तीसगढ़ में देखा कि फैक्ट्री लगाने वाला एक व्यक्ति हरियाणा से गुंडों को लाता है, 20 हजार रुपये सैलरी, मोबाइल और मोटरबाइक देता है। काम क्या है- आदिवासियों को डरा-धमकाकर या दारू पिलाकर उनकी जमीन अपने नाम करना। 40 एकड़ की जगह से जिसने व्यापार खड़ा किया, आज उसके पास 5,000 एकड़ है। इसके पीछे हिंसा ही तो है।
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अहिंसा के देश में औद्योगिकीकरण बड़े पैमाने पर हिंसा लेकर आ रहा है। जन सुनवाई के नाम पर धोखाधड़ी हो रही है। जो सरकार के पक्ष में बोलता है, उसे ही सुना जाता है। जो विपक्ष में है, उसको लाठी लेकर खदेड़ दिया जाता है। सुनवाई में बैठने वाले अधिकारी या तो अपने बच्चों के लिए फैक्ट्री में नौकरी की आस में होते हैं या अपनी सेवानिवत्तिृ के बाद वहां काम करने के इच्छुक होते हैं। जिन्हें किसान माई-बाप कहता था, वही उनसे दुश्मनों की तरह बर्ताव कर रहे हैं।
गांधी जी की स्वावलंबन की कल्पना अब परावलंबन में बदल रही है। गांधी जी ने एक इंटरव्यू में भारत को लेकर कहा था कि सात लाख गांव जो स्वावलंबी होकर एकजुट हो जाएं, तो उसका नाम भारत होगा। आज गांव वालों से उनकी जमीन छीनकर इसके बदले एक रुपये में गेहूं-चावल देकर उन्हें परावलंबी बना रहे हैं। जल, जंगल, जमीन सब चला गया और इसके बदले आ गया परावलंबन।
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इस तब्दीली में बहुत ही कुरूप और क्रूर शहर बसते जा रहे हैं। रात-दिन काम करने वाले लोगों के पास बेहतर घर नहीं हैं, टॉयलेट भी नहीं। और हम बात करते हैं ब्राजीलाइजेशन ऑफ इंडिया की। आकार की दृष्टि से ब्राजील दुनिया का पांचवां देश है जबकि भारत सातवां। वहां 80 प्रतिशत लोग स्लम एरिया में रहते हैं और 20 प्रतिशत धनवान लोग बड़े क्षेत्र में राज करते हैं।
इस तरह के परिवर्तन को भारत में रोकना होगा। इसके लिए अहिंसक सामाजिक आंदोलन की सबसे ज्यादा जरूरत होगी। गांव का युवा, जो अभी अछूता है, अब भी उन्हें स्थितियां बताए जाने की गुंजाइश बची हुई है। इसके लिए हमने यूथ कैंप लगाए। ऐसा प्रशिक्षण डिजाइन किया, ताकि उनके पढ़े-लिखे न होने से इस पर कोई फर्क न पड़े। इस कैंप में आत्मविश्वास जगाने के लिए हमने पूछा कि क्या कर लेते हो, तो ग्रामीण युवाओं ने कहा कि कुछ नहीं आता।
इसके बाद, हमने बारी-बारी से पूछा, पेड़ पर चढ़ना, गाय का दूध निकालना, फावड़ा चलाना, हल जोतना किसको आता है। यह लगभग सबको आता है। लेकिन पढ़े-लिखे व्यक्ति को इनमें से एक भी काम नहीं आता, सिर्फ एक चीज आती है पढ़ना। आप बिना पढ़े जो कर सकते हैं, वह उसे पढ़कर भी नहीं कर सकता। बाद में, सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ी जानकारी दी और लोगों की सेवा के लिए बनाए गए विभागों में भेजा। लौटकर उन सभी ने जवाब दिया कि उन्हें वहां से भगा दिया गया।
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फिर उन्होंने आपस में तय किया कि सेवा के लिए बने विभाग जब उनके ही काम के नहीं, तो इनसे काम लिया कैसे जाए। सबने संगठित होकर काम किया। ऐसा करते ही, सरकार इस गांधीवादी कैंप को बंद करने के लिए आ गई। इन संगठित युवाओं के चलते गांव में मास्टर साहब समय पर पहुंचने लगे, हैंडपंप समय पर लग गए, डॉक्टर भी पहुंचने लगे और राशन में होने वाला घपला भी रुका।
जयप्रकाश नारायण ने जनशक्ति और राजशक्ति का जो विचार दिया था, वह इस तरह काम आया। युवाओं को आज गांधी, विनोबा और जयप्रकाश नाारायण के रास्ते पर चलकर हल ढूंढ़ने की जरूरत है। कई बार साधारण लोग भी बड़े रोचक तरीके इजाद करते हैं। विनोबा ने भूदान, संपत्ति दान, बुद्धिदान, श्रमदान, समयदान का तरीका बताया था। एक गांव के साधारण व्यक्ति ने आंदोलन को बिना रुके आगे बढ़ाने का तरीका बताया- एक रुपया, एक मुट्ठी अनाज का...। ताकि, गांव के या इससे जड़ेु परिवारों के काम भी चलते रहें और आंदोलन भी चलता जाए।
गरीब अपने आंदोलन की ताकत को ऐसे ही पहचान सकते हैं। आज की विषमता से निपटने के लिए कुछ पुराने सिद्धांतों और कुछ नए तरीकों पर काम करना होगा। एक सवाल उठता है कि आज के समय में संगठन टूट क्यों जाते हैं? इसका कारण है कि इन संगठनों में संघर्ष सिखाया जाता है, सवाल पूछना सिखाया जाता है, तो यह संघर्ष और सवाल पूछने की आदत वे संगठन के भीतर भी ले आते हैं। यदि संगठन अंदर और बाहर दोनों जगहों पर अहिंसा का व्यवहार रखें, तो परिस्थितियां सुधर सकती हैं।
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अमेरिकी और स्विस अर्थव्यवस्था हिंसा बेचकर ही चल रही है। तोपें और हथियार बनाने को लेकर रोज प्रयोग हो रहे हैं। हथियार बेचना उनकी आवश्यकता है, इसके लिए युद्ध होते रहने जरूरी हैं। हथियार बनाने वाली इन कंपनियों के पास सीएसआर का भी पैसा होता है। इसे वे लोगों के दिमाग में युद्ध पैदा करने में डालते हैं। आप लोगों की शब्दावली सुन लीजिए। मर्द नहीं हो, चूड़ी पहन कर बैठो... इन सबका अर्थ क्या है- यह सभी सिखाते हैं, कमजोर मत रहो, मरो। बस, इन्हीं सब के बीच दिमाग भी मानने लगता है कि हिंसा सही है।
आज हिंसा के प्रति श्रद्धा पैदा करने वालों को बढ़ावा दिया जा रहा है। अहिंसा को कायरता का नाम दे दिया गया। गांधी के बारे में स्लोगन बना दिया, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। अहिंसा को खत्म करने के लिए दुनिया भर में रणनीति के साथ काम चल रहा है। हिंसा के पैरोकार हथियारों पर रिसर्च कर रहे हैं। अहिंसा को बढ़ाने के लिए रिसर्च या निवेश कहां है? एक सभा में मैंने एक मंत्री से पूछा था, डिफेंस और पुलिस के लिए तो आज विभाग हैं। शांति का विभाग कहां है? बाद में, खबर आई कि एक राज्य में अहिंसा और शांति का विभाग भी बनाया जा रहा है।
युवाओं को समझाना होगा कि मनसा, वाचा कर्मणा अहिंसक होने के क्या मायने होते हैं। एक यूनिवर्सिटी के साथ मैं अब अहिंसात्मक विकास अध्ययन पर काम कर रहा हूं। आज के समय में जो विकास हो रहा है, वह भी हिंसा का प्रतीक है। हम लोगों को विस्थापित करते हैं, उनसे उनकी जमीन, मकान और रोजगार सब कुछ छीनकर विकास को आगे बढ़ाते हैं। बहुत जरूरी है कि हम अहिंसात्मक अर्थव्यवस्था, अहिंसात्मक व्यवस्था, अहिंसात्मक शासन व्यवस्था और अहिंसात्मक समाज की रचना करें और इसके तरीके ढूंढ़ें।
( भोपाल में ‘हम सब’ संस्था की ओर से 8 जून को ‘हिंसक समय में गांधी’ विषय पर गांधीवादी एक्टिविस्ट और गांधी शांति प्रतिष्ठान के पूर्व उपाध्यक्ष राजगोपाल पी वी के व्याख्यान का अंश)
प्रस्तितुः रामनरेश
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