भारतवर्ष सदियों पुराना ‘सर्वधर्म समभाव’ के आदर्शों का भारत रहेगा या फिर यह देश विनायक दामोदर सावरकर, मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी के विचारों के हिंदू राष्ट्र का स्वरूप ले लेगा? इस समय देश इसी सवाल से जूझ रहा है। भारतीय नागरिकता का संशोधित कानून खुले तौर पर केवल भारतीय संविधान ही नहीं, बल्कि भारत की साझी विरासत पर भी प्रहार है। इस कानून के माध्यम से धर्म का शब्द संविधान में डालकर मोदी सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अपमान तो किया ही है, साथ ही देश की सदियों पुरानी भारतीय सभ्यता के साथ भी छेड़छाड़ की है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल अंग्रेजों की गुलामी से आजादी का संघर्ष ही नहीं था बल्कि यह संघर्ष आजाद भारत का क्या स्वरूप हो, यह तय करने का भी संग्राम था। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि धर्म के आधार पर उनको एक मुस्लिम देश चाहिए। गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस के परचम तले भारत के सभी नेताओं ने देश की स्थापना धर्म के आधार पर हो यह विचार ठुकरा दिया था। केवल इसी सिद्धांत के कारण भारत ने बंटवारा मंजूर कर लिया और देश का विभाजन हो गया। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में ‘सर्वधर्म समभाव’ के नियम पर आधारित एक धर्मनिरपेक्ष आधुनिक भारत का निर्माण 1947 से आरंभ हुआ जो भारत की साझी विरासत का एक आधुनिक स्वरूप था।
लेकिन सावरकर और बाद में आरएसएस के चेले-चपाटों को एक आधुनिक देश नहीं अपितु सदियों पुराना एक आर्यावर्त चाहिए था। उनको इस देश में सदियों से बसे मुसलमानों से खासतौर से घृणा थी। वे एक हिंदू राष्ट्र में विश्वास रखते थे और ऐसे भारत के लिए कार्यरत भी थे। तरह-तरह के झूठ, भ्रम और घृणा की राजनीति के आधार पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अंततः भारतीय जनता पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत प्राप्त हो गया। और बस मोदी-शाह ने संघ के हिंदू राष्ट्र के सपनों के भारत के निर्माण का नंगा नाच प्रारंभ कर दिया। इस हिंदू राष्ट्र में उनका पहला निशाना भारतीय मुस्लिम समुदाय है, जिसे सावरकर के विचारों के आधार पर किसी प्रकार के अधिकार नहीं होने चाहिए।
साल 2019 में दूसरी बार सत्ता प्रवेश के पश्चात मोदी सरकार की पूरी ताकत इसी उद्देश्य की प्राप्ति में लगी है। चाहे वह तीन तलाक अधिकार रद्द करने का मामला हो अथवा अनुच्छेद 370 रद्द कर कश्मीर को झुकाने का प्रयास हो या फिर अब नागरिकता कानून में संशोधन हो, ये तमाम प्रयास संवैधानिक रूप से भारतीय मुसलमानों को तमाम अधिकारों से वंचित कर उनको सीधे तौर पर गुलाम बनाने का प्रयास है। जब एक नागरिक अपने अधिकारों से वंचित हो जाएगा तो वह दूसरे दर्जे का शहरी ही नहीं अपितु गुलामी का ही जीवन व्यतीत करेगा।
भारतीय नागरिकता का संशोधन कानून संघ के हिंदू राष्ट्र निर्माण की ओर सबसे अधिक खतरनाक कदम है। कहने को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए पीड़ित हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन एवं ईसाई शरणार्थियों को भारत में नागरिकता देने का यह कानून एक माध्यम है। लेकिन इसकी असल मंशा भारतीय मुसलमानों की नागरिकता समाप्त कर उनको फिलिस्तिनियों की तरह कैंपों में कैद कर गुलाम बनाना है। यही व्यवहार हिटलर ने यहूदियों के साथ किया था, फिर हजारों की तादाद में यहूदियों की कैंपों में हत्या की गई थी। क्या पता भारतीय मुसलमानों की नागरिकता छिनने के पश्चात संघ उनके साथ वही सुलूक करे जो यहूदियों के साथ हिटलर ने किया था। साल 2002 में गुजरात में मोदी सरकार की छत्रछाया में मुसलमानों का जो नरसंहार हुआ उसके पश्चात मोदी पूरे देश को 2002 का गुजरात बना दें, और ऐसा नहीं होने की कोई गारंटी नहीं है।
अब देखिए, षड्यंत्र क्या है। पहले भारतीय नागरिकता कानून में संशोधन हुआ। अब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) की बात छेड़ दी गई। हर भारतीय को अब इस रजिस्टर के लिए जो आंकड़े देने होंगे उनमें बहुत सी जानकारियों के साथ-साथ अपने माता-पिता की जन्मतिथि बतानी होगी। पहली बात तो यह है कि इस देश के आधे से अधिक लोगों को अपनी जन्मतिथि का ही ज्ञान नहीं रहता तो फिर वे अपने माता-पिता की जन्मतिथि कैसे लिखवा पाएंगे। मान लीजिए, आपने कुछ जन्मतिथि लिखवा दी। फिर एनआरसी (भारतीय नागरिक रजिस्टर) की शुरूआत होगी। एनआरसी में आपको अपनी और अपने माता-पिता की जन्मतिथि का प्रमाणपत्र देना होगा। अधिकांश मुसलमान ही नहीं, अपितु अधिकतर दलित और पिछड़े भी ऐसा प्रमाणपत्र देने में असमर्थ रहेंगे।
इसका अर्थ क्या है? पहले मुसलमान, फिर दलित और पिछड़ों को नागरिकता अधिकार से वंचित कर 21वीं सदी का एक नवीन आर्यावर्त का निर्माण किया जा सके। यह है संघ की पुरानी मंशा और नागरिकता कानून, एनपीआर तथा एनआरसी मोदी-शाह की उस दिशा में एक खतरनाक चाल। जब यह चाल पकड़ी गई तो फिर अब तरह-तरह से स्वयं मोदी झूठ बोल रहे हैं। रामलीला मैदान में यह कहना कि भारत सरकार में तो एनआरसी की चर्चा हुई ही नहीं, यह अर्द्धसत्य नहीं है तो फिर और क्या है। गृहमंत्री संसद में खड़े होकर एनआरसी लगाने की बात करते हैं और हंगामे के पश्चात प्रधानमंत्री देश से झूठ बोलते हैं। यदि आपकी नीयत ठीक है तो आप सीधे-सीधे यह क्यों नहीं कहते कि हम एनआरसी कभी नहीं लाएंगे। अब एक झूठ को ढकने के लिए दूसरा नया झूठ बोला जा रहा है।
लेकिन भारतवर्ष तो वही भारत है। इस कानून से मोदी सरकार ने भारत की आत्मा पर प्रहार किया है। यह भारतीय सभ्यता पर घातक हमला है। यहां की साझी विरासत को मिटाने का संगीन षडयंत्र है। तब ही तो हजारों की तादाद में केवल छात्र ही नहीं अपितु लाखों भारतीय नागरिक सड़कों पर निकल पड़े हैं। एक जनसैलाब है, जो रोज भारत के नगर-नगर में इस कानून के विरूद्ध प्रदर्शन कर रहा है। यह अब एक जन आंदोलन बन गया जिसको सरकार दबाए से दबा नहीं पा रही है। इस आंदोलन का कोई नेतृत्व नहीं है। अभी तक इस आंदोलन में राजनीतिक दलों की शिरकत दूसरे दर्जे की है।
यह भारतवर्ष का आक्रोश है जो सड़कों पर उबल पड़ा है, क्योंकि इस कानून ने भारत की सदियों पुरानी साझी विरासत को ठेस पहुंचा दी है। इस जन आंदोलन में कोई हिंदू नहीं, कोई मुसलमान या सिख या किसी धर्म का व्यक्ति नहीं। यह केवल और केवल भारतीयों का आंदोलन है जिसका उद्देश्य केवल भारतीय नागरिक संशोधन कानून- 2019 को ही रद्द करवाना नहीं है बल्कि भारतीय आत्मा और भारतीय सभ्यता का संरक्षण करना भी है। इस समय सड़कों पर निकले प्रदर्शनकारियों की मांग यह है कि हम धर्म के आधार पर भारत को एक हिंदू पाकिस्तान नहीं बनने देंगे।
परंतु याद रखिए, साल 1925 में संघ ने जिस हिंदू राष्ट्र के निर्माण का सपना रचा था, वह संघ और उनके चेले मोदी-शाह आसानी से बिखरने नहीं देंगे। अतः जैसे-जैसे यह आंदोलन तेज होगा वैसे-वैसे मोदी सरकार और बीजेपी शासित राज्य सरकारों का दमन भी तेज होगा। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार मुस्लिम बस्तियों पर जो कहर ढा रही है, वह उसी दमन की एक झांकी है। घरों में घुसकर तोड़-फोड़, मासूम नागरिकों को जेल में ठूंसना, दुकानें सील करना और लाखों का जुर्माना लगाना जैसे हथकंडे इस आंदोलन की कमर तोड़ने का प्रयास हैं।
नागरिकों ने बिना किसी नेतृत्व के भारत की आत्मा के सरंक्षण के लिए जो कदम उठाना था, वह तो उठा लिया। अब राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का यह कर्तव्य है कि वह मिलजुल कर इस नागरिक आंदोलन को एक राजनीतिक स्वरूप दें, क्योंकि इस संबंध में सरकार का दमन तेज होता जाएगा। अब राजनीतिक दलों को केवल टोकन रैली निकालने से काम नहीं चलने वाला है। इस आंदोलन की एक कमान होनी चाहिए, इस संघर्ष का एक ढांचा बन जाना चाहिए। यह कार्य राजनीतिक दलों खासकर कांग्रेस का है। बढ़िए, यही देश की आवाज है। जामिया ने जो आंदोलन छेड़ा, राजनीतिक दल अब उसकी कमान संभाल कर देश के संविधान और उसकी साझी विरासत के लिए शांतिपूर्वक इस आंदोलन को अंतिम छोर तक पहुंचाएं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हमको इतिहास भी माफ नहीं करेगा। उठिए और संघ के इरादों को नाकाम बनाकर सदियों पुराना भारत फिर साकार कीजिए।
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