अल्पमत सरकारों की दो सबसे बड़ी चिंताएं होती हैं। अविश्वास प्रस्ताव से पार पाना और कानूनों को पास कराना। पहली चिंता होती है पांच साल तक सत्ता में बने रहने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी के सांसदों की एक जरूरी संख्या बनाए रखना। इसका मतलब है कि गठबंधन के केंद्र में पर्याप्त रूप से बड़ा जनसमूह होना चाहिए ताकि गठबंधन को एक साथ रखा जा सके।
हमारा इतिहास बताता है कि सत्ता के केंद्र वाली पार्टी के पास 150 सीटों से भी कम हो सकती हैं, लेकिन इससे और कम नहीं हो सकतीं। 1996 में जनता दल और वाम दलों ने मिलकर सरकार बनाई थी। एच डी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल दो प्रधानमंत्री रहे, तो उनके पास सिर्फ 78 सीटें थीं, जोकि स्थिरता के लिहाज से बहुत कम थीं, यानी पूरी तरह बाहरी समर्थन पर टिकी हुई थीं। काफी नाटकीयता के बाद उस समय सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की मर्जी पर सरकार टिकी रही थी, लेकिन फिर भी दो ही साल में वह सरकार गिर गई थी।
ऐसी सरकार चलाना आसान नहीं होता जिसमें बड़ी पार्टी और सहयोगियों की संख्या लगभग बराबर होती है, लेकिन फिर भी वह सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर लेती है। 2014 से पहले वाले सभी तीनों गठबंधनों ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था। हालांकि सबसे पहले वाली सरकार ने अपनी मर्जी से ही समय से 6 महीने पहले ही चुनाव कराने का फैसला किया था। और ऐसा तब हुआ था जब 1999 में बनी वाजपेयी सरकार के पास बीजेपी की 182 सीटें थी, जबकि बाद में 2004 और 2009 में मनमोहन सिंह की अगुवाई में बनी सरकारों में कांग्रेस के पास पहले 145 और फिर 205 सीटें थीं।
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यह भी सत्य है कि इस दौरान खबरों का चक्र मोटे तौर पर इसी बात पर घूमता रहता था कि कैसे सरकार के सहयोगी दल नाराज-परेशान हैं, मनमानी थोपने की कोशिश करते हैं, समर्थन वापसी की धमकी देते हैं। लेकिन इन तीनों सरकारों ने अपना-अपना कार्यकाल पूरा किया था।
18वीं लोकसभा में बीजेपी के पास अपनी 240 सीटों हैं, और वह अकेली ऐसी पार्टी है जो सरकार बना सकती थी। भले ही वह बहुमत खो चुकी है लेकिन फिर भी वह सत्ता में तब तक बनी रहेगी जब तक वह चाहेगी। बीजेपी के सहयोगी दलों को भी यह आफास है। उन्हें पता है कि उन्हें भी 2029 तक अपने मंत्रालय संभालने हैं और सिर्फ इसी कारण से वे सरकार का अपने वोट से समर्थन करते रहेंगे।
अभी अगस्त महा के मध्य में एक न्यूज रिपोर्ट आई जिसने एक अजीब सी स्थिति सामने रखी। खबर थी 'जब भी बीजेपी सांसदों की इंडिया ब्लॉक के साथ तीखी नोकझोंक होती थी, एनडीए के घटक संसद में मात्र उत्सुक दर्शक बने रहते थे। जहां इंडिया ब्लॉक एकजुट होकर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, वहीं बीजेपी अलग-थलग पड़ी नजर आती है।'
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ऐसा इसलिए है क्योंकि बीजेपी या कहें कि सरकार के सहयोगी दलों की बीजेपी की विचारधारा में कोई श्रद्धा नहीं है और न ही उन्हें वक्फ बिल जैसे मुद्दों पर उसका बचाव करने पर कोई पुरस्कार मिलने वाला है। यहीं से हमें दूसरी चिंता देखने को मिलती है जो गठबंधन सरकारों के सामने होती हैं, वह है कि कैसे कानूनों को पास कराया जाए। अगर बीजेपी को पूरे कार्यकाल का भरोसा हो, और मुझे लगता है कि ऐसा ही है, तो वह पांच साल सत्ता में रहने से क्या लेना-देना?
वक्फ बिल और लैटरल एंट्री जैसे मुद्दों पर बहुत ही जल्दी यू-टर्न से संकेत मिलते हैं कि बीजेपी के लिए कानून पास कराना कठिन है, और हां, गठबंधन सरकारों का इतिहास बताता है कि जरूरी नहीं कि मामला सिर्फ इतना ही हो।
पिछली तीन गठबंधन सरकारों में सबसे कमजोर अगर कोई सरकार थी तो वह थी 2004 की मनमोहन सरकार, लेकिन फिर भी उसने अत्यधिक प्रभावशाली कानून पास करवाए। इनमें सूचना का अधिकार, नरेगा और अमेरिका के साथ परमाणु डील जैसे मामले शामिल हैं। परमाणु डील का सरकार के सहयोगी वामदलों ने विरोध किया था, लेकिन फिर भी किसी तरह सरकार ने इससे पार पा लिया था।
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नरसिम्हा राव की सरकार भी जब सत्ता में थी तब कांग्रेस के पास उतनी ही सीटें थीं जितनी कि आज नरेंद्र मोदी के पास बीजेपी की हैं। लेकिन फिर भी उन्होंने संसद से आर्थिक सुधारों का बिल पास कराया जिसे हम उदारीकरण के नाम से जानते हैं। इसलिए ऐसा लग सकता है कि कमजोर सरकारें भी चाहें तों कड़े फैसले ले सकती हैं, बशर्ते उनमें संकल्प शक्ति हो।
ऐसी भी मिसालें है कि मजबूत सरकारों ने भी चर्चा से परहेज करते हुए बहुत ही संदिग्ध तरीके से कानून पास कराए हैं। अतीत में बीजेपी कई बार राज्यसभा का सामने करने से बचने के लिए कई बिलों को मनी बिल के नाम से पास करा चुकी है। इनमें आधार और इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे बिल शामिल हैं।
लोकसभा में बीजेपी की कमजोरी देखते हुए मौजूदा मोदी सरकार के लिए अब यह सब संभव नहीं होगा। तो फिर मोदी कैसे आगे बढ़ेंगे?
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एकमात्र रास्ता जो बचा है, वह यह कि वह ऐसी चीजों से दूर रहें और उन्हें अनदेखा कर दें जिनसे उनकी सरकार के लिए दिक्कतें खड़ी होना तय हो, मसलन यूनीफॉर्म सिविल कोड और एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर)। वाजपेयी की तरह उन्हें भी हिंदुत्व को पीछे छोड़ना पड़ेगा और सरकार चलाने और नीति निर्धारण के लिए कोई और तरीका अपनाना होगा।
लेकिन ये सब भी आसान नहीं होगा, क्योंकि मौजूदा सरकार के पास नागरिकों के सशक्तिकरण की यूपीए जैसी दृष्टि नहीं है या फिर मोदी के पहले दो कार्यकाल के दौरान जिस तरह से उन्होंने अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न किया है। बहरहाल तीसरे कार्यकाल में कोई भी नेता हो, वह विचारों के स्तर पर थक चुका होता है। याद कीजिए नेहरू का 1962 के पास का दौर या फिर टोनी ब्लेयर का 2005 के बाद का युग।
अमेरिका में 2008 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने बराक ओबामा को एक सलाह दी थी। मर्डोक ने हैरी ट्रूमैन से लेकर बाद के सभी राष्ट्रपतियों को देखा था और उनमें से कोई भी शुरुआती कुछ महीनों के बाद सुधारों की दिशा में कोई खास काम नहीं कर पाया। यही वह समय होता है जब उत्साह, ऊर्जा और कुछ अच्छा करने की नीयत अत्यधिक होती है और उसके नतीजे भी निकलते हैं। ध्यान रहे कि मनमोहन सिंह ने भी पद संभालने के चंद महीनों के अंदर ही ऊपर लिखे अधिकतर कामों को अंजाम दिया था।
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आज की तारीख में मोदी के समर्थक तक में यह भाव है कि सरकार के कामकाज में काफी उदासीनता सी है। आखिर उसकी मंशा क्या हासिल करने की है? यह कहना आसान तो नहीं है। यू-टर्न तो इसलिए लिए गए क्योंकि बहुमत के बिना पुराने वाले तरीके अपनाए गए जोकि नाकाम हो गए। मोदी के पास नए और सबसे महत्वपूर्ण, कोई समावेशी विचार नहीं है, ऐसे में इस किस्म की स्थितियां बनी ही रहेंगी। वे पद पर तो बने रहेंगे, लेकिन पहले जैसे प्रभावशाली नहीं होंगे।
ब्रिटेन में संप्रभू लेकिन विवश राजा की भूमिका को परिभाषित करने के लिए एक महत्वपूर्ण वाक्य है, ‘’राजा शासक तो है, लेकिन शासन नहीं करता...।”
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