आधुनिक युद्ध अपराधियों की जो हरकते हैं, उन्हें देखते हुए अगर आप यह सोचने लगे हैं कि नेतन्याहू-बाइडेन की जोड़ी को हराना मुश्किल है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं। नेतन्याहू, जिन्होंने गाजा में कत्लेआम का नया दौर शुरू कर दिया है और बाइडेन, जो हरमुमकिन राजनयिक और सैन्य ‘कवरिंग फायर’ उपलब्ध करा रहे हैं ताकि यह काम जल्दी से जल्दी पूरा हो जाए। जिस वक्त मैं यह पीस लिख रहा हूं, गाजा में तकरीबन 7,000 लोग मारे जा चुके हैं जिनमें 2,500 बच्चे और 1,500 औरतें हैं। आने वाले समय में इस युद्ध-जर्जर इलाके में जैसे-जैसे जमीनी हमले बढ़ेंगे, मौतों की यह गिनती और भी बढ़ने वाली है।
गाजा में ‘यूक्रेन’ दोहराया जा रहा है। इंसाफ के तकाजे को फासीवादी सुविधा की आड़ में खत्म कर दिया गया है। उनकी दोहरी दलील एक संप्रभु राष्ट्र, यूक्रेन पर हमला करने और उसके नागरिकों की हत्या करने के लिए रूस को हमलावर मानती है जबकि फिलिस्तीन में ऐसा ही करने पर इजराइल को दोषी मानना तो दूर, उसे ही पीड़ित मान लेती है। अंतरराष्ट्रीय समझौतों के मुताबिक तो यह सरासर नैतिक दिवालिएपन और आपराधिकता है, लेकिन इसे भू-राजनीति के मुलम्मे में पेश किया जा रहा है।
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इजराइल ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव के इस्तीफे तक की मांग कर डाली है क्योंकि उन्होंने यह कहने की ‘गुस्ताखी’ की कि हमास के हमले यूं ही नहीं हुए। इजरायल संयुक्त राष्ट्र की राहत एजेंसी ‘यूएनआरडब्ल्यूए’ पर भी तंज कसने से पीछे नहीं रहा। गाजा में ईंधन भेजने की इजाजत देने की एजेंसी की अपील पर इस सिरफिरे देश ने कहा कि वह हमास से ईंधन क्यों नहीं मांग लेता! यह सिर्फ अंध अहंकार नहीं, बल्कि एक अपराधी का आत्मविश्वास बोल रहा है जिसने जज और जूरी दोनों को अपनी जेब में कर रखा है।
एक आतंकवादी संगठन को भला एक पूरे देश का पर्याय कैसे बनाया जा सकता है? हमास और फिलस्तीन के मामले में पूरी ‘उत्तरी दुनिया’ यही तो कर रही है। तो क्या कुछ आतंकवादियों की गलतियों के लिए एक पूरे देश को तबाह-बर्बाद कर दें, जैसा इजराइल कर रहा है? यह तो आईआरए की गतिविधियों के कारण इंग्लैंड की वायुसेना द्वारा आयरलैंड पर ताबड़तोड़ बमबारी करके पूरे देश को तबाह कर देने या फिर सीमा पर आतंकवादी गतिविधियों के लिए भारत द्वारा पाकिस्तान के लाहौर पर बमबारी करने जैसा है।
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नेतन्याहू और बाइडेन के फ्रांस और ब्रिटेन स्थित उनके पिछलग्गुओं को बेशक यह दलील समझ में न आए, भारत तो इसे समझ सकता है। लिहाजा, भारत को कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि इजराइल को कहे कि वह इस फर्क का सम्मान करे। पिछली भारतीय सरकारों, नेहरू से लेकर वाजपेयी तक, के पास यह समझने के लिए मानवतावादी नजरिया था। उन्होंने हमारे अपने इतिहास और विभाजन के भयानक नतीजों से भी सीखा था और इसी वजह से वे लोग फिलिस्तीनियों के साथ हमदर्दी रखथे जिनकी अपनी जमीन का 1947 में विभाजन हो गया था।
लेकिन ‘नया भारत’ ऐसा नहीं है। अब पेगासस, हाई-टेक हथियार और मोसाद द्वारा प्रशिक्षण के फायदे साझा इतिहास, मानवतावाद और इंसाफ से कहीं ज्यादा मायने रखते हैं। इस्लामोफोबिया अब हमारी विदेश नीति में प्रवेश कर चुका है। ऐसा लगता है; मौजूदा शासन के नौ सालों के बाद यह सब होना लाजिमी था, क्योंकि जैसा कि ह्यूबर्ट हम्फ्री ने कहा था कि कूटनीति और कुछ नहीं बल्कि घरेलू नीति का ही प्रक्षेपण है। यही कारण है कि जयशंकर ने इस ‘युद्ध’ पर चुप्पी साध ली है।
नेतन्याहू-बाइडेन की रणनीति साफ है: यह फिलिस्तीन में ‘अंतिम समाधान’ का वक्त है: अगर गाजा पट्टी को अपने में मिलाना संभव न भी हो तो इसपर कब्जा तो कर ही लें। आपको याद होगा कि सितंबर में न्यूयॉर्क में यूएन की पिछली आम बैठक में नेतन्याहू ने जिस नक्शे को दिखाकर अपनी बात कह रहे थे, उसमें जॉर्डन नदी से लेकर भूमध्य सागर (मौजूदा वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी) तक के लगभग पूरे इलाके को इजराइल का हिस्सा दिखाया गया था।
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गाजा पर हमला इस नक्शे को हकीकत में बदलने का पहला चरण है। इजराइल वहां रहने वाले फिलिस्तीनियों (लगभग डेढ़ लाख) को बाहर निकालने के बाद उत्तरी गाजा को हड़प लेगा। या तो वह उस पर सैन्य कब्जा कर लेगा, या उसे प्रॉक्सी सरकार के साथ बफर जोन में बदल देगा। फिर धीरे-धीरे वहां इजरायली लोगों को भेज दिया जाएगा और बचे-खुचे फिलिस्तीनियों को भी वहां से बेदखल कर देगा, जैसा कि वेस्ट बैंक में हुआ।
उत्तरी दुनिया के आशीर्वाद और भारत जैसे देशों की चुप्पी से इजराइल न सिर्फ भूगोल बल्कि इलाके की जनसांख्यिकी को हमेशा-हमेशा के लिए बदल देगा। नेतन्याहू का यही मतलब था जब उन्होंने इस ‘युद्ध’ के शुरू में कहा था कि मध्य पूर्व को ‘हमेशा के लिए बदल दिया जाएगा’।
आतंकवाद की किसी भी परिभाषा और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक इजराइल एक आतंकवादी देश है। इसने फिलिस्तीन के 85 फीसद हिस्से पर जबरन कब्जा कर लिया है और सैन्य सुरक्षा कवर में 700,000 यहूदियों को वेस्ट बैंक में फिलिस्तीनी जमीन पर कब्जा करने की खुली छूट दे रखी है। इजराइल इन लोगों को हथियार देता है और बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के हजारों फिलिस्तीनियों को मार डाला गया है। इजराइल जबरन कब्जा करने वाली ताकत है और संयुक्त राष्ट्र के विरोध के बावजूद वह तमाम अंतरराष्ट्रीय कानूनों को नजरअंदाज करते हुए इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देता है।
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इजराइल ने गाजा पट्टी की नाकेबंदी कर रखी है और एक टिप्पणीकार ने तो यहां तक लिखा कि गाजा पट्टी को इजराइल ने दुनिया के सबसे बड़े ‘यातना शिविर’ में बदल दिया है और यह सब अमेरिका की मदद से हो रहा है जो ग्वांतानामो खाड़ी में अपना खुद का ‘यातना शिविर’ चलाता है। इजराइल हर साल 200 से 250 फिलिस्तीनी नागरिकों को मार देता है (पिछले दो हफ्तों में ही वेस्ट बैंक में 120 से अधिक लोग मारे गए हैं) और उनमें से लगभग 5,000 को जेल में डाल दिया है, जिनमें से ज्यादातर बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के बंद रखे गए हैं।
ऐसे में संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा की है कि वह गाजा में राहत कार्यों को बंद कर देगा। इजराइल की दो सप्ताह की नाकाबंदी ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि भोजन, ईंधन, दवाएं या यहां तक कि पानी भी इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। 2.5 करोड़ लोग चूहों की तरह फंसकर रह गए हैं। 35 अस्पताल बंद हो जाएंगे। पूरी-पूरी आशंका इस बात की है कि इनक्यूबेटरों में 140 बच्चे और आईसीयू में 130 मरीज निश्चित ही मर जाएंगे। यह जानबूझकर किया गया नरसंहार है, बंधक बनाने से कहीं बर्बर। और यह जमीनी हमला शुरू होने से भी पहले की स्थिति है! आतंकवादी बनने के लिए भला और क्या चाहिए?
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भारत ने ‘अपना नंबर बढ़ाने’ के लिए अपने सभी नैतिक मूल्यों को छोड़ दिया है और सेवानिवृत्त राजदूत तलमीज अहमद के शब्दों में- भारत ने ‘कुछ दोस्तों के फायदे के लिए अपनी विदेश नीति का निगमीकरण कर दिया है। इजराइल-फिलिस्तीन मुद्दे से नस्लवाद की बू आ रही है। जब रूस ‘गोरे’ यूक्रेनी नागरिकों की हत्या करता है, तो पश्चिम आग-बबूला हो जाता है, लेकिन जब ‘भूरे’ फिलिस्तीनियों का यहूदियों द्वारा नरसंहार किया जाता है, तो पश्चिम को यह सिर्फ ‘बदला’ दिखता है। ऋषि सुनक की आंखें भी बंद हैं।
इतिहास गवाह है, मुसलमानों ने कभी भी यहूदियों पर जुर्म नहीं ढाया। ये गोरे ईसाई हैं जिन्होंने यहूदियों को मताधिकार से अलग रखा और उनकी हत्या की जिसका अंजाम हिटलर के ‘अंतिम समाधान’ के तौर पर सामने आया। 1947 में फिलिस्तीन में शायद ही कोई यहूदी था। इनकी बड़ी आबादी यूरोप में रह रही थी और वहीं उन्हें उनका संप्रभु देश दिया जाना चाहिए था।
जाहिर है, ईसाई उन्हें पड़ोसी के तौर पर नहीं चाहते थे और यहूदियों को बाल्फोर घोषणा के तहत मध्य पूर्व के एक इलाके में समेट दिया जो मुसलमानों का था। फिर इस मामले में नस्लवादी और आक्रामक कौन है? बाइडेन जैसे स्वघोषित जायनोवादियों और सुनक जैसों को इस बारे में सोचना चाहिए। हिंदू ‘सम्राटों’ को भी ऐसा ही करना चाहिए। इतिहास का डराने का अपना एक तरीका होता है। वह खुद को जस का तस तो नहीं दोहराता, लेकिन उस जैसी घटनाएं होती रहती हैं।
इस अफसोसनाक वक्त में हम महमूद दरवेश के शब्दों को याद करने से बेहतर कुछ नहीं कर सकते:
‘युद्ध खत्म हो जाएगा और नेता हाथ मिलाएंगे। वह बूढ़ी औरत अपने शहीद बेटे का, वह युवती अपने प्रिय पति का और बच्चे अपने वीर पिता का इंतजार करते रहेंगे। मुझे नहीं पता कि किसने बेची मातृभूमि, लेकिन मुझे पता है कि इसकी कीमत किसने चुकाई।’
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