बिहार में शराबबंदी का असर जानने के लिए सर्वे होगा। सीएम नीतीश कुमार ने 26 नवंबर को अधिकारियों को घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने का निर्देश दिया है। इससे शराबबंदी के असर के बारे में तो नई जानकारी मिल सकती है, पर जहां तक शराब के विभिन्न गंभीर दुष्परिमाणों का प्रश्न है, उसके बारे में तो पहले से बहुत सारी जानकारी उपलब्ध है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की शराब और स्वास्थ्य स्टेटस रिपोर्ट (2018) के अनुसार विश्व में वर्ष 2016 में शराब से 30 लाख मौतें हुईं। वर्ष 2016 में शराब के कारण हुई मौतों में से 28.7 प्रतिशत चोटों के कारण हुईं, 21.3 प्रतिशत पाचन रोगों के कारण हुईं, 19 प्रतिशत हृदय रोगों के कारण हुईं, 12.9 प्रतिशत संक्रामक रोगों से हुईं और 12.6 प्रतिशत कैंसर से हुईं। शराब के कारण वर्ष 2016 में सड़क दुर्घटनाओं में 370000 मौतें हुईं। वहीं 20 से 29 आयु वर्ग में होने वाली मौतों में से 13.5 प्रतिशत शराब के कारण होती हैं।
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पिता या अभिभावक के शराब पीने से बच्चों पर कई दुष्परिणाम होते हैं जैसे अवसाद, भावनात्मक क्षति, अकेलापन। इसके अतिरिक्त बच्चों की शिक्षा और सीखने की क्षमता पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है, उनके द्वारा भी नशा करने की संभावना बढ़ जाती है। हिंसा होने में या उसकी संभावना बढ़ाने में शराब की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
कुछ अध्ययनों ने शराब के इन सामाजिक दुष्परिणामों की आर्थिक कीमत लगाने का प्रयास किया है जिससे पता चलता है कि शराब के सामाजिक दुष्परिणाम कितने महंगे पड़ते हैं। यूरोपीयन यूनियन के लिए वर्ष 2003 में लगाए गए अनुमान में शराब के सामाजिक दुष्परिणामों की कीमत 125 अरब यूरो लगाई गई। संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए वर्ष 2006 में शराब के सामाजिक दुष्परिणामों की कीमत 233 अरब डॉलर लगाई गई।
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हाल के वर्षों में भारतीय समाज में जो एक बहुत चिंताजनक बदलाव आया है वह यह है कि शराब की बिक्री और उपभोग तेजी से बढ़े हैं। एक कुप्रयास भी कुछ वर्षों से हो रहा है और वह यह है कि शराब के विरुद्ध जो सामाजिक मान्यता सदा से भारतीय समाज में रही है उस मजबूत और सार्थक परंपरा को ही समाप्त कर देने की कोशिशें हो रही हैं। शराब और अन्य नशे के विरुद्ध जो सामाजिक मान्यता बहुत पहले से रही है, उसे समाप्त नहीं होने देना चाहिए बल्कि उसे तो और मजबूत करने की जरूरत इस समय है।
केवल कानूनी कार्यवाही से शराब के नशे को दूर नहीं किया जा सकता है, इसके साथ नशे के विरुद्ध व्यापक जन-अभियान की भी जरूरत है। यदि पिछले कुछ दशकों को देखें तो समय-समय पर शराब के विरुद्ध बहुत सफल जन-आंदोलन भी हुए हैं। छत्तीसगढ़ के दल्ली राजहरा क्षेत्र में हजारों लौह अयस्क खनन मजदूरों ने अपने श्रमिक संगठन के बहुत प्रेरणादायक माहौल में शराब को छोड़ा। समय-समय पर उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा आदि अनेक राज्यों से भी शराब विरोधी आंदोलनों की सफलता के समाचार मिले।
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ऐसे सब जन अभियान और आंदोलन बहुत सार्थक तो रहे हैं, पर एक बड़ा सवाल यह है कि क्या उनकी निरंतरता को बनाए रखा जा सकता है? कुछ समय बाद आंदोलन और अभियान ढीले पड़ते हैं तो शराब की कमाई से जुड़े तत्व फिर हावी हो जाते हैं। शराब का ठेका हटा दिया गया तो भी वे अन्य तरह से अवैध शराब बेचने लगते हैं। अतः यह जरूरी है कि जहां आंदोलन होते हैं और शराब के विरुद्ध लोग एकजुट हों, वहां स्थाई तौर पर नशा विराधी समितियों का गठन हो जाना चाहिए और उनकी मीटिंग भी नियमित तौर पर होनी चाहिए ताकि नशे के विरुद्ध जो चेतना लोगों में आई है, वह बनी रहे।
एक स्पष्ट नीति यह होनी चाहिए कि किसी भी गांव में यदि 50 प्रतिशत व्यक्ति शराब की दुकान के या ठेके के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो वहां शराब का ठेका नहीं खुल सकता है। यदि यह पहले से खुला है तो 50 प्रतिशत लोगों के विरोध का हस्ताक्षरित आवेदन मिलने पर इसे बंद करना होगा। इसके साथ ही जहां भी अवैध शराब बिकती है उसके विरुद्ध सख्त कार्यवाही होनी चाहिए।
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गरीब व्यक्ति यदि शराब की लत को पकड़ लेता है तो फिर उसके परिवार में रोटी, सब्जी और बच्चों के स्कूल की फीस तक उपलब्ध करवाने में कठिनाई बढ़ जाती है। इस कारण परिवार में लड़ाई-झगड़े भी अधिक होते हैं, महिलाओं से मारपीट होती है। गरीब लोगों का स्वास्थ्य पहले से कमजोर होता है। अतः उन पर शराब का प्रतिकूल असर और अधिक होता है।
इस तरह स्पष्ट है कि शराब के बहुत गंभीर और व्यापक दुष्परिणाम हैं। फिर भी शराबबंदी लागू करते समय बहुत से लोगों की गिरफ्तारी से बचना चाहिए। जन अभियान की भूमिका अधिक होनी चाहिए, जबरदस्ती और दंड की कम। कुछ लोगों का मानना है कि बिहार में शराबबंदी तो रहे पर इससे जुड़ी अधिक संख्या की गिरफ्तारियां न हों।
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