विचार

आकार पटेल का लेख: तीसरे कार्यकाल के लिए दावे तो बड़े-बड़े थे, लेकिन 125 दिन गुजरने पर भी 'हो कुछ नहीं रहा है'

विपक्ष मजबूत है, और बीजेपी के पूर्ण प्रभुत्व का दौर खत्म हो चुका है। प्रभावी ढंग से शासन करने और कानून बनाने के लिए मोदी को विपक्ष से संपर्क करना ही होगा। उन्हें फैसलों में विपक्ष को शामिल करना होगा, जैसा कि उनके पहले के प्रधानमंत्रियों ने किया है।

तीसरे कार्यकाल के लिए दावे तो बड़े-बड़े थे, लेकिन 125 दिन गुजरने पर भी 'हो कुछ नहीं रहा है'
तीसरे कार्यकाल के लिए दावे तो बड़े-बड़े थे, लेकिन 125 दिन गुजरने पर भी 'हो कुछ नहीं रहा है' फाइल फोटोः सोशल मीडिया

प्रधानमंत्री के प्रशंसक, और इनकी तादाद भी काफी है, उनके तीसरे कार्यकाल में एक निराशा के भाव से ग्रसित हैं और निरुद्देश्य सा महसूस कर रहे हैं।

फरवरी में संसद के नए भवन में, नरेंद्र मोदी ने कहा था कि बीजेपी का तीसरा कार्यकाल कुछ ऐसे अति महत्वपूर्ण फैसलों में में से एक होगा जिसका असर अगले 1000 वर्षों तक भारत पर होगा। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान एक समाचार चैनल को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि 4 जून को चुनावी नतीजे आने के बाद पहले 125 दिनों में इसका असर दिखाई देगा। उन्होंने कहा था कि पहले 100 दिनों का एजेंडा पहले ही तय किया जा चुका है, और वे अगले 25 दिनों का उपयोग युवाओं के लिए करेंगे।

मगर ऐसा कुछ भी हो न सका। सोमवार, 7 अक्टूबर को लोकसभा चुनाव के नतीजे आए 125 दिन हो जाएंगे और इस दौरान आम भावना है कि 'कुछ नहीं हो रहा है'। इसका मुख्य कारण यह है कि अल्पमत होने के चलते बीजेपी संसद में अब वह सब नहीं कर सकती जो वह 2014 से 2024 के बीच कर सकती थी या करती रही है।

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हमने ऐसा वक्फ बिल के मुद्दे पर देखा, जिसे संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया। पिछले एक दशक के दौरान कमज़ोर विपक्ष होने के कारण सरकार ने बिलों को समिति के पास भेजकर उनकी जांच करने की अनुमति नहीं दी। मोदी शासन के पहले दशक में कानूनों पर असली समझ के लिए जरूरी किसी कठोर प्रक्रिया का पालन किए बिना ही उनके पास कराए जाने का हड़बड़ी वाला चलन था। 14वीं लोकसभा (2004-09) में, 60 प्रतिशत बिलों को जांच के लिए समितियों को भेजा गया था। अगली लोकसभा (2009-14) में, यह संख्या 71 प्रतिशत थी। लेकिन मोदी के पहले शासन में ऐसे बिलों का प्रतिशत घटकर रह गया था।

मोदी सरकार ने 2014 में अपने पहले शासन में सत्ता में आने के बाद विधेयकों को जांच-पड़ताल के लिए संबंधित विभागों की स्थायी समितियों को भेजने की संसदीय परंपरा को जानबूझकर खत्म कर दिया। ऐसे कानून या विधेयक जो जांच के लिए समितियों को भेजे उनकी संख्या में भारी कमी आई और मोदी की दूसरी जीत के बाद पारित होने से पहले ही इनकी अवधि खत्म हो गई। विपक्ष ने इस बारे में सरकार का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के 17 सांसदों ने सरकार को पत्र लिखकर बिना जांचे-परखे विधेयकों को ‘जल्दबाजी में पारित’ करने पर अपनी चिंता जाहिर की।

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विपक्ष ने पत्र में लिखा कि विशेष विषयों से जुड़े समूहों और व्यक्तियों को सांसदों द्वारा भावी कानूनों पर अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित कर सार्वजनिक परामर्श बंद कर दिया गया है। उन्होंने लिखा कि, 'सार्वजनिक परामर्श एक लंबे समय से स्थापित प्रथा है, जहां संसदीय समितियां विधेयकों की जांच करती हैं, विचार-विमर्श करती हैं, कानून की सामग्री और गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए काम करती हैं।'

इसका मोदी और उनकी सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा और 2020 में तो एक भी  बिल जांच के लिए किसी समिति के पास नहीं भेजा गया। इसी साल मार्च और अगस्त के बीच सरकार ने 11 अध्यादेश जारी किए जिनमें संशोधित आयकर अधिनियम भी था जिसके जरिए पीए केयर्स को दिए जाने वाले चंदे को 100 फीसदी कर मुक्त कर दिया गया।

अध्यादेश उस समय पास किए जाते हैं जब संसद का सत्र नहीं चल रहा हो और सरकार को किसी मामले में तुरंत कदम उठाना हो। बिना संसदीय मंजूरी के किसी भी अध्यादेश की अवधि सिर्फ 6 माह होती है। लेकिन मोदी सरकार ने अध्यादेश के जरिए कानून बना दिए और इन्हें बिना किसी वोटिंग के कार्यान्वित कर दिया।

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भले ही समिति तो थीं, लेकिन सरकार ने उन्हें काम करने से रोक दिया। सत्ताधारी सांसद नियमावली का हवाला देकर ऐसे मुद्दों की जांच पर अवरोध पैदा कर रहे थे जिनपर सरकार से परेशान किए जाने वाले सवाल पूछे जा रहे थे। कश्मीर मुद्दे पर गृह मंत्रालय की समिति की बैठक उस समय बुलाई गई जब राज्य को पहले ही दो हिस्सों में बांटा जा चुका था। महामारी के बाद स्थाई समितियों को आभासी तौर पर भी बैठक करने से यह कहकर रोक दिया गया कि इससे गोपनीयता भंग होने की आशंका है।

विपक्षी सांसदों के विरोध के बीच ही बीजेपी ने तीन तलाक और आरटीआई (दोनों कानूनों में संशोधन विपक्ष के वॉकआउट के बाद पास किया गया) और सरकार कोअसीमित शक्तियां देते हुए किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने का अधिकार देने वाला यूएपीए संशोधन विधेयक पास कर दिया गया। इसी तरह कृषि कानून, कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने का अधिनियम और नागरिकता संशोधन अधिनियम भी बिना किसी समिति में गहन विचार-विमर्श के ही एकतरफा तरीके से पास कर दिया गया। इन सभी फैसलों और कानूनों से आगे चलकर कई किस्म की दिक्कतें सामने आईं।

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पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के चक्षु रॉय ने लिखा कि आखिर विधायी जांच का परित्याग क्यों एक समस्या थी। उन्होंने लिखा है,

'संक्षेप में कहें तो सभी कानूनों पर संसद का एक समान ध्यान नहीं जाता है। कुछ कानूनों पर संसदीय समितियों द्वारा कड़ी जांच की जाती है। अन्य कानून सदन में एक साधारण बहस के साथ ही पारित हो जाते हैं। जब सत्ता पक्ष और विपक्ष सहमत होते हैं, तो संसद द्वारा सबसे दूरगामी कानून भी आसानी से और जल्द पारित हो जाते हैं। जब कृषि से संबंधित कानूनों जैसे राजनीतिक रूप से विवादास्पद विधेयकों पर असहमति होती है, तो संसद में जल्दबाजी में ऐसे कानून पारित होने के नतीजे में अराजकता हमारे सामने आती है। और इस सबके पीछे और सबसे महत्वपूर्ण कारण सरकार द्वारा किसी विशेष कानून को लागू करने की जल्दबाजी है। जब सरकार जल्दबाजी में होती है, तो संविधान में संशोधन करने वाले विधेयक भी दो से तीन दिनों में पारित हो सकते हैं।

इसके साथ एक और समस्या थी और वह यह थी कि ‘जब संसदीय समितियां विधेयकों की जांच नहीं करती हैं, तो इससे देश के आधे-अधूरे कानूनों के बोझ तले दबने की संभावना बढ़ जाती है।’ इसलिए परामर्श न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि आवश्यक भी है।

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मोदी ने परामर्श की उस परंपरा को उलट दिया जिसका पालन भारत पर शासन के दौरान अंग्रेज़ों ने भी किया था। जब 1917 में जबरन नील की खेती पर कानून बनाने की कवायद शुरु हुई और बिहार-उड़ीसा विधानसभा में चंपारण कृषि विधेयक पेश किया गया, तो कई सदस्यों ने मांग की कि इसे जांच और परीक्षण के लिए सदन की प्रवर समिति को भेजा जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसे स्वीकार किया और गांधी जी से विधेयक की जांच करने का अनुरोध किया गया।

अब जबकि विपक्ष मजबूत है, तो बीजेपी के पूर्ण प्रभुत्व का दौर खत्म हो चुका है। प्रभावी ढंग से शासन करने और सफलतापूर्वक कानून बनाने के लिए मोदी को विपक्ष से संपर्क करना ही होगा। उन्हें फैसलों में विपक्ष को शामिल करना होगा, जैसा कि उनके पहले के प्रधानमंत्रियों ने किया है। जब तक वह ऐसा नहीं करते, और वह इस बात के कोई संकेत नहीं देते कि वह वास्तविकता को स्वीकार करते हैं, तब तक उनके प्रशंसकों की यह नाराजगी बनी रहेगी। जैसा कि कहावत है, गेंद उनके पाले में है।

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