अत्याचार के अंत और समानता की सुबह से हम अभी बहुत बहुत दूर हैं। इस युग में अंधेरा है। लेकिन यही अंधेरा हममें से कुछ को जगाता भी है। हाल में कई महिलाएं ऐसी उठी हैं, जिन्होंने अतीत और वर्तमान के अंधेरे को नामंजूर कर एक क्रांति शुरु कर दी है। स्वतंत्र और समान होने के अधिकार की क्रांति। कहानी शुरू हो चुकी है। यह जरुरी बदलाव की शुरुआत है। अचानक हम देखते हैं, सोलह-सत्रह साल की एक दुबली पतली लड़की ने संयुक्त राष्ट्र के मंच पर महान शक्तिशाली राष्ट्र-नेताओं से कैफियत मांगी- “हाउ डेयर यू?” (आपने यह हिम्मत कैसे की?) और ग्रेटा थन्बर्ग का यह सवाल पूरी दुनिया में गूज उठता है- “हाउ डेयर यू?”
किसी बड़े वृक्ष के नीचे कोई पौधा नहीं पनपता। लेकिन एक दिन हम पाते हैं कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल अपने पति से ज्यादा लोकप्रिय हो गईं। मिशेल ने जब अपने संस्मरण लिखे तो सिर्फ तीन महीनों में उनकी किताब ‘बिकमिंग’ की एक करोड़ प्रतियां बिक गईं। ऐसा क्यों हुआ? मिशेल के पूर्वज जरखरीद गुलाम थे। लेकिन वह अमेरिका की प्रथम महिला बनीं। अपनी पहचान के लिए वह बराक आोबामा पर निर्भर नहीं रहीं। उन्होंने जो काम किए उनकी बदौलत वह स्वतंत्र रूप से प्रसिद्ध हुईं। अपनी चार पहलों के लिए वह जानी जाती हैं।
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ये पहलें हैं- ‘हम चलें’ ‘ऊंचा उठें’, ‘लड़कियों को आने दें’ और ‘सेना का साथ दें’। सैनिकों के परिवारों की वकालत, महिलाओं के करियर और कला को बढ़ावा देने का उनका काम अब भी जारी है। मई, 2014 में मिशेल ओबामा को सीएनएन पोल में 61 प्रतिशत समर्थन था, जबकि उनके पति 43 प्रतिशत पर ही थे। उदार और प्रगतिवादी सोच, स्वास्थ्य और फैशन के साथ-साथ जनपक्षीय संघर्षों की बदौलत मिशेल नई अमेरिकी संस्कृति का प्रतीक बन चुकी हैं। 2006 में उन्हें दुनिया की सबसे प्रेरणादायक पचीस महिलाओं में गिना गया था। ‘वैनिटी फेयर’ ने उन्हें विश्व में सबसे सुंदर कपड़े पहनने वाले दस लोगों में चुना। हार्वर्ड विश्वविद्यालय से निकले सबसे प्रभावशाली सौ लोगों में भी वह गिनी जाती हैं। अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया में वह एक रोल मॉडल हैं। फैशन में तो ट्रेंडसेटर हैं ही, उनकी ज्यादा चर्चा गंभीर योगदान के लिए की जाती है। वह लैंगिक असमानता के खिलाफ भी संघर्ष करती रही हैं। मिशेल उस नई नारी का प्रतीक हैं जो समान लैंगिक हिस्सेदारी और लैंगिक संतुलन की मांग कर रही हैं।
लैंगिक संतुलन हासिल करने का उम्दा उदाहरण हैं, एस्थर डुफ्लो। पति अभिजीत बनर्जी और सहयोगी माइकल क्रेमर के साथ उन्हें अर्थशास्त्र में 2019 का नोबेल पुरस्कार मिला। फ्रांसीसी-अमेरिकी डुफ्लो मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) में गरीबी उन्मूलन अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। वह अमेरिकी आर्थिक अनुसंधान ब्यूरो और आर्थिक विश्लेषण ब्यूरो के बोर्ड की सदस्य हैं। शुरू में डुफ्लो सिविल सेवा या राजनीति में जाना चाहती थीं। लेकिन इतिहास में शोध के अनुभवों से उन्होंने पाया कि दुनिया में बदलाव का माध्यम अर्थशास्त्र है। 1994 में इतिहास और अर्थशास्त्र में स्नातक डिग्री के बाद उन्होंने पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से मास्टर डिग्री प्राप्त की। साल 1999 में उन्होंने एमआईटी से अभिजीत बनर्जी और जोशुआ एग्रीस्ट के अधीन पीएचडी की। वहीं उन्हें सहायक प्रोफेसर नियुक्त किया गया। सिर्फ 29 साल की उम्र में वह एसोसिएट प्रोफेसर बनीं। उन्होंने 120 स्कूलों में शिक्षकों की अनुपस्थिति पर एक प्रयोग किया जिसमें वह अध्यापकों को हर दिन अपने छात्रों के साथ फोटो खिंचवाने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। इससे शिक्षकों की अनुपस्थिति कम हुई।
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साल 2003 में उन्होंने गरीबी के खिलाफ एक प्रयोगशाला स्थापित की जिसकी शाखाएं चेन्नई और पेरिस में हैं। डुफ्लो 2013 में उस नई वैश्विक विकास समिति की सदस्य बनीं जो गरीब देशों में विकास के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को सलाह देती थी। अप्रैल, 2011 में उन्होंने अभिजीत बनर्जी के साथ अपनी पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ का प्रकाशन किया। गरीबी कम करने के क्षेत्र में उनके 15 वर्षों के अनुभव इसमें दर्ज हैं। जहां मैडोना लैंगिक समानता और स्त्री स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की प्रतीक हैं, वहीं डुफ्लो आर्थिक असमानता दूर करने के लिए समर्पित हैं।
लैंगिक असमानता का सबसे विद्रूप चेहरा है, बलात्कार और यौन शोषण। अमेरिका जैसे विकसित देश में भी एक तिहाई औरतें यौन उत्पीड़न अनुभव करती हैं। इसके खिलाफ आवाज उठाना भी एक अपराध है, जिसकी सजा पीड़ित को ही झेलनी पड़ती है। इस कारण यौन उत्पीड़न की शिकार स्त्रियां चुप रह जाती हैं। इस स्थिति के खिलाफ 2006 में तराना बुर्के ने एक आंदोलन शुरू किया था जो ‘मी टू’ नाम से तब चर्चा में आया जब अक्टूबर- 2017 में प्रसिद्ध अमेरिकी अभिनेत्री अलीसा मिलानो ने एक पोस्ट कर स्त्रियों को सुझाव दिया कि वे चुप रहने के बदले #metoo हैशटैग करें।
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इसका उद्देश्य था यौन शोषण की समस्या की व्यापकता का पता लगाना और आवाज उठाने के लिए महिलाओं को जागरुक करना। इस हैशटैग के जरिए महिलाएं जब अपने यौन शोषण की कहानी बताने लगीं तो दुनिया में हंगामा मच गया। बरसों से दबी-छिपी कहानियां बाहर आने लगीं। कई सम्मानित चेहरे, महामहिम, महंत, फिल्मी और राजनीतिक हस्तियां बेनकाब होने लगीं। भारत में केंद्रीय मंत्री और भूतपूर्व पत्रकार एमजे अकबर को इसी के चलते इस्तीफा देना पड़ा। स्त्रियों की इस बुलंद आवाज से उच्छृंखल पुरुष डरने लगे हैं।
इधर, ऐसी महिलाओं की एक श्रृंखला सामने आई है जिन्होंने सदियों से जमी बर्फ को तोड़कर पुरुषों के बनाए कायदों को चुनौती दी है। इनमें एक नाम प्रियंका चोपड़ा का है। भारत की सबसे लोकप्रिय हस्तियों में से एक पद्मश्री प्रियंका अभिनय के लिए कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हुई हैं। ‘टाइम’ तथा ‘फोर्ब्स’ पत्रिकाओं के अनुसार वह दुनिया के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक हैं। वह इंजीनियर बनना चाहती थीं। लेकिन विश्व सुन्दरी चुने जाने के बाद उन्होंने फिल्मों में काम के प्रस्ताव स्वीकार कर लिए। स्त्रियों की पारंपरिक लीक से हटकर कई रोल निभाए। अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में भी उन्होंने सफलता हासिल की।
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अप्रतिम सौंदर्य, जीवंत अभिनय, पुरस्कारों की भरमार इत्यादि ग्लैमर की दुनिया में कई लोगों को मिलते हैं। प्रियंका के कुछ पहलू उन्हें उन कई लोगों से बहुत आगे ले जाते हैं। इनमें एक है सामाजिक कार्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता। नारीत्व की असीम ऊंचाई के साथ प्रियंका आधुनिक जागृति का भी आदर्श हैं। अपनी स्वतःस्फूर्त सक्रियता और चेतना के कारण वह बाल अधिकारों के लिए यूनिसेफ की सद्भावना राजदूत बनाई गईं। पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा और महिलाओं के अधिकारों जैसे सामाजिक मुद्दों पर उनका काम काबिले तारीफ है। लैंगिक समानता और नारीवाद के बारे में वह एक बुलंद आवाज हैं।
18 जुलाई, 1982 को झारखंड के जमशेदपुर में जन्मी प्रियंका के माता-पिता अशोक और मधु सेना में चिकित्सक थे। प्रियंका ने बचपन में आत्मसम्मान की कमी महसूस की। यह कमी दुनिया की अधिकांश स्त्रियां महसूस करती हैं। स्वयं को हेय देखती हैं। प्रियंका उनसे अलग उठीं। बचपन की ग्रंथियों को याद करते उन्होंने कहा था- “मेरे पैरों पर सफेद निशान थे। मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ी। आज मेरे पैर 12 ब्रांड बेचते हैं।” ग्लैमर के क्षेत्र में वह एक सफल व्यवसायी और सर्वश्रेष्ठ नायिका बनीं। गैर-पारंपरिक और महिला-केंद्रित फिल्मों को अपार सफलता दिलाकर उन्होंने ऐसी फिल्मों का मार्ग प्रशस्त किया जिनमें कोई पुरुष प्रधान भूमिका नहीं थी।
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“द प्रियंका चोपड़ा फाउंडेशन” के माध्यम से वह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनपढ़ बच्चों की सहायता करती हैं। इसमें वह अपनी कमाई का दस प्रतिशत देती हैं। भारत में सत्तर बच्चों की पढ़ाई और इलाज का खर्च उठाती हैं। प्रखर नारीवादी के तौर पर वह महिलाओं के मुद्दों, खासकर कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ सक्रिय रही हैं। इसी तरह पर्यावरण रक्षा के लिए वह ‘एनडीटीवी’ की ब्रांड एम्बेसडर हैं। उन्हें स्वच्छता अभियान के नौ रत्नों में चुना गया है। सामाजिक मुद्दों पर योगदान के लिए उन्हें मदर टेरेसा मेमोरियल अवार्ड मिला है। प्रियंका इक्कीसवीं सदी की एक ऐसी महिला हैं, जो समाज के सभी मुद्दों के प्रति संवेदनशील और स्वयं-सक्रिय है। इन्ही कारणों से ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने प्रियंका चोपड़ा को “सबसे मजबूत मानव संपत्ति” और करिश्माई व्यक्तित्व बताया।
इस कड़ी में सबसे नया नाम है सन्ना मरीन का, जो 34 वर्ष की उम्र में ही फिनलैंड की प्रधानमंत्री बनी हैं। उनके 19 सदस्यों वाले मंत्रिमंडल में बारह महिलाएं हैं। यह संख्या चौंकाने वाली है। यहां आस्ट्रेलिया की उस महिला सांसद लारिसा वाटर्स का उल्लेख जरूरी है, जिन्होंने अपने बच्चे को स्तनपान कराने के साथ-साथ संसद को भी संबोधित किया। उनके इस फैसले का अन्य सांसदों ने गर्मजोशी से स्वागत किया। यह एक बदलती दुनिया की सबसे सशक्त तस्वीर है। एक ऐसी दुनिया जिसमें ग्रेटा थम्बर्ग, प्रियंका चोपड़ा, मिशेल ओबामा, मैडोना, अलीसा मिलानो, सन्ना मरीन और ऐसी दर्जनों महिलाएं एक जबरदस्त दस्तक दे रही हैं। उन्होंने मानव-समाज का नेतृत्व करने का पुरुषों का सदियों पुराना वर्चस्व, और मिथ या भरम तोड़ दिया है। वे एक जोरदार दस्तक हैं, उस भविष्य का जिसमें कोई लैंगिक असमानता नहीं होगी और स्त्रियां सृष्टि की सुंदरतम रचना होने के साथ संसार के संचालन में भी पुरुषों से पीछे नहीं होंगी।
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