जनवरी, 2019 में लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर सरकार की अपनी सांख्यिकीय संस्था ने राज्यवार रोजगार पर कुछ चौंकाने वाले आंकड़े जारी किए जो भारत में लगातार बढ़ती बेरोजगारी की चिंताजनक तस्वीर दिखा रहे थे। सरकार ने इस रिपोर्ट को नकार दिया। शीर्ष नीति-निर्माता संस्था नीति आयोग ने घोषणा की कि सर्वेक्षण से मिले आंकड़े शायद सही तरह जमा नहीं किए गए इसलिए सरकार को वे विश्वसनीय नहीं लगते। उनको खारिज किया जाता है। आज की तारीख में जब कोविड दावानल की तरह बढ़ रहा है, हमारी सरकार के पास कारगर नीति बनाने के वास्ते रोजगार, जन स्वास्थ्य, शहरी पलायन या गांव-शहर में अलग-अलग रहने वाले परिवारों की आर्थिक स्थिति की बाबत ताजा, व्यवस्थित, राज्यवार डेटा उपलब्ध नहीं है। 2019 में संभवत: सर पर खड़े चुनावों के मद्देनजर भारत में पहली बार हुए डेटा के राजनीतिकरण ने जो गलतियां कीं, उनकी शक्ल अब धीरे-धीरे उभर रही है।
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पिछली चौथाई सदी से भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से हर 4 या 5 साल में तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) के आंकड़ों के सहारे है। यह संस्था हर 4-5 बरस में राज्यवार स्वास्थ्य सर्वे से मिली जानकारियों के आधार पर बड़ी रिपोर्ट जारी करती आई है। अब तक ऐसे चार बड़े राज्यवार सर्वेक्षण आ चुके हैं। इनसे उजागर जन स्वास्थ्य, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रजनन और मृत्यु से जुड़ा वैज्ञानिक रूप से जमा डेटा तमाम शोधकर्ता देश और संयुक्त राष्ट्र संघ में बेहतरी की नीति गढ़ने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। चौथे सर्वेक्षण के बाद इसको भी रोक दिया गया। तेजी से बदलते हालात में अंतिम उपलब्ध डेटा (2015-2016) बासी पड़ चुका है। जून की शुरुआत में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया था कि भारत में प्रति दस लाख कोविड मरीजों में मरने वालों की औसत दर समुन्नत देशों- यूरोप, रूस या अमेरिका के बरक्स काफी कम (11 फीसदी) है। अब विश्व संगठन के ताजा डेटा से पता चला है कि जून के अंतिम हफ्ते में दक्षिण एशियाई देशों- नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका में भारत में कोविड से मरने वालों की दर सबसे अधिक हो चुकी है। भारत में इस रोग की बढ़त एक ही पखवाड़े में नेपाल को छोड़कर अन्य सभी देशों से आगे निकल गई है। जब राजधानी दिल्ली और मुंबई भी इस रफ्तार पर अंकुश नहीं लगा पा रहे, तब स्वास्थ्य मंत्रालय ने टेस्टिंग बढ़ाए जाने के बाद मिले आंकड़ों को आधार बना कर मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के सामने (शीर्ष संस्था आईसीएमआर के हवाले से) 23 जून की मीटिंग में जो तस्वीर पेश की, वह बहुत चिंताजनक है।
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जब सरकार ने अपने शीर्ष डेटा संकलनकर्ताओं पर सवालिया निशान लगा कर डेटा को सार्वजनिक करने से रोका था, तभी विशेषज्ञों ने आगाह किया था। उनकी राय में सारे का सारा डेटा रद्द करने का मतलब होगा कि आगे से सरकार के नीति-निर्माता महज अपने अनुमान के आधार पर अंधेरे में जुमले फेंकेंगे। जूनके आखिरी पखवाड़े में राजधानी के बड़े कोविड अस्पतालों में तिल रखने की जगह नहीं। कोविड के रोगी और परिवार से हर कोई बिदकता है। इसलिए जब घर पर या एम्बुलेंस में अस्पताल से अस्पताल जाते हुए कई संक्रमित मरीज दम तोड़ देते हैं तो परिजनों द्वारा उनकी मौत की वजह कोविड नहीं दर्ज कराई जाए, यह भी नितांत संभव है। उत्तर प्रदेश को केंद्र से अपने यहां मृत्युदर कम रखने तथा ‘आगरा मॉडल’ बनाने का श्रेय दिया जा रहा है। पर ‘द हिंदू’ की शोध टीम के अनुसार, उसने अन्य राज्यों की तुलना में आपराधिक या सांप्रदायिक मामले हों या कोविड संबंधी सूचनाएं, सभी में उत्तर प्रदेश सरकार की जारी की गई रिपोर्टों में कम पारदर्शिता पाई है। मीडिया की किसी भी नकारात्मक रिपोर्ट पर गौर करने के बजाय हर जगह सरकारी प्रतिक्रिया होती है कि वे राजनीतिक दुर्भावना से प्रेरित हैं।
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राष्ट्रीय आपदा और भ्रम की इन घड़ियों में राष्ट्रीय स्वायत्त प्रसारक संस्था प्रसार भारती के बोर्ड ने भी देश की सबसे प्रमुख संवाददाता एजेंसियों में से एक- प्रेस ट्रस्टऑफ इंडिया (पीटीआई), से जाने क्यों अचानक रार मोल ले ली है। पीटीआई एक न्यास द्वारा संचालित, सम्मानित और प्रोफेशनल तौर से काम करती रही संस्था है। और ऐसी हर स्वायत्त संस्थाका मूल काम होता है, जनहित में हर क्षेत्र से हर तरह की जानकारी और विजुअल जमा करना और उनको अपने नियमित गाहकों को लगातार 24x7 देना। प्रसार भारती बोर्ड को आपत्ति है कि इस एजेंसी ने जिससे वह नियमित रूप से खबरें खरीदती रही है, भारत में चीनी राजदूत और चीन में भारत के राजदूत के दो विवादास्पद साक्षात्कार एक साथ काहे जारी किए? खासकर जब भारत तथा चीन दोनों देशों के बड़े नेताओं के बयानात के बाद सीमा पर तनाव दिनों-दिन गहरा रहा है? उसका यह भी आक्षेप है कि पीटीआई के बोर्ड में अधिकतर मीडिया के लोग भरे पड़े हैं। सच यह है कि आज की तारीख में पीटीआई के बोर्ड में न्यायमूर्ति लाहोटी, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और विदेश सचिव रह चुके कई वरिष्ठ जानकार लोग भी हैं।
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मीडिया अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग कैसे न करे जबकि चीन का रुख लगातार अड़ियल दिखता है, द्विपक्षीय बातचीत का कोई ठोस नतीजा जनता के आगे नहीं लाया जा रहा और नेतृत्व की तरफ से बिना चीन का नाम लिए हम-हमलावर- की-आंख में-आंख-डाल-कर-वाजिब-जवाब-देना-जानते हैं, किस्म ,की घोषणाएं भी कोविड के कारण घर में सिमटी जनता का मनोबल बहुत नहीं बढ़ापा रहीं। संसद का मानसून सत्र भी नहीं हो पा रहा, जिससे सरकार की तरफ से द्विपक्षीय जानकारी सदन के पटल पर आती। ऐसी हालत में यह दु:खद है कि एक स्वायत्त संस्थाका बोर्ड खत लिखकर अन्य स्वायत्त संस्था से कहे कि उसे चीन मसले पर उसकी रिपोर्टिंग राष्ट्रीय हित के खिलाफ (डेट्रिमेंटल टु द नेशनल इंटरेस्ट) लगी है? और यह भी कि बोर्ड पीटीआई से खबरें लेना बंद करने जैसा कदम भी उठा सकता है, जिसकी औपचारिक घोषणा जारी होगी।
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उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रसार भारती इस रुख पर दोबारा विचार करेगा। मीडिया के साथ किसी पार्टी के रिश्ते भी हमेशा बहुत सुखद नहीं होते, और राज्य से केंद्र तक समाचार पत्रों, चैनलों से सरकारों की ठंडी या गर्म लड़ाइयां भी चलती रहती हैं। लेकिन क्या आपको याद आता है कि कोई बड़ी स्वायत्त मीडिया संस्थाया प्रेस काउंसिल पत्रकारों और पत्रकारीय संगठनों की अभिव्यक्ति की आजादी पर देश द्रोह के हवाले से ऐसे सवाल उठाए? फ्री मीडिया में चाहे जितनी भी खामियां हों लेकिन आज देशवासियों ही नहीं, सरकार को भी विश्वस्त प्रोफेशनल लोगों द्वारा तटस्थ नजरिये से लगातार जमा की जा रही सूचनाओं की उतनी ही जरूरत है जितनी भरोसेमंद डेटा की। विश्वस्त जानकारियों के बल पर ही विपक्ष और देश की उस अंतरात्मा को कोंच कर जगाया जा सकता है जिसे गांधी और फिर जेपी के बाद, कोई जागृत, एकजुट नहीं कर पाया।
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पीटीआई और प्रसार भारती दरअसल लोकतंत्र के पेड़ पर बैठे एक शरीर और दो सिर वाले पक्षी की तरह हैं। उनके बीच गलतफहमी हद से बढ़ जाए और एक सर दूसरे सर को ही काटने की सोचने लगे तो उसे यह भी समझ लेना चाहिए कि कहीं यह हत्या आत्महत्या तो नहीं बनजाएगी? बाकी हालात क्या हैं बताने की जरूरत नहीं।
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