विचार

मृणाल पाण्डे का लेखः लगातार खबरें उगल रहे नए मीडिया में गेटकीपरी की दिक्कतें

नई तकनीक आने से खबरों की आवक फील्ड या ब्यूरो से कम, डिजिटल स्रोतों और सोशल मीडिया से अधिक होने लगी है। पाठकों की घटती संख्या और लोगों की डिजिटल के प्रति लगातार बढ़ती रुचि अखबारों की मांग को कम कर रही है।

फोटोः नवजीवन
फोटोः नवजीवन 

मीडिया शोध एजेंसी केपीएमजी के जारी किए आंकड़ों के हिसाब से भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा डिजिटल मीडिया मंडी बन चला है। और इस मंडी का सबसे महत्वपूर्ण बाजार भारतीय भाषाओं का है, जिनमें हिंदी मीडिया (प्रिंट, डिजिटल ई-पेपर और पोर्टल, रेडियो और आउटडोर प्रचार हर अवतार में) अव्वल है। साल 2011-16 के बीच हिंदी मीडिया के इंटरनेट गाहकों की तादाद 41 फीसदी तक बढ़ गई है। और 2021 तक घर-घर, गांव-शहर हर कहीं जा पहुंचे सस्ते स्मार्ट फोनों की कृपा से कुल नेट यूजर्स का तीन चौथाई हिस्सा भारतीय भाषाओं के पास होगा।

उधर, दुनिया भर में प्रिंट मीडिया सिकुड़ रहा है, लेकिन हिंदी में वह अब भी लगातार बढ़ रहा है। लेकिन यह समय खुशी मनाने का नहीं। बेपनाह फैलाव के पीछे कुछ स्याह सच्चाइयां भी छुपी हैं। भारतीय मीडिया बाजार का कामकाजी तरीका, उसकी मिल्कियत, गाहकी, बजट, विज्ञापन तथा प्रति काॅपी दाम के बीच का संतुलन, शेष दुनिया के मीडिया बाजारों से काफी फर्क है। हिंदी प्रिंट तथा डिजिटल रूपों के गाहक 70 प्रतिशत ग्रामीण हैं। लगभग सभी बड़े अखबार बहुसंस्करण हैं। दो सबसे बड़े अखबार- दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर के तो 50 से ज्यादा संस्करण निकल रहे हैं।

Published: undefined

हिंदी मीडिया की मालिकी का सवाल भी जटिल है। फ्रांसीसी गैरसरकारी संस्था- रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स और भारत के संस्थान- मीडिया ओनरशिप माॅनिटर की ताजा संयुक्त रपट बता रही है कि इस समय सबसे बड़े 25 प्रिंट, 23 टीवी खबरिया चैनल, 9 ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ऐसे हैं जिनकी मि ल्कियत 39 कंपनियों और 45 एकल हाथों में सिमटी हुई है। पर ये लोग सिर्फ मीडिया ही नहीं, कई उद्योग-धंधों से जुड़े हैं और क्षेत्रवार हर तरह की प्रिंट या डिजिटल सामग्री ही नहीं, उसके वितरण के संसाधनों के भी मालिक होने के पीछे बड़ी हद तक उनके अपने और कुछ राजनैतिक दलों के हित काम कर रहे हैं। कुल में से 10 मालिक तो सीधे या परोक्ष राजनीति से जुडे हैं। कुछ खुद राजनेता हैं, कुछ ने इस बाबत जानकारी देने से इनकार कर दिया।

इस तरह बेपनाह ताकत के दो केंद्रों- राजनीति और एकाधिकारवादी होते बाजार, से भारतीय मीडिया का प्याज की परतों की तरह एक गुप्त भीतरी जुड़ाव बन गया है। और अचरज नहीं कि अधिकतर मालिक बहुमीडिया मालिकी, यानी क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर रोक के खिलाफ हैं। इससे मीडिया का बाजार छोटे क्षेत्रीय खिलाड़ियों के लिए आज समतल नहीं रहा। और मीडिया की नियुक्तियां संपादकीय कामकाज तथा खबरों की तटस्थता पर भी इसका असर स्वस्थ नहीं है। देश में आज 250 एफएम स्टेशन तो हैं, लेकिन वे खबरें नहीं दे सकते। सिर्फ ऑल इंडिया रेडियो को ही यह हक है। यानी, रेडियो की खबरों पर पूरा सरकारी नियंत्रण है।

Published: undefined

भारतीय मीडिया में पूंजीपति आधिपत्य पर बहस नेहरू युग से ही चलती रही है जब संसद में जूट प्रेस, स्टील प्रेस आदि पर तंज कसे जाते थे। पर आज वह भी नहीं होता। वजह यह कि लगभग सारा बड़ा मीडिया, रिलायंस, आदित्य बिरला समूह, बेनेट कोलमेन, हिंदुस्तान टाइम्स, लिविंग मीडिया तथा ओस्वाल ग्रींटेक (एनडीटीवी) सरीखे बड़े समूहों द्वारा संचालित है। बाहरी बड़ी कंपनियों में एमटीवी, सोनी, स्टार टर्नर, और सीएनएन-सरीखी कंपनियों की भी मुख्यधारा मीडिया में आज बड़ी भागीदारी है। इस नई मालिकी में गैरमुनाफा कंपनियां या न्यास-संचालित अखबार गायब होते गए हैं।

साथ ही, संपादकीय विभागों से बोर्ड तक दलितों-महिलाओं की उपस्थिति भी गायब है। मीडिया संस्थानों के बोर्ड में निर्माण कंपनी मालिक, वेंचर कैपिटलिस्ट और बड़े काॅरपोरेट घरानों के सदस्य ज्यादा हैं, संपादकीय क्षेत्र लगभग गायब है। इनके लिए टॉपलाइन नहीं, बॉटम लाइन का महत्व है। इसलिए संपादकों की नियुक्ति से लेकर खबरों की प्राथमिकी सब प्रभावित होते हैं। एक समय था जब पेड न्यूज कलंक मानी जाती थी। अब सूचना प्रसार मंत्री कहते हैं कि पेड न्यूज खतरा नहीं, असल खतरा फेक न्यूज है!

Published: undefined

नई तकनीकी आने से खबरों की आवक फील्ड या ब्यूरो से कम, डिजिटल स्रोतों और सोशल मीडिया से अधिक होने लगी है। सितंबर, 2016 में जियो का 4जी साथ में 60 करोड़ स्मार्टफोन लाया। तब से खबरों का इलाका द्विपक्षी बनता गया। आज हिंदी में ही 25 करोड़ फेसबुकिये और 20 करोड़ वाट्सएप, ट्विटर और टिकटॉक यूजर हैं। एक स्मार्टफोन+ कैमरा+ ब्लूटुथ हो, बस, आप बन गए खबरी। पुराने न्यूज रूम छंटनियों के शिकार होते जा रहे हैं। गए साल देश की शीर्ष द्विभाषी कंपनी ने 1000 कर्मी बाहर किए, तो इस साल डीएनए, डीएलए-सरीखे अखबार और तिरंगा टीवी चैनल बंद हुए। चर्चित नमो टीवी जो पहले यू ट्यूब पर, फिर टाटा स्काई पर धमाल किए था, भी यकायक बंद हो गया।

बहुत तेजी से फैल रहे अपुष्ट स्रोतों से लगातार खबरें उगल रहे इस नए मीडिया में निरंतर गेटकीपरी की अपनी दिक्कतें हैं। उधर, सरकार का बजट हिंदी के प्रति सदय होता गया है और अंग्रेजी मीडि या की तुलना में पिछले कुछ सालों से सरकार का हिंदी मीडिया के लिए डीएवीपी इश्तहारों का सालाना बजटीय आवंटन अधिक होता गया है। सभी राजनैतिक दल आज हिंदी-अंग्रेजी में सोशल मीडिया का खुला प्रयोग कर रहे हैं। उधर सरकार का मीडिया से रिश्ता शीर्ष नेतृत्व और उसके बीच बढ़ती दूरी दिखा रहा है। पुरानी चाल के नियमित प्रेस साक्षात्कार बंद हैं, बस खास भरोसेमंद मीडिया को ही साक्षात्कार दिए जा रहे हैं। इकतरफा मन की बात हर हफ्ते सुन लीजिए, सवाल मत पूछिए। मंत्रालयों के दरवाजे भी पत्रकारों की सहज आवाजाही को बंद कर रहे हैं।

Published: undefined

अखबारों के सालाना जलसे ही कुछ एक्सक्लूसिव खबरें निकलवा लें तो ठीक, वरना आप सरकारी प्रपत्रों की शरण लें। अखबारों का विज्ञापन बंद करना, कार्यकुशल पर आजाद तेवरों के चलते नापसंद संपादकों की हठात् विदाई भी अब अचरज नहीं जगाती। 2014-2019 के बीच काफी उलट पलट हुई है। कभी सरकार से जवाबदेही करने वाला मीडिया अब खुद जवाबदेह मालिकान के खिलाफ ईडी छापे, पत्रकारों के खिलाफ मानहानि पर आपराधिक आरोप या नए देशद्रोह कानून के साये तले जी रहा है। जीडीपी डाटा, डाटा गणना बदल दिए गए। 100 अर्थशास्त्रियों का विरोध पत्र दबा रहा। नोटबंदी, कालाधन की अ-वापसी की खास व्याख्या नहीं हुई। आज आजाद पत्रकारिता की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में चार सीढ़ी नीचे 180 देशों में हम 140वीं पायदान पर हैं।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined