हर तरफ नफरत का शोर है। नफरत सड़कों पर, ट्रेनों में, मोहल्लों में, महानगरों में हिंसा के रूप में दिख रही है। नफरत बाजार में भी पसर रही है। कहीं वेशभूषा, तो कहीं हलाल और झटका का शोर है। बहुत सारे लोगों को लगा था कि वाट्सएप और टेलीविजन पर दिन-रात चलने वाली हिन्दू-मुसलमान बहस सोशल मीडिया और टीवी तक ही सीमित रहेगी। ऐसा हुआ नहीं।
नफरत के लिए सिर्फ टेलीविजन चैनल और सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहरा देना उन बातों से आंख चुराना होगा जो इनकी जड़ों में हैं। नफरत महज व्यक्ति की व्यक्ति से नहीं है। यह सामूहिक और सामुदायिक नफरत है। यह राजनीतिक विचार है। इसे बढ़ाने और पनपाने में उन लोगों की असल भूमिका है जो सत्ता की अलग-अलग जगहों पर हैं।
ऐसे में कई बार ऐसा अहसास होता है कि हम चारों ओर नफरत से घिर चुके हैं। खासकर मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय माहौल में इसका ज्यादा अहसास होता है. …और मीडिया और सोशल मीडिया पर यह और बढ़ जाता है।
पिछले दिनों नफरत और हिंसा पर एक टिप्पणी के बाद कई सारे दोस्तों ने अपनी कुछ प्रतिक्रियाएं भेजीं। कुछ ने अपने अनुभव साझा किए। ये अनुभव बताते हैं कि हम साझेपन में कैसे रहते आए हैं और आज भी कैसे रह रहे हैं। ये अनुभव हमें आज के हालात के बारे में, अपने बारे में सोचने पर मजबूर करते हैं। ये इस हालात से निकलने में भी मदद कर सकते हैं।
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अनुराग पत्रकार रहे हैं। अब बिजनेस करते हैं। उनकी राय है, जो हो रहा है, वह कैसे हो रहा है, क्यों हो रहा है, पता नहीं। मेरे गांव में दो-तीन मुसलमान परिवार ही होंगे। इनमें से एक दर्जी का काम करते हैं। अभी मेरे पिता जी तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे। उन्होंने ही पूरे कपड़े सी कर दिए। कभी कोई बात नहीं हुई। मैं उनकी बात सिर्फ इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैं बचपन से उनकी दुकान पर बैठता रहा हूं।
अभी हाल में मैंने एक नया काम शुरू किया है। हमने जो फैक्ट्री किराये पर ली है, वह एक मुसलमान की है। पहले ये फैक्ट्री उनके रिश्तेदार चलाते थे। अब मैं और मेरे मित्र ज्ञान मिलकर चला रहे हैं। सवाल वही है, ये कौन लोग हैं जिनमें एक-दूसरे के लिए इतनी नफरत है।
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प्रगीत शर्मा राजस्थान के रहने वाले हैं। इंजीनियर बनने की पढ़ाई की। अपने मन का काम करना था, तो खुद का काम शुरू किया- हैंडमेड फैशन ज्वेलरी के एक्सपोर्ट का। उनका व्यापार मुसलमानों के इर्द-गिर्द ही खड़ा हुआ। वे बताते हैं, जिस दादरी में अखलाक की हत्या हो गई थी, उसके पास के एक गांव से मेरा वास्ता है। मेरे साथ काम करने वाले सभी कलाकार-दस्तकार मुसलमान हैं।
हालांकि, न तो मैं उन्हें मुसलमान के रूप में देखता हूं और न वे मुझे विधर्मी के रूप में। उनका हुनर, आपसी भरोसा और यकीन ही हमारे रिश्ते का आधार है। बड़ी संख्या में गांव की लड़कियां इस काम से जुड़ी हैं। कभी किसी को कोई एतराज नहीं हुआ।
यही नहीं, रिश्ते का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब उनके बीच कोई आपसी विवाद होता है या उनकी निजी जिंदगी में कोई परेशानी आती है, तो वे पहले मुझसे बात करने की कोशिश करते हैं। मैं उनके लिए भाई साहब हूं। यही नहीं, एक बार की बात है। ऑर्डर बाहर जाना था। काम पूरा नहीं हो पा रहा था। तो सब ने मिलकर ईद के दिन भी काम पूरा किया। अगर उन्हें काम मिल रहा है, तो मैं भी आज जो हूं, उनकी वजह से ही हूं।
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मेरे इस भरोसे और यकीन को अक्सर चुनौती दी गई। कई नजदीकी कहते हैं कि इन पर इतना भरोसा ठीक नहीं, धोखा खाओगे। एक किस्सा बताता हूं। जब मेरा उस गांव से रिश्ता मज़बूत हुआ, तो दोस्तों के लाख मना करने के बावजूद मैंने वहीं एक जमीन भी खरीद ली। मैं नोएडा में रहता हूं। एक दिन अचानक मेरे पास खबर आई कि मेरी जमीन पर हंगामा हो रहा है। एक तरफ हिन्दू खड़े हैं और दूसरी तरफ मुसलमान। हिंसा की हालत बन रही है।
पड़ताल की, तो पता चला कि मेरी जमीन से सटे एक साहब की जमीन है। उन्होंने अपना खेत जोतते हुए मेरी जमीन के कुछ हिस्से भी जोत दिए। जब गांव के एक व्यक्ति ने देखा, तो उसने टोका। उन्होंने कहा कि तुम्हें इससे क्या मतलब? क्या यह तुम्हारी जमीन है? और वे कौन सा देखने आ रहे हैं? इस बीच और गांव वाले भी जुट गए।
उन्होंने कहा कि यह भाई साहब की जमीन है, हम जोतने नहीं देंगे। काफी हंगामे के बाद मेरी जमीन बची। जोतने वाले को आप हिन्दू कह सकते हैं और बचाने वाले को मुसलमान। लेकिन मेरा मानना है कि अच्छाई-बुराई इंसानी फितरत है। इसका धर्म से लेना देना नहीं है। इंसान, इंसान ही रहता है... हम उसे हिन्दू-मुसलमान के रूप में देखते हैं। हम यही नहीं समझना चाहते।
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आजमगढ़ के बिलारी बढ़या के सामाजिक कार्यकर्ता राजदेव चतुर्वेदी अपना अनुभव सुनाते हैं-
मेरे बचपन की बात है। हमारे गांव में केवल एक मुसलमान परिवार था। इसके मुखिया दरगाही बाबा थे। आजीविका का साधन खेती-बाड़ी थी। कभी-कभी वे गांव के मांसाहारी परिवारों के लिए बकरे काट कर भी बेचते थे। उनके एक अनाथ रिश्तेदार रज्जाक साथ में ही रहते थे। हम ब्राह्मण माने जाने वाले परिवार से थे। पिता जी पुरोहिती का काम भी करते थे। हम और हमारी बड़ी बहन छोटे थे।
पिता जी ने रज्जाक को हमलोगों की देखभाल के लिए अपने पास रख लिया। वे घर के दूसरे काम भी करते थे। वे हमारी मां को भौजी और बाबू को भइया कहते थे। इसलिए अब वे हमारे रज्जाक चाचा हो गए थे। मां बताती थीं कि रज्जाक चाचा पिता जी के साथ ही भोजन करते थे। यदि पिता जी को भोजन करने में देर होती, तो रज्जाक चाचा भी खाना खाने से मना कर देते थे। कहते कि भइया आ जाएंगे और जब भगवान का भोग लग जाएगा, उसके बाद ही साथ में भोजन करूंगा। बाद में वे कहीं चले गए।
दरगाही बाबा के एक लड़के सुक्खु थे। वे हमारे पिता जी को बड़का बाबू और मां को बड़की माई ही कहते थे। सुक्खु दादा के तीन लड़के हैं। एक बेटा शब्बीर गांव में ही रहता है। आर्थिक हालत अच्छी नहीं है। हमारे घर से अच्छे संबंध हैं। घर पास में ही है। रोज सुबह-शाम मिलना होता है। हमें बड़का भइया और पत्नी को बड़की भौजी कहते हैं। हमारी पत्नी और बेटियों को शब्बीर के बच्चों का बड़ा ख्याल रहता है। हमारे गांव में तो उनसे किसी को परेशानी नहीं है।
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दीपक ढोलकिया 75 साल के हैं। वह लंबे अरसे तक आकाशवाणी के समाचार प्रभाग से जुड़े रहे। वह एक किस्सा बताते हैं-
बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के नानपारा से मेरी सास मनोरमा जी को दिल्ली आना था। घर के बरामदे से उन्होंने किसी को आवाज दी कि रिक्शा भेज दे। रिक्शा आया नहीं, तो वह गली में आ गईं। सड़क पर देखा, तो एक ओर मुसलमानों का हुजूम खड़ा था और दूसरी ओर हिन्दुओं का। उनको समझ में नहीं आया कि क्या हो रहा है? इनमें कई चेहरे जाने-पहचाने थे। इतने में मुसलमान भीड़ में से एक लड़का उनके पास आया। बोला, ‘अम्मा जी, यहां क्यों खड़ी हैं? जाइए घर में…।’
उसकी आवाज में अपनेपन की डांट थी। मनोरमा जी ने कहा कि ‘बेटे मुझे बस पकड़नी है और रिक्शा नहीं आ रहा।’ लड़के ने कहा कि ऐसे में रिक्शा वाला यहां कैसे आएगा? आप रुकिए, मैं लाता हूं। वह थोड़ी देर में रिक्शा ले कर आया। अम्मा जी ने बैठते हुए पूछा, तुम लोग क्या कर रहे हो? लड़का भड़क कर बोला, ‘अम्मा जी, हिन्दुओं ने हमारी मस्जिद गिरा दी है। हम भी बरादाश्त नहीं करेंगे।’ फिर उसने रिक्शे वाले को कहा कि पीछे की गली से अम्मा जी को बस स्टेशन पहुंचा दो। इधर रिक्शा मुड़ रहा था और लड़का मुसलमानों के हुजूम में शामिल हो गया। वैसे, नानपारा में कुछ नहीं हुआ।
एक हाशिम थे। उनका पान आपने खाया नहीं है। मैंने खाए हैं। दामाद जी के पान के पैसे कैसे लेता? कभी नहीं लिए। विरोध में शामिल होने के लिए उसने भी दुकान बंद रखी थी। दोनों ओर से भीड़ छंट गई। हाशिम ने फिर से दुकान खोल ली।
आज नानपारा में कोई नहीं है। मेरी पत्नी का पुश्तैनी घर भी बिक चुका है। लेकिन मेरी इच्छा होती है कि नानपारा जाऊं। जानूं कि क्या मैं उसी नानपारा में वापस आया हूं या कोई नया नानपारा है?
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