अभिजीत एक बार दिल्ली की झोपड़ पट्टियों के लोगों से पूछते हैं कि उन्हें यहां क्या पसंद है। उन लोगों को दिल्ली की कई बातें अच्छी लगती हैंः बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा के तमाम विकल्प हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हैं, रोजगार पाना आसान है। हां, यहां की आबोहवा उन्हें अच्छी नहीं लगती। इसमें आश्चर्य की बात नहीं। दिल्ली दुनिया की उन चंद बदनाम जगहों में है जहां की हवा सर्वाधिक दूषित है। उनके रहन-सहन से जुड़ी किन परिस्थितियों को वे बदलना चाहेंगे, इसके जवाब में 69 फीसदी ने नालियों और सीवर का नाम लिया तो 54 फीसदी ने कचरा नहीं हटाने को लेकर नाखुशी जताई।
बंद पड़ी नालियों, सीवर न होने और कचरे के ढेर के कारण भारत और दुनिया के अन्य इलाकों की झुग्गी-झोपड़ियों में एक अजीब सी सड़ांध रहती है। जाहिर है, इन झुग्गियों के लोग परिवार को अपने साथ रखने से कतराते हैं। इसके उलट, जब यह सड़ांध असहनीय हो जाती है, तो वे खुद भी घर लौट जाते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर लोग झुग्गियों में रहते क्यों हैं? वे किसी अच्छी जगह पर किराये पर क्यों नहीं रहते? स्थिति यह है कि अगर वे सक्षम होते हैं, तो भी यह विकल्प उनके लिए नहीं।
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तमाम विकासशील देशों में झुग्गियों की जगह एक छोटा-सा फ्लैट भी बूते के बाहर होता है। इसकी वजह है। विकासशील देशों के ज्यादातर शहरों में मौजूदा आबादी के लिए ही बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से 2040 के बीच भारत को अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए 4.5 खरब अमेरिकी डॉलर की जरूरत होगी, जबकि केन्या को 223 अरब और मेक्सिको को 1.1 खरब डॉलर की। इसका मतलब है कि अधिकतर शहरों में छोटे-छोटे इलाके ही होंगे, जिनमें बढ़िया बुनियादी सुविधाएं हों और इसी वजह से यहां जमीन की कीमतें आसमान छूती हैं।
उदाहरण के लिए दुनिया में चंद सर्वाधिक महंगे इलाके भारत में हैं। निवेश की कमी के कारण शहर का बाकी इलाका अनियमित तरीके से विकसित होता है और इन स्थितियों में गरीब आबादी आम तौर पर खाली पड़ी जमीन पर जा बसती है जहां न सीवर होता है और न पानी की पाइपलाइन। उन्हें पता होता है कि चूंकि ये जमीन उनकी नहीं है, उन्हें कभी भी हटाया जा सकता है, लिहाजा वे अस्थायी घर बना लेते हैं, जो चमक-दमक भरे शहर के लिए धब्बे की तरह होते हैं।
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विकासशील देशों की झोपड़पट्टियां ऐसी ही होती हैं। एड ग्लीजर ने अपनी बेहतरीन पुस्तक ‘ट्रियम्फ ऑफ दि सिटी’ में लिखा है कि स्थिति को टाउन प्लानरों ने और भी खराब कर दिया है जो शहर को हरा-भरा रूप देने की जगह मघ्यवर्ग के लिए बहुमंजिली इमारतों की बगल में घनी आबादी बसाने पर जोर देते हैं।...
कम आय वाले प्रवासियों के लिए इस तरह की खराब नीतियां मुश्किल हालात पैदा कर देती हैं। अगर वह भाग्यशाली है तो किसी झुग्गी में ठिकाना पा सकता है, काम की जगह तक पहुंचने के लिए घंटों की यात्रा कर सकता है या तो वह हालात से लाचार होकर जहां काम करता है, उसी इमारत की फर्श पर सो सकता है; जिस रिक्शे को चलाता है, उसी पर सो सकता है; जिस ट्रक पर काम करता है, उसके नीचे सो सकता है या तो जिस फुटपाथ पर अपना खोखा वगैरह लगा रखा है, वहीं रात बिता सकता है।... अकुशल प्रवासियों को पता होता है कि शुरू में उन्हें वही काम मिल सकता है जिसे कोई करना न चाहता हो। अगर आपको किसी ऐसी जगह छोड़ दिया जाए जहां कोई विकल्प न हो तो आप उसी में गुजारा करेंगे। बड़ा मुश्किल होता है अपने परिवार-दोस्तों को छोड़कर दूर जाकर किसी पुल के नीचे सोना, फर्श साफ करना।...
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सभी विकास सिद्धांतों का केंद्रीय भाव है कि संसाधन उस ओर लगते हैं जहां उनका अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल हो सके। जब तक बाजार सही तरीके से काम करते हैं, यही स्वाभाविक अवधारणा होती है। उत्कृष्ट कंपनियों को उत्कृष्ट लोगों की सेवाएं लेनी चाहिए। जमीन के सर्वाधिक उपजाऊ टुकड़ों पर सर्वाधिक सघनता के साथ खेती होनी चाहिए, जबकि कम उपजाऊ टुकड़ों का उपयोग उद्योगों के लिए होना चाहिए। जिनके पास उधार पर देने के पैसे हैं, उन्हें सर्वोत्कृष्ट उद्यमियों को पैसे देने चाहिए। लेकिन यह हमेशा सच नहीं होता। कुछ कंपनियों के पास जरूरत से अधिक कर्मचारी होते हैं, जबकि कुछ नियुक्ति की स्थिति में नहीं होतीं। कुछ उद्यमियों के पास जबर्दस्त आइडिया होते हैं, लेकिन इन्हें जमीन पर उतारने के पैसे नहीं होते, जबकि कुछ लोग जो कर रहे होते हैं, उसमें दक्ष नहीं होने के बावजूद उसे जारी रख पाते हैं। माइक्रो इकॉनोमिक्स में इसे त्रुटिपूर्ण आवंटन (मिस ऐलोकेशन) कहते हैं।...
भारत की अर्थव्यवस्था ऐसी है जिसमें संभावित उद्यमियों की बड़ी संख्या है और तमाम ऐसे अवसर हैं जिनका उपयोग किया जाना बाकी है। अगर यह सही है, तो भारत की चिंता यह होनी चाहिए कि क्या होगा जब ये अवसर खत्म हो जाएंगे। दुर्भाग्य से, जैसा कि हम नहीं जानते हैं कि विकास कैसे किया जाता है, इसके बारे में भी हमें बहुत कम जानकारी है कि कुछ देश क्यों अटक गए और कुछ क्यों नहीं अटके या कोई देश इसमें से कैसे बाहर निकलता है। दक्षिण कोरिया क्यों बढ़ रहा है और मेक्सिको ऐसा क्यों नहीं कर पा रहा है।
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वास्तविक खतरा इस बात का है कि तेज विकास के चक्कर में भारत ऐसी नीतियों पर न चल पड़े जिसमें भावी विकास के नाम पर गरीबों को संकट का सामना करना पड़े। विकास की दर बनाए रखने के लिए “व्यापार अनुकूल” होने कीआवश्यकता को वैसे ही परिभाषित किया जा सकता है जैसा रीगन-थैचर युग में अमेरिका और ब्रिटेन में होता था, यानीअमीरों का पक्ष लेने वाली नीतियां जो गरीब-विरोधी हों और व्यापक जन समुदाय की कीमत पर कुछ खास लोगों को समृद्ध करती हों।
अगर अमेरिका और ब्रिटेन के अनुभव कोई संकेत हैं तो इस उम्मीद में कि अमीरों की दी जाने वाली सहूलियतें अंततः घट जाएंगी, गरीबों को मौजूदा मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार किया जाए, इससे न तो विकास बढ़ेगा और न गरीबों का भला होगा। किसी ठहरी हुई अर्थव्यवस्था में असमानता विस्फोट विकास के लिए बहुत बुरे नतीजे लेकर आ सकता है, क्योंकि राजनीतिक प्रतिरोध के कारण चुनाव में ऐसे लोकलुभावन नेता निर्वाचित हो जाते हैं, जो समस्याओं का चमात्कारिक हल निकालते हैं लेकिन यह काम नहीं करता और अक्सर वेनेजुएला जैसे संकट का कारण बन जाता है।...
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2015 में केवल 23 फीसदी अमेरिकी सोचते थे कि वे ‘हमेशा’ या ‘ज्यादातर मौकों पर’ सरकार पर भरोसा कर सकते हैं। 59 फीसदी सरकार के बारे में नकारात्मक विचार रखते थे। 25 फीसदी सोचते थे कि सरकार के पास ऐसा उपाय नहीं कि अमीर-गरीब के बीच अवसर असमानता की खाई को पाट सके, जबकि 32 फीसदी मानते थे कि अवसर समानता बढ़ाने के लिए गरीबों को केंद्र में रखकर बनाई गई योजनाओं के लिए पैसे की व्यवस्था के लिए कर बढ़ाने से बेहतर है धनी लोगों और कंपनियों पर कर कम करके उन्हें निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाए। जो सबसे ज्यादा जरूरतमंद हैं, उनमें सरकार के काम पर अविश्वास सबसे बड़ी समस्या है।...
पंजाब के युवा मंत्री मनप्रीत सिंह बादल का राजनीतिक करियर इसी वजह से डगमगा गया। पंजाब के किसानों को मुफ्त बिजली मिलती है। भूजल मुफ्त है और इसका नतीजा यह हुआ कि हर किसी ने अपनी जमीन की इतनी बेदर्दी से सिंचाई की है कि वहां जलस्तर तेजी से गिरता जा रहा है और स्थिति यह है कि कुछ ही वर्षों में वहां जमीन से निकालने के लिए पानी ही नहीं बचेगा। अब हर किसी के भले के लिए जरूरी है कि पानी की खपत कम करें। बादल ने इसका जो हल निकाला, उसमें उन्होंने इस आधार पर बिजली का शुल्क लेना शुरू कर दिया कि बाद में हर किसी को क्षतिपूर्ति के तौर पर तय राशि दी जाएगी। बादल की सोच थी कि इससे किसान अपनी जरूरत से अधिक पानी नहीं निकालेंगे क्योंकि उन्हें पंप चलाना होगा और इसमें बिजली का पैसे लगेगा।
आर्थिक नजरिये से इसका कोई तुक नहीं था, लेकिन राजनीतिक तौर पर यह खुदकुशी जैसा हो गया। जनवरी, 2010 में यह स्कीम शुरू हुई और दस माह बाद ही इसे वापस लेना पड़ा। वित्त मंत्री के तौर पर बादल की कुर्सी गई और उन्हें अपना दल बदलना पड़ा। किसानों को भरोसा ही नहीं हुआ कि उन्हें पैसे मिलेंगे और उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। खैर, 2018 में बादल फिर सरकार में आए और इसे फिर आजमाया। इस बार उन्होंने पहले ही हर किसान के खाते में 48 हजार रुपये डालने और फिर उसी से बिजली के पैसे काटने का फैसला किया।... लेकिन किसानों को संदेह है कि सरकार का वास्तविक एजेंडा बिजली सब्सिडी खत्म करने का है। आखिर लोग सरकार के प्रति इतने सशंकित क्यों हैं?
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