बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी की राजनीति एक गर्म राजनीति है जिसका झुकाव चुनाव सामने आते ही एक अचरज भरे तरीके से अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी की ही तरह का हो जाता है। वही उग्र सड़क छाप नारेबाजी, वही दो-दो हाथ करने को अकुलाते कार्यकर्ता। बंगाल की जनता को वाम दलों के खिलाफ एक लंबा और खतरों भरा संघर्ष छेड़कर उनको सत्ता से दरबदर कराने वाली ‘दीदी’ से देश और बंगवासियों ने ढीली प्रशासनिक चूड़ियां कसने और आर्थिक निवेश की भागीरथी वापस लाने की बड़ी आस लगाई थी। इसीलिए बरसों तक एक आसान किंतु बांझ, आशावाद बेचते रहे वामदलों को 2011 में नकार दिया।
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पर कोविड और हालिया साइक्लोन की मार से आज बंगाल बेहाल है। दीदी हमेशा की तरह आपदा देखकर तुरंत खुद सड़कों पर उतर आई हैं, लेकिन जनता, खासकर तटीय क्षेत्र के सुंदरबन इलाके और 24 परगना जिले के हालात बहुत बुरे हैं। इस सबके मद्देनजर बीजेपी को पक्की उम्मीद बंध रही है कि वह जिस तरह 2011 में वाम दलों के शासन के अंतिम 5 सालों में ‘पोरीबौर्तोन’ की खोज में बंगाल के सनातन विद्रोही मस्तिष्क को ममता ने तृणमूल की तरह मोड़ लिया था, उसी तरह रथी शाह और धनुर्धारी मोदी के जगन्नाथी रथ से रिझा कर बीजेपी बंगाल में भगवा नवोन्मेष, ‘हिंदू रेनेसां’ ले आएगी।
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2014 तक बंगाल और असम- ये दो बड़े पूर्वी राज्य बीजेपी की जद से बाहर थे। जोड़तोड़ में माहिर बीजेपी के मुख्य रणनीतिकारों ने असम में कांग्रेस से खिन्न हेमंत बिस्व सरमा और तृणमूल से उखड़े मुकुल रॉय को पूर्वी भारत में अपनी सीटें बढ़ाने के लिए अपना खासउल खास क्षेत्रीय कमांडर बनाया। प्रयोग लह गया और बंगाल में 42 में से 18 लोकसभा सीटें बीजेपी ले उड़ी। तब से दीदी और केंद्र के बीच सौमनस्य घटता चला गया, पर निडर और करिश्माती जन नेता होते हुए भी ममता की शैली गर्जन-तर्जन भरी ही बनी रही और केंद्र से उनकी झड़पें संवाद का स्थायी हिस्सा बनी रही हैं।
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ममता का अवतरण 2011 में जब वामपंथियों के सपनों का साम्यवादी राज्य उजड्ड कार्यकर्ताओं के कारनामों से विकृत फासिज्म का रूप लेने लगा तो हुआ। तब उनकी इसी शैली और निडर साफगोई ने भावुक बंगालियों को एक करंट की तरह छुआ और जन नेत्री के रूप में एक गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई क्षेत्रीय दुर्गा का मिथक उनके गिर्द रंग पकड़ने लगा। लेकिन लोकप्रियता की ऐसी अद्वितीय परिस्थितियां ही जाने क्यों जीत के बाद अक्सर हमारे जन नेताओं के मनोविश्व को असामान्य बना देती हैं। अजीब बात है कि जो लोकप्रिय नेता हर विशाल जनसमूह से इतनी आत्मीयता से बतियाते हैं, उनको निजी जीवन में किसी पर इतना भरोसा नहीं होता कि वे जनता से बेझिझक बात या अपने आलोचकों से खुली बहस कर उनके प्रतिवाद सहन करते हुए ठंडे तर्क संगत जवाब दें। ऐसे लोग तमाम दलगत या प्रशासकीय फैसले निजी अंत: प्रवृत्तियों के आधार पर ही लेते और उनको दबंगई से लागू कराते हैं। दुर्लभ बहुमत से दलों को सत्ता में लाने वाले नेतृत्व की पकड़ इधर कोविड की महामारी, पर्यावरण के घातक असामान्य बदलावों के बाद भी बदलती नहीं दिखती। उल्टे सारी ताकत अपने ही हाथों में थामने वाला नेतृत्व नीतिगत विचार-विमर्श ही नहीं, कानून और व्यवस्था से जुड़े नाजुक सरकारी फैसले भी दल तथा प्रशासनिक टीम के साथ बैठकर तय करने की बजाय मौखिक आदेशों से ही निबटा रहा है। जब भारी आपात्काल सामने खड़ा हो, सीमाएं सुलग उठी हों और पड़ोसी देशों की सेनाएं चीलों की तरह मंडरा रही हों, तो उस समय खलीफा हारून-अल-रशीद की तरह टीवी कैमरों के सामने भोंगा लगा जनता को संबोधित कर ऐसे नेता एक खतरनाक सतही तेजी से हर शत्रु को, वह विदेशी हो या दलगत, डपटते दिखते हैं। इससे नाटकीय खबरें भले बनती हों लेकिन न लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षय रुकता है, नहीं स्वास्थ्य कल्याण ढांचे या स्कूली शिक्षा बेहतर होती है।
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विडंबना देखिए, जिस शैली ने कभी ममता के विश्वस्त रहे मुकुल रॉय को बीजेपी के खेमे में भेजा, बीजेपी की वही शैली उनको इतना खिन्न बना चुकी है कि (अगर कुछ विदेशी अखबारों की खबरें सही हैं तो) वह पुन: ममता दीदी के खेमे में जाने का मन बना रहे हैं। उनकी खिन्नता की मूल वजह यह है कि लोकसभा चुनावों में बीजेपी की सीटों में उम्मीद से अधिक बढ़ती करवाने के बाद भी सारा श्रेय पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष की झोली में गया। उनको कुछ छींटे भी नहीं मिले, तृणमूल के पुराने साथियों के बीच पार्टी विभीषण होने का अपयश कमाया सो कमाया। चलिए, यह भी समय के साथ समझदार लोग झेल लेते हैं। लेकिन जब राज्य बीजेपी की अध्यक्षता का ताज देने की बारी आई, वह उनके पुराने आलोचक दिलीप घोष को पहनाया गया। खुद रॉय बाबू को राज्यसभा सीट तक न मिली। खबर आई है कि पुराने क्रिकेट कप्तान को बीजेपी ज्वॉइन करने और राज्यसभा में आने का खुला ऑफर मिला है। यही नहीं, मध्य प्रदेश से लेकर बंगाल तक के कई और पुराने दल भक्त भाजपाई भी जानकारों की राय में इस बात से खिन्न हैं कि विपक्ष से तोड़कर लाए गए विगत चुनावों में उनके मुखर शत्रु रहे लोगों को उनसे अधिक भाव दिया जा रहा है। भिड़ंत राज्यस्तर पर किसी भारतीय प्रतिपक्षी से हो, या सीमा पर उमड़ती विदेशी सेना से; अथवा किसी अनदेखी लाइलाज महामारी से- नाजुक मौके पर कुंजड़ों की तरह घर के भीतर आपसी चख-चख, दांव पेच और खून खच्चर जारी रखने में कोई सयानापन नहीं। यह याद रखने की बात है कि पहले पाकिस्तान और फिर नेपाल को अपने पक्ष में करने के बाद अब चीन की नजर बांग्लादेश पर है। वह बांग्लादेश को व्यापार में अभूतपूर्व छूटें ऑफर कर रहा है।
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इस समय पश्चिम बंगाल के वातावरण में सांप्रदायिक मुद्दों को धुकाकर अपनी नाव के पाल में गर्म हवा भरने की रणनीति नैतिक रूप से ही नहीं, राजनय के नजरिये से भी गलत होगी। भगवान न करे कि जब बंगाल इतनी दैवी और राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रहा हो, केंद्र खाते खोलकर विचार करने लगे कि क्या उसके द्वारा नियुक्त राज्यपाल, बढ़ती अराजकता का इल्जाम लगा कर मौजूदा राज्य सरकार को बरखास्त कर सकता है?
जिस समय जनता और संविधान दोनों पुकार-पुकार कर अखिल भारतीय पार्टियों की मांग कर रहे हैं, उस समय हमारी पार्टियां प्रांतीय बनती जा रही हैं। इस हांव-हांव के बीच भारत के नक्शे में चीन और नेपाल मनमाने तरीके से जोड़-तोड़ करने लगे हैं। क्या यही हमको बताने को काफी नहीं कि देश का तयशुदा नक्शा बुनियादी तौर से तभी सुरक्षित रह सकेगा, जब हमारा प्रजातंत्र और अखिल भारतीय पार्टियां मजबूत और केंद्र सरकार की नजरों को अपनी घरेलू प्रतिस्पर्धी नजर आएंगी, दुश्मन नहीं।
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ममता एक कुशल जन नेत्री हैं। यह भी निर्विवाद है कि यह मकाम उन्होंने अपने संघर्ष से पाया है। लेकिन अब जब कि वह शीर्ष पर हैं, और अपने दल की सर्वमान्य नेता भी, उनको भी अपने हर आलोचक के साथ स्थायी दुश्मनी साधने से बचना चाहिए। संप्रग के जमाने में कांग्रेस की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी तृणमूल थी। इसके बावजूद तीस्ता जल बंटवारे पर ऐन मौके में अड़कर दीदी ने बांग्लादेश के सामने केंद्र सरकार की किरकिरी करा दी थी। फिर लोकायुक्त मसले पर राइट अबाउट टर्न कर संसद में उसे शर्मिंदा किया। इंदिरा गांधी भवन का नाम (बांग्लादेशी कवि) काजी नजरुल इस्लाम के नाम पर करते हुए कहा कि कांग्रेस चाहे तो उनसे नाता तोड़ ले। गठजोड़ सरकारों के युग में ऐसी एकला चलो रे की मानसिकता का प्रदर्शन कैसा?
ममता की इसलिए हमेशा तारीफ की जाती है, कि बंगाल में वामदलों के अधिनायकवादी नेतृत्व को चुनौती देने में उन्होंने लंबे समय तक आश्चर्यजनक दृढ़ता दिखाई। लेकिन समय- समय पर नेता द्वारा खुद की या पार्टी द्वारा शीर्ष नेतृत्व का मूल्यांकन और सुधार करने की कोई स्वस्थ प्रथा तो अपने यहां है नहीं। होती तो यह साफ दिखाई देता कि ममता के मिजाज में जंग जीतने के बाद अक्सर सबको साथ लेकर राजकाज चलाने की क्षमता में चिंताजनक कमी दिखती है।
विधानसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर जिस विशाल प्रशासनिक मशीनरी से उनको जमीनी तौर पर काम लेना है, उसके कल पुर्जों की दुरुस्ती और उनकी ग्रीज से हाथ या कपड़े मैले करने में उनको वैसी ही रुचि दिखानी चाहिए जैसी बीजेपी के शीर्षरण नीतिकार में है। वह निजी रूप से एक बेदाग छवि रखती हैं। वह निश्चय ही नहीं चाहेंगी कि उनके बंगाल में प्रजातंत्र की लोकप्रिय जात्रा पर हमेशा के लिए पर्दा पड़ जाए ताकि आसपास मंडरा रहे सांप्रदायिक भेड़िये नकली आवाजें निकाल कर राज्य की जनता को गुमराह कर सकें?
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