कोविड-19 की वैक्सीन बनाने वाली कंपनी एस्ट्राजेनेका ने तो स्वीकार कर लिया कि इसके कुछ साइड-इफेक्ट्स भी हो सकते हैं, और अब वैश्विक बाजार से अपनी वैक्सीन को वापस ले लिए है भारत में सीरम इंस्टिट्यूट ने एस्ट्राजेनेका के लाइसेंस के तहत कोविशील्ड का उत्पादन किया था, इलेक्टोरल बांड के तहत बीजेपी को चंदा दिया, पर उसकी तरफ से कोई सफाई अभी तक नहीं आई। हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय में कोविशील्ड के विरुद्ध एक याचिका दायर की गयी है।
इन सबके बीच भारत की दूसरी वैक्सीन, कोवैक्सीन, जिसका उत्पादन भारत बायोटेक ने किया था, की कोई खबर बाहर नहीं आ रही है। कोवैक्सीन पर कोविड-19 के दौर में भी बहुत सवाल उठे थे और इसके एक निदेशक ने स्वीकार किया था कि इसका पर्याप्त परीक्षण राजनैतिक दबाव के कारण नहीं किया जा सका था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस वैक्सीन को स्वीकृति नहीं दी थी और अनेक विकासशील देशों ने इसके आर्डर को कैंसल कर दिया था। पर हमारे देश में सत्ता और भारत बायोटेक ने इसे देश का अपमान बताकर हरेक प्रश्न उठाने वालों को खामोश कर दिया था। इसे स्वदेशी बताकर इसकी खामियों को ढक दिया गया।
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मेनस्ट्रीम मीडिया के सत्ता-भक्त होने के बाद से निष्पक्ष मीडिया अब कुछ न्यूज़ पोर्टल तक सिमट कर रह गया है और लगातार सत्ता, जांच एजेंसियों और अब तो न्यायालयों का शिकार होता जा रहा है। वर्ष 2021 के अंत में खोजी और निष्पक्ष पत्रकारिता करने वाले न्यूज़ पोर्टल, द वायर, पर तेलंगाना के रंगारेड्डी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में कोवेक्सिन बनाने वाली कंपनी भारत बायोटेक ने 100 करोड़ रुपये के मानहानि का मुकदमा दायर किया था। कंपनी के अनुसार वायर में अनेक ऐसे लेख प्रकाशित किये गए जिनसे कंपनी की साख को बट्टा लगा और कोवैक्सिन को लेकर लोगों में अविश्वसनीयता बढी। इसमें से अधिकतर लेख ऐसे विषयों – मसलन इसके परीक्षण, शरीर में एंटीजेन की जांच और परिणामों – पर थे, जिन विषयों पर दुनियाभर में प्रश्न उठाये गए थे।
इस मामले पर सुनवाई करते हुए 23 फरवरी 2022 को ऐडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज ने वायर को आदेश दिया कि वे अपने पोर्टल से भारत बायोटेक और कोवैक्सिन से जुडी सभी 14 आर्टिकल 48 घंटे के भीतर हटा दें और भविष्य में इस सम्बन्ध में कोई आर्टिकल प्रकाशित नहीं करें। भारत बायोटेक ने अपने मुकदमें में द वायर के प्रकाशक, द फाउंडेशन फॉर इंडिपेंडेंट जर्नलिज्म, इसके तीनों संस्थापक संपादकों – एमके वेणु, सिद्धार्थ भाटिया और सिद्धार्थ वरदराजन – के साथ ही 9 पत्रकारों के नाम को भी शामिल किया था। इस निर्देश को क़ानून से सम्बंधित पोर्टल बार एंड बेंच ने प्रकाशित किया है।
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कुछ समाचार पत्रों और न्यूज़ पोर्टल पर ही इस खबर को प्रकाशित किया गया था, पर कहीं भी प्रमुखता नहीं दी गयी थी। सबका स्त्रोत कानून संबंधी पोर्टल बार एंड बेंच ही था, पर शायद ही कहीं इस मामले पर द वायर का पक्ष प्रस्तुत किया गया था। किसी समाचार पत्र ने इस खबर को अभिव्यक्ति की आजादी ने नहीं जोड़ा था, पर इसके विपरीत कुछ न्यूज़ पोर्टल पर इस खबर के साथ द वायर पर ही प्रश्न उठाये गए थे। ओपइंडिया नामक चरम सत्ताभक्त पोर्टल पर इस खबर के साथ वायर के लिए लेफ्टिस्ट प्रोपगंडा पोर्टल जोड़ा गया था और बताया गया है कि इन लोगों का मकसद यह है कि देश में यहाँ की नहीं बल्कि अमेरिका की वैक्सीन का इस्तेमाल हो। इसे आप ओपइंडिया की मानसिक विकलांगता समझ सकते हैं कि उनके अनुसार लेफ्टिस्ट प्रोपगंडा पोर्टल अमेरिका के वैक्सीन की वकालत कर रहा है।
न्यायालयों में अभिव्यक्ति की आजादी का मजाक बनाया जाता है, प्राकृतिक न्याय की खिल्ली उडाई जाती है और पूंजीपतियों को ही न्याय दिया जाता है – यह समझने के लिए 24 फरवरी 2022 को द वायर में प्रकाशित किये गए तीनों संपादकों की तरफ से जारी विज्ञप्ति को पढ़ना जरूरी है। इसके अनुसार, “हमें इस फैसले की कोई प्रति नहीं मिली है, इसके बारे में लीगल पोर्टल बार एंड बेंच में प्रकाशित रिपोर्ट से पता चला। द वायर और इसके संपादकों को कोई नोटिस नहीं दिया गया था और ना ही किसी भी तरह से उन्हें मुकदमे की सूचना दी गयी। किसी भी स्टेज पर भारत बायोटेक या इनके किसी कानूनी सलाहकार ने हमसे कभी संपर्क किया। वायर के पक्ष को सुने बिना ही इस आदेश को पारित कर दिया गया, हम इस आदेश के खिलाफ कानूनी रास्ता अपनाएंगे। प्रेस की आजादी का अधिकार संविधान से मिला है और हम प्रेस की आजादी को कुचलने की किसी भी कार्यवाही का विरोध करेंगे।” कोवैक्सीन की स्थिति यह थी कि यह वैश्विक स्तर पर अकेली तथाकथित वैक्सीन थी जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमोदित नहीं किया था।
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मोदी सरकार ने भले ही आयुष्मान भारत योजना का खूब स्व-प्रचार किया हो, मोदी की गारंटी में गरीबों के मुफ्त इलाज का प्रचार किया हो, पर सच तो यह है कि कोविड-19 के समय भी और बाद में भी जन-स्वास्थ्य से खूब खिलवाड़ किया है। केंद्र सरकार के स्तर पर पतंजलि के “कोरोनिल” का प्रचार कोविड-19 की दवा बताकर केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा किया गया। भारत सरकार अपनी तरफ से अलग से कोविड-19 की रोकथाम के नुस्खे बताता रहा और मेनस्ट्रीम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस दुष्प्रचार में बराबर की भागीदारी निभाई थी। काढ़े का कुछ इस तरह प्रचार किया गया को लोगों की तबीयत इसे लगातार पीकर बिगड़ने लगी।
यह खिलवाड़ केवल भारत तक ही सीमित नहीं है बल्कि वैश्विक स्तर पर है। प्रधानमंत्री मोदी भारत को जेनेरिक दवाओं के उत्पादन का गढ़ बताते हैं, वैश्विक राजधानी बताते हैं। इस 10 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बताते हैं और वैश्विक स्तर पर जेनेरिक दवाओं के कुल कारोबार में भारत का योगदान 20 प्रतिशत है। इनके सबके बाद भी इस दवाओं के बाजार में उतारने से पहले पर्याप्त गुणवत्ता जांच की कोई व्यवस्था नहीं है। यहाँ के कफ सिरप पीकर बच्चे मरते हैं, ऑईड्रॉप्स डालकर लोग अंधे हो जाते हैं और कीमोथेरेपी के रसायनों में जहरीले रसायन मिलते हैं। मोदी सरकार में दवाओं की गुणवत्ता गौण है, पर इसका विरोध देशद्रोह बताया जाता है, राष्ट्र का अपमान करार दिया जाता है और पश्चिमी देशों द्वारा भारत को बढ़ने न देने की रणनीति करार दी जाती है।
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भारत की जेनेरिक दवाओं के विरोध में या फिर उनकी हकीकत प्रदर्शित करते जितने लेख या किताबें लिखी गईं हैं, उनकी संख्या ही पूरी कहानी स्पष्ट कर देती है। 5 अप्रैल 2023 को जापान टाइम्स में एक लेख का शीर्षक था – “जस्ट हाउ डेंजरस आर इंडियाज जेनेरिक ड्रग्स? वेरी” (Just how dangerous are India’s generic drugs? Very: The Japan Times, 5.4.2023)। इसमें कहा गया था कि भारत भले ही अपने आप को फार्मेसी ऑफ़ द वर्ल्ड बताता हो पर यहाँ गुणवत्ता पर कोई ध्यान नहीं देता। गुणवत्ता पर उठाये गए प्रश्नों को दावा कम्पनियां और सत्ता दोनों देश की अस्मिता पर प्रहार बताने लगती हैं। अमेरिकी पत्रकार, कैथेरिन एबान ने भी भारत के जेनेरिक दवाओं पर एक पुस्तक लिखी है – बौटल ऑफ़ लाइज: द इनसाइड स्टोरी ऑफ़ द जेनेरिक ड्रग बूम (Bottle of lies: The inside story of the Generic Drug boom – Katherine Eban, Journalist)। भारत में दावा गुणवत्ता परीक्षणों की लचर व्यवस्था से सम्बंधित एक पुस्तक अधिवक्ता प्रशांत रेड्डी ने भी लिखा है – द ट्रुथ पिल: द मिथ ऑफ़ ड्रग रेगुलेशन इन इंडिया (The Truth Pill: The Myth of Drug Regulation in India – T. Prashant Reddy, Advocate)।
जेनेरिक ड्रग के बारे में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी केंद्र सरकार को गुणवत्ता सुनिश्चित करने को कहा है। इसके अनुसार सरकारी डॉक्टर तो शायद प्रिस्क्रिप्शन पर जेनेरिक दवाओं को लिख देंगें पर प्राइवेट हस्पतालों के डॉक्टर किसी संभावित जानलेवा दवा को केवल सस्ती होने के कारण नहीं लिखेंगें। अब तक लगातार दवा में भी राष्ट्रवाद का नारा लगाकर सरकार इन दवाओं को बाजार में उतारती रही है, जिसमें गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं है। कुछ दिनों पहले ही सरकार ने ऐलान किया है कि अब जेनेरिक दवाओं को बाजार में उतारने से पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुरूप परीक्षण करना होगा। इतना तो तय है कि हमारे देश में भाषणों, नारों और गारंटियों से परे जनस्वास्थ्य एक उपेक्षित विषय है।
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