बनारस बदल रहा है! नहीं, बनारस तो बदल गया है! कुछ इस तरह बदला है बनारस कि अब पहचान में नहीं आता। खूबसूरत लगता है, फिर भी जाने क्यों पुराना वाला ही याद आता है। वो गलियों वाला बनारस जहन से उतरता ही नहीं। उतरे भी कैसे, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, गोदई महाराज और पंडित किशन महाराज का इन गलियों में जिसने भी विचरण देखा क्या, सुना भी होगा होगा तो उसे उस बनारस की याद आनी ही है।
अब बनारस ईंट-पत्थर से बनी इमारतों का शहर मात्र तो है नहीं, यह तो भारतीय संस्कृति की उपासना और इतिहास की साधना का शहर है। यह विकास की झिलमिल झालरों की अनिश्चित रोशनी से नहीं, ज्ञान और अध्यात्म के प्रकाश पुंज से आलोकित होता है। इसके कण-कण में शिव हैं तो इसलिए कि यहां प्रवाहित होने वाली ज्ञान की धारा ही उनमें शिवत्व स्थापित करती है।
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बनारस का खोल पहनने से पूर्व काशी दुनिया की सबसे प्राचीन नगरी के रूप में समय के साथ बराबर विद्यमान मिलती है। धर्म की धुरी को अपने बिंदास अंदाज में गति देने वाली काशी के जर्रे-जर्रे में शिवत्व की अनुभूति है तो इसके पीछे भी ज्ञान की अविरल धारा ही है। किंतु जैसे ही हम बनारस की तरफ मुड़ते हैं, ठाट भरा एक समग्र जनजीवन और खास अंदाज की जीवन शैली हमारे सामने होती है।
फक्कड़ और अलमस्त बनारस। रीति-रिवाजों, लोक परंपराओं को अपने मिजाज से मनाने वाले बनारस में सब कुछ बहुत तेजी से बदल रहा है। गंगा किनारे बसने वाले शहर की सीमाओं ने आश्चर्यजनक विस्तार ले लिया है। सामाजिक ढांचा भी रूढ़ियां तोड़कर समय के साथ कदमताल करने की कोशिश में है। कदम-कदम पर शताब्दियों की कहानियां जब्त किए शहर की छाती पर विकास के फौलादी पांवों ने अपना रौब दिखाना आरंभ कर दिया है।
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पुराने बनारस की पहचान अपनी आखिरी लड़ाई की ओर है। यह कहना कठिन नहीं लगता कि यही हाल रहा तो शायद कुछ बर्षों बाद पुराना बनारस किस्सागोई का हिस्सा बन जाय। विकास की अंधी गली में गलियों के लिए मशहूर इस शहर की गलियां गुम हो रही हैं। शांत गंगा क्रूज के कोलाहल से से त्रस्त दिखने लगी हैं।
विकास के सर्वाधिक मजबूत प्रतीक के रूप में बेशक काशी विश्वनाथ कॉरिडोर दर्शनीय ही नहीं, काशी के इतिहास का बदलाव बिंदु बनकर उभरा है। इसे देखना-महसूसना भला तो लगता है, पर इसके बनने मे कई ऐसी गलियां विकास की भेंट चढ़ गईं जिनका ऐतिहासिक महत्व था। इनमें एक गली ऐसी भी थी जहां बने एक स्कूल में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री रामनगर से तैरकर गंगा पारकर नियमित रूप से पढ़ने आते थे। कॉरिडोर की सुंदरता वाकई व्यक्ति को अपनी ओर खींचती है किंतु जिन्होंने इस छोर से उस छोर तक दमकती हुई विश्वनाथ मंदिर वाली श्रृंगार गली देखी होगी, उन्हें उसका गुम हो जाना बहुत अखर रहा होगा।
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उन्हें तो यह भी अखर रहा होगा कि इन दिनों जहां कॉरिडोर का एक बुलंद द्वार लोगों को इतराते हुए आमंत्रित कर रहा है, वहीं कहीं काशी की प्राचीन कारमाइकेल लाइब्रेरी अवस्थित थी। इस लाइब्रेरी की जद में जमा थी दुनियाभर की अनगिन किताबें। इतिहास का एक ऐसा नायाब घर जिसे नाहक ही बदलाव का नेवाला बनना पड़ा।
पुराने बनारस और बदलते बनारस के बीच फंसी बनारस की मस्ती सकुचाई हुई सी अपना रास्ता तलाशने में लगी है। उसे समझ नहीं आ रहा कि वह अपनी मौज में रहे या विकास के हथौड़ों का वार सहे। कहीं किसी एक जगह किसी अड़ी पर रुककर ठहाके लगाने वाला शहर चुप्पी साधे आपाधापी और भागने में मशगूल है।
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किसी पुराने मकान को नए अंदाज में संवारना या सजाना आसान नहीं है। बनारस भी पुराने मकान जैसा ही है जिसे बहुत सतर्कता से संवारे जाने की जरूरत है। किसी ने कहा भी था कि बनारस को भारी भरकम हरबे से नहीं, छेनी-हथौड़ी की सहली हुई हल्की मार से संवारा जा सकता है। ऐसा इसलिए कि इस अति प्राचीन शहर की ईंट-ईंट में जाने कहां कौन सा इतिहास छिपा हुआ हो।
थोड़ा समय के साथ चलें और देखें तो बिंदास बनारस स्वाभाविक रूप से बदल रहा है। नई पीढ़ी हर मोर्चे पर पुरानी खोल से बाहर आने के लिए आमादा है। वह बैठे ठाले रहने वाला या फिर आलस्य लपेटे रहने वाला बनारस नहीं चाहती। बोल-चाल, रहन-सहन में भी वह अपना अंदाज ले आ रही है। वरना बनारस में तो यह कहावत बहुत पुरानी है कि यहां के लोग बहुत संतोषी होते हैं। यहां के लोगों का काम दो गमछों से ही पूरा हो जाता है। एक लपेट लेते हैं, दूसरा कंधे पर डालकर काम पर निकल लेते हैं।
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हाल के कुछ वर्षों में आए भौगोलिक बदलाव ने पुराने बनारस की पहचान को सांसत में डाल जरूर दिया है किंतु लोगबाग इसे विकास का मानक मान स्वीकार करने में हिचक नहीं रहे। अब रात-दिन गुलजार रहने वाले गोदौलिया चौराहे के ठीक बीचोबीच शिव वाहन नंदी की प्रतिमा स्थापित है। मैदागिन चौराहे पर सोने सा चमकीला विशाल त्रिशूल गाड़ दिया गया है। और तो और, शहर की खास सड़कों के किनारे बने मकानों को एक रंग में रंग दिया गया है। इन सड़कों के डिवाइडर में हरियाली बो दी गई है तथा पूरे शहर को स्थायी गमलों से सजा दिया गया है।
उड़ूक मारकर बैठा पुराना बनारस चुपचाप अपना बदलता चोला देख रहा है। वह निश्चिंत है। उसे पता है कि उसका चोला भर बदल रहा है, मिजाज नहीं।
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