साल 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद ‘इस्लामोफोबिया’ (इस्लाम के प्रति डर या घृणा का भाव) शब्द का प्रचलन अचानक बहुत बढ़ गया। इस घटना के बाद अमरीकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द का भी बड़े पैमाने पर उपयोग करना शुरू कर दिया। दुनिया के इतिहास में पहली बार किसी धर्म को आतंकवाद से जोड़ा गया।
भारत में इसके पहले से ही अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का वातावरण था, लेकिन इसके कारण दूसरे थे। इसके पीछे सांप्रदायिक राजनीति थी, जो भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारतीय राष्ट्रवाद के उदय की प्रतिक्रिया स्वरुप अस्तित्व में आई थी। हिन्दू सांप्रदायिक तत्व, इस्लाम को एक हिंसक धर्म बताते थे। वे कहते थे कि देश में इस्लाम का प्रसार तलवार की नोंक पर हुआ, मुसलमानों ने हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त किया, उनकी कई पत्नियां होतीं हैं, वे ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं, आक्रामक होते हैं और गौमांस खाते हैं। ये सारी धारणाएं देश की सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा थीं।
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पिछले कुछ महीनों के देश के घटनाक्रम ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने वाले तत्वों को एक सुनहरा मौका दे दिया। इसमें शामिल था अनुच्छेद 370 का हटाया जाना, नागरिकता संशोधन अधिनियम का लागू किया जाना और शाहीन बाग़ में हुआ शानदार प्रजातान्त्रिक प्रदर्शन। इसके बाद तबलीगी जमात के कुछ सदस्यों की लापरवाही और मूर्खतापूर्ण आचरण के बहाने देश के सभी मुसलमानों को कोरोना संक्रमण के प्रसार के लिए दोषी ठहराया जाने लगा। ‘कोरोना बम’ और ‘कोरोना जिहाद’ जैसे शब्दों का प्रयोग शुरू हो गया और देश में मुसलमानों का चैन से जीना दूभर कर दिया गया। यहां तक कि महाराष्ट्र के पालघर में साधुओं की लिंचिंग के लिए भी मुसलमानों को दोषी ठहरा दिया गया, जबकि इस घटना को स्थानीय ग्रामीणों ने अंजाम दिया था और उनमें से एक भी मुसलमान नहीं था।
सामान्यतः अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों के उल्लंघन के इस तरह के मामलों में विश्व समुदाय मामूली विरोध और निंदा कर चुप हो जाता है। परन्तु कोरोना को लेकर मुसलमानों का इस हद तक दानवीकरण किया गया कि कई अंतर्राष्ट्रीय मंचो से भारत में मुसलमानों के साथ किये जा रहे व्यवहार की कड़ी आलोचना हुई। आर्गेनाईजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन और इसके स्वतंत्र स्थायी मानवाधिकार आयोग ने भारत में मुसलमानों की सुरक्षा के लिए उपयुक्त कदम उठाए जाने की मांग की है।
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संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में लाखों भारतीय काम करते हैं, जिनमें से अनेक हिन्दू हैं। इनमें से कुछ घोर सांप्रदायिक हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी फोटो प्रदर्शित करने में शान का अनुभव करते हैं। उनमें से कुछ ने ट्वीट कर तबलीगी जमात पर भड़काऊ टिप्पणियां करते हुए भारतीय मुसलमानों पर ‘इस्लामिक जिहाद’ करने और ‘इस्लामिक वायरस’ और ‘मुस्लिम वायरस’ फैलाने का आरोप लगाया।
इसी कड़ी में बीजेपी के उभरते सितारे तेजस्वी सूर्या का एक पुराना ट्वीट आभासी दुनिया में तैरने लगा। इस ट्वीट में तेजस्वी ने तारिक फतेह के एक ट्वीट का समर्थन किया था। इस ट्वीट में अरब महिलाओं के बारे में अपमानजनक और अश्लील टिपण्णी की गई थी। कुछ लोगों ने यह दावा भी किया कि खाड़ी के देशों के विकास में भारतीयों का महत्वपूर्ण योगदान है। कुल मिलाकर, वातावरण में जहर घोल दिया गया और मुसलमानों को हर तरह से अपमानित किया जाने लगा।
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नफरत के इन योद्धाओं के खिलाफ यूएई के शाही परिवार के कुछ सदस्यों ने आवाज़ उठाई। वहां की शहजादी हिंद अल कासमी ने ट्वीट किया कि शाही परिवार भारत का मित्र है, “परन्तु आपकी अशिष्टता बर्दाश्त नहीं की जाएगी...आप इस धरती से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं और उसी का तिरस्कार और अपमान करते हैं। इसे भुलाया नहीं जाएगा”। फिर उन्होंने यूएई के उन कानूनों का हवाला दिया जिनके अंतर्गत नागरिकों या गैर-नागरिकों द्वारा नफरत फैलाने वाली बातें कहना प्रतिबंधित है।
उन्होंने आगे यह भी कहा, “क्या इन तथाकथित ताकतवर अरबपतियों को यह पता नहीं है कि नफरत, कत्लेआम की भूमिका होती है। नाजीवाद एक दिन में पैदा नहीं हुआ था। उसे खरपतवार की तरह बढ़ने दिया गया था। वह चारों ओर इसलिए फैला क्योंकि लोगों ने दूसरी ओर देखना बेहतर समझा। चुप्पी उसकी खाद-पानी बनी। भारत में खुले आम मुसलमानों के खिलाफ नफरत भड़काई जा रही है- एक ऐसे देश में जहां 18 करोड़ मुसलमान रहते हैं।”
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पीएम नरेंद्र मोदी, जिनकी ऐसे मामलों में नींद काफी देरी से खुलती है, ने अंततः अपनी चुप्पी तोड़ी। हम सब जानते हैं कि इन देशों में बड़ी संख्या में भारतीय काम करते हैं और वे करोड़ों डॉलर भारत भेजते हैं। भारत खाड़ी के देशों का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। मोदी ने एक ट्वीट कर कहा, “कोरोना जाति, धर्म, रंग, पंथ, भाषा या सीमाओं को नहीं देखता। इसलिए हमारी प्रतिक्रिया और आचरण में एकता और भाईचारे को प्रधानता दी जानी चाहिए। इस परिस्थिति में हम एक हैं।” मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि मीडिया और सोशल मीडिया में इस नफरत को कौन हवा दे रहा है, परन्तु उन्होंने ऐसे लोगों के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा।
इसी तर्ज पर आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत भी आगे आए और कहा कि चंद लोगों के आचरण के लिए पूरे समुदाय को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए। ये दोनों हिन्दू राष्ट्रवादी नेता तब सक्रिय हुए जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जम कर थू-थू हुई और यूएई और खाड़ी के देशों ने नफरत फैलाने वाले कुछ भारतीयों को नौकरियों से निकलना शुरू कर दिया। यह दिलचस्प है कि उसी समय मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने भारत को मुसलमानों के लिए ‘जन्नत’ बताया।
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कई टिप्पणीकारों को उम्मीद है कि मोदी और भागवत के इन बयानों से असहाय अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का जहर फैलाने वालों की जुबान पर लगाम लग जाएगी। परन्तु यह इतना आसान नहीं है। सांप्रदायिक ताकतों ने यह वातावरण लगभग एक शताब्दी की कड़ी मेहनत से तैयार किया है। इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और इस्लाम व मुसलमानों के बारे में अमरीका के वर्चस्व वाले मीडिया द्वारा फैलाई गई मिथ्या धारणाएं भारतीयों में गहरे तक घर कर गई हैं।
कोरोना के मामले में जो कुछ हुआ उससे यह पता चलता है कि इस सोच की जड़ें कितनी गहरी हैं। यह एक लंबे प्रचार अभियान का नतीजा है, जिसने देश को बांट कर रख दिया है और जो बंधुत्व के उस मूल्य के खिलाफ है, जो भारतीय राष्ट्रवाद की नींव है। यूएई, जिसने नरेंद्र मोदी को अपने उच्चतम नागरिक सम्मान से नवाजा था, के विरोध से इस अभियान पर थोड़ी-बहुत रोक लग सकती है। इसका स्थाई इलाज यही है कि हम गांधी और नेहरु के राष्ट्रवाद को इस देश के लोगों की सोच का हिस्सा बनाएं।
(लेख का हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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