प्रधानमंत्री बिल्कुल सही फरमाते हैं, “संविधान मेरे लिए एक पवित्र धर्मग्रंथ है”। देखा न आपने टीवी पर उन्होंने उसके सामने उस दिन इसीलिए सिर नवाया था। पवित्र धर्मग्रंथ न होता तो वे उसके आगे कभी सिर नवाते और इतनी बार टीवी वाले इसे दिखाते? कतई नहीं नवाते और बिल्कुल भी नहीं दिखाते! वह ऐसा कर ही नहीं सकते थे, किया भी नहीं उन्होंने आज तक। उन्होंने कभी किसी अपवित्रता के आगे सिर नहीं नवाया- चाहे वह कोई ग्रंथ ही क्यों न हो!
यही नहीं उन्होंने और उनके 57 मंत्रियों ने संविधान के प्रति श्रद्धा और सत्यनिष्ठा की शपथ भी बेधड़क होकर ले ली और उनके सांसद भी लेंगे। मोदी जी का दिमाग इस बारे में बहुत क्लीअर है- सिर नवाने, शपथ लेने में नो पंगा। बाद में जो करना हो, करो मगर शपथ में नो दंगा।
संविधान बेशक एक पवित्र धर्मग्रंथ है और पवित्र धर्मग्रंथों के आगे सिर झुकाना-नवाना और ऐसा करते हुए अपना फोटो खिंचवाना, सेल्फी लेना हमारी प्राचीन परंपरा है। हम नहा-धोकर या वजू करके ही पवित्र धर्मग्रंथों को छूते हैं, उनके आगे झुकने की फोटोई कार्रवाई करते हैं। लेकिन किसी भी ग्रंथ के आगे झुकने का कभी यह मतलब नहीं रहा कि उसमें लिखी अच्छी-अच्छी, सुंदर-सुंदर बातों का पालन करा ही जाएगा।
हम चोरी नहीं करेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे, हत्या-बलात्कार नहीं करेंगे, दंगे नहीं करेंगे-करवाएंगे, ऐसा कोई पवित्र-अपवित्र नियम नहीं है। दुनिया में जितने भी बुरे काम किए जा सकते हैं, हम सब करेंगे मगर पवित्र धर्मग्रंथ के आगे सिर भी नवाएंगे, उसका पारायण भी करेंगे।
पवित्रता अपनी जगह है, हत्याएं करना, नफरत फैलाना, रामजादे-हरामजादे करना, श्मशान-कब्रिस्तान करना अपनी जगह है। एक का दूसरे में कोई हस्तक्षेप नहीं है (ये इंडिपेंडेंट चार्ज वाले विभाग हैं)। यह भी हमारी परंपरा है। परंपरा का पालन करने में हम कभी संकोच नहीं करते और करेंगे भी नहीं क्योंकि हमने ऐसा कभी किया भी नहीं।
ये तो चलो प्रधानमंत्री-मंत्री के स्तर की बात हुई, बेहद उच्चस्तरीय बात हुई और संविधान नामक पवित्र ग्रंथ की बात हुई। उस धर्मग्रंथ की बात हुई, जिसकी शपथ मंत्री आदि बनने के लिए लेनी ही पड़ती है। यह उस धर्मग्रंथ की बात हुई, जिसे पढ़ने की कोई जरूरत नहीं तो उसे मानने की भी कोई आवश्यकता नहीं। हां उसके आगे सिर नवाने की जरूरत अवश्य है!
इस धर्मग्रंथ को कानूनविद पढ़ा करते हैं, क्योंकि उन्हें अपने किसी मुवक्किल को बचाना होता है, अदालत में अपनी जीत का सिक्का जमाना होता है। इससे अधिक पवित्र और पठनीय वे भी इसे नहीं मानते। संविधान ही एकमात्र ऐसा पवित्र ग्रंथ है, जिसमें जितने चाहे, जब चाहे संशोधन कर लो, जबकि दूसरे धर्मग्रंथ अपरिवर्तनीय होते हैं, दैवीय होते हैं। उनमें संशोधन करने की बात करने वाले को जान से हाथ धोना पड़ सकता है।
चूंकि संविधान एक पवित्र धर्मग्रंथ है, इसलिए पद मिले तो इसकी कसम आसानी से खाई जा सकती है। आज तक पद पाने वाले सभी लोगों ने इसकी कसम खाई है और इसकी ऐसी-तैसी करने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। सिर्फ कसम ही तो खानी होती है और कसम खाकर उसे तोड़ने की कला में मोदी जी समेत हमसब बचपन से एक्सपर्ट होते हैं।
मेरे एक दोस्त को यह परमज्ञान बचपन में प्राप्त हो गया था कि जो चाहे कसम खा लो, न आपका कुछ बिगड़ेगा, न जिसकी कसम खाओगे, उसका बाल भी बांका होगा। उसने बचपन में मां की झूठी कसम कम से कम सौ बार खाई होगी और उसकी मां उम्र के 97वें वर्ष में है और उसने कहा है कि उनके सौवें जन्मदिन की पार्टी में वह मुझे अवश्य बुलाएगा और तीन साल बाद के उस दिन की कोई बुकिंग नहीं करनी है, यह उसने अभी से कह रखा है और मैंने भी तय कर रखा है।
आप कहें तो यह बात संविधान के आगे सिर नवाकर, शपथ लेकर भी कह सकता हूं और राष्ट्रपति या राज्यपाल शपथ नहीं दिलाएंगे, तब भी कह सकता हूं, बल्कि तभी कह सकता हूं क्योंकि सवाल सरकार बनाने-चलाने का नहीं है, दोस्त से पुराने रिश्ते निभाने का है।
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