भारत का छोटा-सा केंद्र शासित प्रदेश बीते कुछ दिनों में गलत कारणों से खबरों में है। पिछले वर्ष दिसंबर में लक्षद्वीप के प्रशासक का पदभार संभालने वाले प्रफुल्ल खोड़ा पटेल के हाथों में अरब सागर में स्थित 36 द्वीपों के समूह के लिए पर्यटन और साहसिक खेल, विकास और उन्नति, इंफ्रास्ट्रक्चर और निर्माण प्रगति के नए मंत्र बन गए हैं। साथ ही अधिनायकवादी नियम जैसे कि बीफ पर प्रतिबंध भी उस छोटी-सी स्थानीय आबादी पर थोपे गए हैं जिसका बहुतायत हिस्सा मुस्लिम है। न केवल यह सब एक अव्यवस्थित तरीके से किया जा रहा है बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब किसी एक व्यक्ति की इच्छा पर किया जा रहा है, बिना स्थानीय लोगों के साथ उचित संवाद और विमर्श के।
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दांव पर जो लगा है, वह है इस द्वीप समूह की शांति, इसकी अनछुई खूबसूरती, इसका पर्यावरण और पारिस्थिति की, मूंगें और चट्टानें, और सबसे ज्यादा स्थानीय मछुआरों का जीविकोपार्जन तथा मौलिक अधिकार, उनकी अद्वितीय पहचान और संस्कृति। इसमें कोई हैरानी नहीं है कि इन गतिविधियों के खिलाफ न्यायोचित विरोध भी इस द्वीप समूह पर भाजपा के खेमे के भीतर से भी आ रहा है– रीकॉल पटेल की मांग हो रही है और विरोध में आवाजें उठ रही हैं।
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इस अशांति ने बीते हफ्ते बिल्कुल फिल्मी मोड़ ले लिया। लक्षद्वीप पुलिस ने स्थानीय मॉडल, कलाकार, एक्टिविस्टऔर फिल्मकार आयशा सुल्ताना के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया क्योंकि उन्होंने पटेल को जैविक हथियार (बायो वेपन) कहा। उन पर कवरत्ती पुलिस स्टेशन में धारा 124 ए (देशद्रोह) और 153 बी (हैट स्पीच) के तहत मामला दर्ज किया गया। पटेल के ‘सुधारों’ के विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान की अगुवाई कर रहीं सुल्ताना ने टीवी पर एक बहस के दौरान पटेल की कड़ी निंदा की। सुल्ताना ने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली जिसमें उन्होंने कहा, “मैंने जैविक हथियार (बायो वेपन) शब्द का इस्तेमाल एक टीवी चैनल की बहस में किया। मैंने ऐसा महसूस किया है कि पटेल और उनकी नीतियों ने एक बायो वेपन जैसा ही काम किया है। लक्षद्वीप में कोविड-19 के फैलने का कारण भी पटेल और उसके संगी-साथी हैं। मैंने पटेल की तुलना जैविक हथियार से की है, न कि सरकार या देश की।” फिल्मकार सुल्ताना ने यह कहते हुए केरल हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत की याचिका डाली है कि उन्हें इस मामले में “परोक्ष अभिप्राय के साथ गलत तरीके से फंसाया गया है।”
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इस सब अशांति और अफरातफरी में मुझे लक्षद्वीप की एक रील प्रस्तुति याद आई। फिल्मकार और कलाकार गीतू मोहनदास की मलयालम फिल्म ‘मूथोन’ (द एल्डर वन) उन चंद फिल्मों में से है जो लक्षद्वीप के बंगारम और अगत्ती द्वीपों में फिल्माई गई है। यह फिल्म मात्र स्थानीय खूबसूरती का पृष्ठभूमि में इस्तेमाल करने के लिए नहीं बनी। इस फिल्म में दिखाने के लिए समुद्र, रेत और समुद्रतटों से और भी कुछ ज्यादा था। यह एक गहरी फिल्महै। इस फिल्म में स्थानीय बोलियों में प्रयोग होने वाले एक शब्द का अत्यधिक इस्तेमाल होता है जो कि एक द्वीप से दूसरे द्वीप पर परिवर्तित होता रहता है और उसकी कोई लिपि भी नहीं है। इस फिल्म में कैमरे में स्थानीय समुदाय की संस्कृति, सामाजिक और धार्मिक रीतियां और रिवाज भी कैद हुए हैं।
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हमें चाहे प्रतीत हो लेकिन ‘मूथोन’ नेशनल ज्योग्राफिक जैसी कोई डॉक्युमेंट्री फिल्म नहीं है। इस फिल्म की कहानी जेंडर, सेक्सुअलिटी और प्रेम के आपस में गुंथे हुए जबरदस्त विषयों पर टिकी है। यह एक युवा लड़की को लेकर है जो अपने खोए हुए बड़े भाई को लेकर बहुत जिज्ञासु है और उसको खोजने निकल पड़ती है। वह अपने बड़े भाई से कभी मिली नहीं थी। उसकी उत्सुकता उसके भाई के विषय में उसके परिवार और दोस्तों द्वारा दी गई सूचनाओं से निरंतर बढ़ती चली जाती है। यह खोज यात्रा उसे लक्षद्वीप से मुंबई ले जाती है। यह यात्रा उसके लिए एक आध्यात्मिक खोज भी बन जाती है जिसमें वह स्वयं को भी तलाशने की कोशिश करती है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह यात्रा एक अलसाए हुए द्वीप से सीधा एक निर्मम और हिंसक नगर तक की है। एक ऐसी यात्रा जिसमें आप वास्तविक खतरों जो कि बहुत ही ज्यादा और गहरे हैं उनसे लड़ने के लिए अनछुए भोले-भाले लक्षद्वीप के आकर्षण और मासूमियत को अपने साथ सटा कर रखते हो।
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