मार्कंडेय पुराण में एक रोचक प्रकरण है। कार्तवीर्य सहर्त्रार्जुनजब राजा हुए तो उन्होंने विद्वानों के साथ राजा के धर्म पर विचार किया। ज्ञानीजनों ने उनसे कहा कि राजा का असली काम है सिर्फ अपनी प्रजा की दूसरे राज्यों से रक्षा करना और राज्य में तरह-तरह के पुरुषार्थ (यानी व्यवसायों) और धर्मों को योगक्षेम देना। अन्न पैदा करना, और उसकी वितरण व्यवस्था तो लोग- बाग बड़ी हद तक खुद ही करते आए हैं। रही बदमाशों की पकड़-धकड़, न्याय या दंडविधान लागू करना, यह राजा द्वारा नियुक्त राजकीय संस्थानों का काम है। इसे कुछ और गहराई देते हुए हम कह सकते हैं किसी मायनों में राजा के लिए राजधर्म का मतलब जनता को सीमाओं पर और घर के भीतर सहजता से पनपने और सुरक्षित वातावरण में जीने की गारंटी देना है।
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अब चूंकि इन दिनों पुरानी परंपरा का तड़का लगाए बिना आप अपना तर्क व्यवस्था के गले नहीं उतार सकते, इसलिए हम बता दें कि आज के संघीय गणराज्य भारत के नेतृत्व के लिए ज्ञान, कर्म और राजधर्म की एक आदर्श कसौटी संघीय गणराज्यों के पहले कुशल निर्माता कृष्ण हो सकते हैं जो महाभारत में गोकुल के लीला रचयिता या मथुरा के जुझारू कृष्ण नहीं, एक प्रौढ़ अनुभवी राजनयिक हैं जो युद्ध को किसी भी कीमत पर टालकर सहमति और भरोसे के आधार पर एक विशाल गणराज्य बना चुके हैं। कृष्ण मनुष्य स्वभाव की कमजोरियों से परिचित थे, लेकिन एकीकृत राष्ट्रीय संघ की जनकल्याणी ताकत से भी। इसलिए तमाम तरह के लालची, झगड़ालू क्षत्रियों और यादवों (भोजवंशी) के कबीलों, कुलों को उन्होंने बड़ी चतुरता से एकजुट किया, अपना सारा वैभव उनको दे दिया और इस तरह भारत की पहली सहकारिता पर टिकी संघीय गणराज्य व्यवस्था बनाई। कृष्ण को द्वारिकाधीश तो कहते हैं लेकिन सच यह है किद्वारिकानीत (क्षत्रिय-यादव) गणसंघ का एकछत्र राजा नहीं राजन्य होता था। इस तरह उग्रसेन राजन्य थे, महाराज नहीं। पांडवों के राजसूय यज्ञ में जब आमंत्रित बड़े अतिथियों की पहले पूजा करनी थी, युधिष्ठिर को भीष्म ने संघ प्रमुख के रूप में द्वारिका के मेहमान कृष्ण को ही मान्य नेता (यानी जिसे आज हम कहते हैं फर्स्ट अमंग ईक्वल्स) बताया। इस पर कृष्ण के जलकुकड़े जाति भाई शिशुपाल ने उनको अराजा कह कर गालियां दीं, पर शेष किसी को कृष्ण को संघ प्रमुख मानकर पूजित होने पर ऐतराज नहीं हुआ।
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यह मामला संघीय गणराज्यों की एक बड़ी कमजोरी की तरफ भी इशारा करता है। जब लगभग टक्कर के नेताओं का संघ बन गया तो उसके बाद भी गणतंत्र के भीतर कई निजी महत्वाकांक्षाएं और बदला लेने की इच्छाएं छुपी रहती हैं। महाभारत में मौसल पर्वतक आते-आते यही हुआ। सभा में मदिरा के चषक चल रहे थे तो नशे में धुत्त सात्यकि ने खुद को द्रौपदी के बेटों की मौत का बदला चुकाने वाला कहकर अश्वत्थामा के दोस्त कृतवर्मा का सर काट डाला, और बस तमाम गड़े मुर्दे उखड़ने लगे और भयंकर मारपीट शुरू हो गई। गुस्से में तिनका भी मूसल बनता देखकर, महाभारत के नरसंहार से दुखी कृष्ण ने हमेशा की तरह हस्तक्षेप की बजाय हाथ खींच लिया और खुद प्रभास तीर्थ एकांतवास पर चले गए। कृष्ण का आदर्श हर जाति-धर्म के नेताओं की रचनाशील और भरोसे पर टिकी एकता रचने का था जो महाभारत के अंत तक बिखर गया। उनका संघ का आदर्श बहुलता के बीच एका बनाने का था, एक राजा की महत्वाकांक्षा को सम्राटत्व दिलाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के रंदे से सारी बहुलता को एक मृत कुंदे में तब्दील करने का नहीं। कंस का वध ही उन्होंने इसीलिए किया कि वह चक्रवर्ती बनने का सपना पालकर जरासंध की कुटिल सलाह पर सारे भोजवंशी राजन्यों के संघ का इकलौता राजा बनने चला था। कृष्ण के जीवनकाल में भी नारद सरीखे कई इसे अव्यावहारिक बात समझते थे। पर स्वेच्छा से कुरुकुल का राजपद त्याग चुके भीष्म कृष्ण से सहमत थे और तभी उन्होंने युधिष्ठिर से सबसे पहले उनका अभिनंदन करने की सलाह दी थी।
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कृष्ण के विपरीत आज के सत्ताधारियों के प्रिय कौटिल्य के अनुसार, एक दमदार (प्राणवान) राजा को तमाम प्रतिद्वंद्वियों का खात्मा करके एकछत्र सम्राट बन जाना चाहिए। भीष्म से जब युधिष्ठिर पूछते हैं कि संघ राज्य में सदस्यों की आपसी दोस्ती और वैर के बीच संतुलन किस तरह साधा जाए? तो आज के अतिशय महत्वाकांक्षी नेतृत्व को उनका जवाब गौर से सुनना चाहिए: अगर संघ के चुने राजन्य में एकछत्र शासक बनने का लोभ और दूसरे सदस्यों का तेज न सह पाना - ये दो अवगुण उपज गए, तो देर-सबेर वे सारे गणराज्य में वैर और फूट का बीज बोते हैं। लिच्छवि गणराज्य में पले-बढ़े बुद्ध से अजातशत्रु ने भी कुछ ऐसा ही सवाल पूछा, तो उनका जवाब था कि गण प्रमुख के व्यवहार और वाणी में संयम तथा न्यायपरकता बहुत जरूरी है।
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बात को फिर वापस आज के भारत पर लाते हैं जहां राजनीति, अर्थनीति और राजनय मौसम की तरह अनिश्चित हैं। आज भारत दुनिया के सबसे ज्यादा विषाणु दुष्प्रभावित देशों की तालिका में 6वें पायदान पर है। लेकिन इस समय तीन महीने पुरानी तालाबंदी धीमे-धीमे खोली जा रही है। आवाजाही बढ़ने से रोग का संक्रमण बढ़ेगा, यह तय है, पर इतने दिन तक जबरन बंद गतिविधियों ने अर्थव्यवस्था का भट्ठा बिठा दिया है। इधर कुंआ, उधर खाई वाली दशा में खड़ा नेतृत्व करे भी तो क्या? तिस पर चीनका आंखें दिखाना, और संभवत: उसकी देखादेखी पाक और नेपाल का भारतीय सीमांकन को नकारते रहना इस भूभाग में चीन के साम्राज्यवादी विस्तार के मंसूबे दिखा रहा है। बस, अमेरिकी राष्ट्रपति भारत के प्रतिमिताई दिखाते हुए उसको जी7 में शामिल करने का आह्वान कर रहे हैं, पर खुद उनकी भी दशा ऐसी है कि नस्ली दंगे उनकी अपनी दहलीज पर आग लगा रहे हैं जबकि कोविड वहां एक लाख से अधिक जानें और 1930 के कुख्यात दशक से भी अधिक नौकरियां लील गया है।
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महाभारत युद्ध से आज तक जब-जब कोई बड़ा हादसा घटता है, बेलगाम हिंसा की भयावह कौंध में हमको बीते छ: सालों में बार-बार न्योते गए सांप्रदायिक, जातीय टकरावों, खेती की कीमत पर बड़े उपक्रमों को गैरवाजिब सब्सिडियां देकर दुनिया के सूचना जगत को नई तकनीकी से जोड़ने के जिद्दी सपने और देश-देश में कानून- दंड विधान के रखवालों और सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षाका लंबा शर्मनाक इतिहास दिखने लगता है। गरीबों की तकलीफ बयां करने को शब्द नहीं हैं, पर तकलीफ कम करने के नाम पर संगीत और योग से तन-मन को शांत रखने की सनक भरी अपीलें की जा रही हैं। मौकापरस्त नौकरशाही और वैधानिक संस्थाएं नखत पर नखत, तारे पर तारा भर बिठा रही हैं। तालाबंदी पूरी तरह हटाई नहीं जा सकती, न जस का तस कायम रखी जा सकती है। अब बड़ी चतुराई से तालाबंदी को किस तरह राज्यवार खोला जाए, संक्रमण की जांच तथा क्वारंटीन केंद्रों की व्यवस्था दरिद्र राज्य सरकारों के सुपुर्द कर दी गई। उनकी शिकायत है कि केंद्रीय खजाने से उनके हिस्से का वाजिब भुगतान भी नहीं हुआ। लिहाजा इस मोड़ पर पड़ोसी राज्यों के बीच एक बार फिर तिनके से मूसल बन रहे हैं। हरियाणा और उत्तर प्रदेश ने दिल्ली की सीमा सील की, तो दिल्ली ने अपनी सीमा बंद कर दी। अभी भयावह झंझावात से तबाह हो चुके बंगाल की इच्छा के विपरीत बड़ी तादाद में रेलों से प्रवासी भेजे जा रहे हैं जबकि यूपी-बिहार के प्रवासी मजदूर सड़कों पर हैं।
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ये तमाम उपद्रव केंद्र सरकार की पिछले छह सालों में नाना कर्णमधुर नामवाली बड़बोली, बहुप्रचारित, किंतु बांझ साबित होती गई योजनाओं और नीतियों की भीतरी पोल ही नहीं बताते, वे यह भी बताते हैं कि भारत में संविधान से बार-बार राजनीतिक स्वार्थों या बदला चुकाई के लिए इतना खिलवाड़ किया गया है कि अब हमारी पूरी संघीय गणतंत्र व्यवस्था ही चरमरा रही है। राजनीति का भारत के जनसामान्य से, लगता है, कोई मानवीय ताल्लुक नहीं बचा है। कभी कोई विरला पत्रकार, कोई जनसेवी संस्थाया यूएन की शाखा इस अंधेरी दुनिया के आंशिक प्रवक्ता बन जाते हैं। लेकिन उनमें से गरीबों की दुनिया का कोई स्थायी नागरिक नहीं और नही सरकार में है। ऐसे में वह ताकतवर होता, तो भारत के लिए अमेरिका या चीन से निवेश बहाली का दम रखता। लेकिन वह नहीं है क्योंकि विश्व रेटिंग एजेंसियां उसको आर्थिक, सामाजिक और राजनयिक मुहिमों में निरंतर कमजोर पड़ता दिखा रही हैं। विश्व मीडिया अपनी रिपोर्ट में यह दिखा रहा है कि भारतीय गणराज्य में भीतरखाने इतनी अंदरूनी ताकत, संघीय एकता नहीं बची है कि वह पूंजी निवेश के लिए निरापद क्षेत्र बने। इस सारी पृष्ठ भूमि में आत्मनिर्भर बनने का नारा कोई उत्साह या आशा नहीं जगा सकता।
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