राज्यसभा में जिस तरह मत विभाजन की मांग करने वाले विपक्ष को दूर हंकालते हुए ध्वनिमत से किसानों के जीवन- मरण से जुड़े बिल पारित कराए गए, उस पर देश भर में गुस्सा भी है और अचरज भी। क्या हमारे माननीय सांसद और सदनों के नेता नहीं जानते थे कि वजहें जो हों, भारत सरीखे कृषि प्रधान देश में आज किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडियों का भारी महत्व है। और यह भी, कि हमारे देश के 80 फीसदी किसान छोटे और हाशिये की श्रेणी में आते हैं जिनको विश्व की बड़ी व्यापारी कंपनियों से सीधे जुड़ने में बहुत समय लगेगा। कहा जा रहा है कि कृषि को अब सहकारिता की तरफ ले जाना होगा। जिस युग में बैंकों सहित हर तरह के सहकारी उपक्रम दिवालिया हो चले हों, वहां किसानों के लिए यह सलाह भी सहज उनके गले से नहीं उतरती।
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पुराने पत्रकारों को यह देख कर भी अचरज हुआ कि राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जो अपने संपादकीय वर्षों में अपने नीर, क्षीर, विवेकी संपादन के लिए जाने जाते थे, जिन्होंने अपने यशस्वी अखबार ‘प्रभात खबर’ को झारखंड की जनता की आवाज बना कर बिहार से झारखंड को जुदा करवाने की सफल मुहिम छेड़ी थी, ऐसी निर्ममता से विपक्ष की मत विभाजन की मांग को अनसुनी करते हुए पुरजोर विरोध करने वालों को सदन से बाहर कर ध्वनिमत से बिल को पारित करवा देंगे। यह मानना असंभव है कि उनको यह जानकारी न रही होगी कि कायदे से अगर विपक्ष का एक भी सदस्य किसी बिल पर मत विभाजन की मांग करे तो अध्यक्ष द्वारा मत विभाजन कराया जाना अनिवार्य बनता है। यह भी हम अनदेखा नहीं कर सकते कि इससे तनिक पहले खुद सत्तापक्ष के सहयोगी अकाली दल की महत्वपूर्ण मंत्री हरसिमरत कौर बादल भी इसी बिल के विरोध में पद त्याग कर चुकी थीं। पर अब जब बात हाथ से निकलने लगी है तो सारा सत्तापक्ष ‘प्रभात खबर’ को नवगठित झारखंड की आवाज बना देने वाले हरिवंश को आज बिहार का सपूत और उनका सांसदों द्वारा किया गया अपमान बिहार का अपमान बता रहा है। हिंदी के कतिपय सोशल मीडिया मंचों ने भी उनके द्वारा सुबह-सुबह खुद जाकर निष्कासित अष्टछापी सांसदों के लिए चाय लाने पर अहो साधु, अहो धरतीपुत्र करना चालू कर दिया है। लेकिन खबर है कि धरने पर बैठे सांसदों ने उनके द्वारा लाई गई चाय को पीने से इनकार कर दिया। पर पहले सारे देश की नजरों के सामने उनको सदन से दर बदर करने के बाद सादर चाय पिला देने से क्या पुराना मनोमालिन्य धुल जाता है? यह सच होता तो क्या दिल्ली से अहमदाबाद तक कई प्याले चाय पीकर लौटे चीन के शी जिनपिंग की सेना आज हमारी सीमा पर गुर्राते हुए यूं जबरन डटी दिखती?
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आंदोलन के फैलने के आसार हुए तो घरेलू मंच पर सरकार अब हर चंद बचाव की मुद्रा में नजर आ रही है। तीन वरिष्ठ मंत्री बचाव को उतारे गए। कृषि मंत्री ने चालू सीजन की रबी फसल समेत अगले 2 साल की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने का ऐलान कर दिया। मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आंकड़ों की ढेरी लगा कर बताया कि किस तरह उनकी सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार की तुलना में दोगुनी उपज खरीदी है। लेकिन पूछना होगा कि यही समर्थन मूल्य का मुद्दा बिल के मसौदे से काहे गायब रहा और तकरार की वजह बना? खुले बाजार के सामने निष्कवच महसूस कर रहे किसानों का भरोसा तो तभी बहाल होगा जबकि मंडियों की बाबत कुछ ठोस कदम उठाए जाएं जिनकी मार्फत वे अबतक अपना माल बेचते रहे थे। और न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे को दो-तीन बरस की फसलों से ही जोड़ने की बजाय नए कृषि कानून का स्थायी भाग बनाया जाए।
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महाभारतकार ने शायद ठीक ही लिखा था कि मंत्रिमंडल में वे ही लोग शामिल हों जिन्होंने कभी खुद हल की मूठ थामी हो। सौ बात की एक बात यह कि किसानों का असली डर बिल के मसौदे से नहीं, उसकी पृष्ठभूमि को लेकर उपजा है। निजी खरीदार कौन होंगे? कहां के होंगे? क्या बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां देर-सबेर जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने काम की फसल उगाने के लिए विकट दबाव 19वीं सदी में बिहार-बंगाल के निलहों पर डाला था, वै सा ही बरताव उनके साथ तो न करेंगी?
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आम नागरिकों को भी कई तरह की शंकाएं हैं। पहली यह कि सरकार को यदि इस सत्र में शिक्षा, कृषि और श्रम जैसे जन-जन से जुड़े मुद्दों पर अहम विधेयक लाने थे तो उन पर बाकायदा उभयपक्षी और लोकतांत्रिक बहस के लिए वाजिब समय तय करना भी सरकार की जिम्मेदारी थी। कोविड काल में समयाभाव अगर इस सत्र की विवशता थी तो इतने महत्व के विधेयक पर चर्चा भी जरूरी थी। पर प्रश्नकाल स्थगित किया गया, फिर कोविड संक्रमण को देखते हुए (जो वाजिब था) एक ही भवन में दोनों सदनों के बारी-बारी आधे-आधे दिन बैठने की व्यवस्था की गई। दोनों कदमों ने सीमित समय को और सीमित कर दिया। फिर कहा गया कि सत्र को संक्रमण का खतरा बढ़ते जाने के कारण घोषित अवधि से पहले ही खत्म करना होगा। इन सब बातों से वे सच हों न हों, जनता के बीच यह संदेश जा रहे हैं कि सरकार को कतिपय वजहों से बिल पारित कराने की इतनी हड़बड़ी है कि वह किसी तरह की बहस या प्रतिवाद में रमने की बजाय अपने संख्या बल से क्षेत्रीय भावनाओं को परे कर दोनों सदनों को हांकना सही मान रही है।
यह सच है कि पहले दूसरी सरकारें भी इस तरह की हड़बड़ी की दोषी रही हैं। लेकिन संघीय ढांचे और राज्यों की सूची में आने वाले विषयों पर दमदार बहस से उनकी इच्छा-अनिच्छा जान कर जरूरी संशोधन करने के प्रति इस तरह का उपेक्षा भावनया है। इसमें भी शक नहीं कि मंडियां और समर्थन मूल्य राजनीतिक भ्रष्टाचार के मठ बनते रहे हैं और बिचौलियों की जमाखोरी तथा स्टोरेज व्यवस्थान होने से सतत कर्जे में डूबे छोटे किसानों को अपनी मेहनत का वाजिब मोल शायद कभी मिल नहीं पाया। लेकिन नई व्यवस्था उससे फर्क होगी, इसके लिए इस विधेयक पर दमदार बहस होनी ही नहीं, होती हुई दिखनी भी थी। पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच संसद के मान्य नियम-कायदों की जो जोड़ने वाली लंबी ऐतिहासिक श्रृंखला अबतक सबने स्वीकार की, उसका यह सार्वजनिक तिरस्कार जनता को बहुत शोभनीय, न्यायसंगत या विधिसम्मत नहीं लगता।
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भारत में खेती सिर्फ अर्थशास्त्र नहीं बल्कि प्राण को यथा संभव बचाने की विधि है। इससे हमारी सदियों की सामाजिक मान्यताएं, मनो वैज्ञानिक जुड़ाव और धार्मिक परंपराएं भी रक्तवाहिनियों की तरह जुड़ी हुई हैं। इतनी बड़ी महामारी के बीच भी भारतीय अर्थव्यवस्था की नाक अगर किसी उद्योग ने बचाई तो वह किसानी ही है। उस किसानी को नए रूप में किसानों के लिए पर्याप्त मुनाफे से जोड़ने के लिए किसानों को फसलों तक सीमित न्यूनतम दाम से जोड़ देना, जय किसान के नारे लगाना या चारेक साफा पहने किसानों को दूरदर्शन पर हाथ में धान की बालियां लिए हुए दिखाना नाकाफी होगा। उनको स्थायी बचत, बचत जमा करने के लिए ईमानदारी से चलाए जा रहे अनेक बैंक, कृषि उद्योग पर आधारित उद्योगों का तानाबाना और उनके पशुधन की जरूरी खरीद-फरोख्त के बारे में गैर राजनीतिक सोच से फैसले लेने होंगे। नई खेती हमारी ड्योढ़ी पर भले हो, अभी वह हमारे घर के भीतर नहीं आई है। अन्नपूर्णा को बिठाने के लिए सरकार को अपनी ड्योढ़ी अधिक ऊंची और अपना आचरण अधिक विनम्र बनाना होगा।
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