भारत के अलग-अलग राज्यों में हाल में हुए उपचुनावों में बीजेपी की हार ने 2019 के आम चुनावों को लेकर अटकलबाजियों को जन्म दे दिया है। इस मुद्दे पर हम पहले भी राज्यवार चर्चा कर चुके हैं और मैं उसे दोहराना नहीं चाहता हूं। एक बात जो समझने योग्य है, वह ये है कि अगर विपक्ष का बड़ा हिस्सा एकजुट रहता है तो बीजेपी के लिये लोकसभा की 120 से ज्यादा सीटों को बचा पाना मुश्किल होगा।
अगर ऐसा होता है तो बीजेपी की संख्या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में कांग्रेस की संख्या के बराबर हो जाएगी। कम से कम अभी जिस तरह के हालात हैं उनमें मुझे नहीं लगता है कि निकट भविष्य में बीजेपी के हाथ से सबसे बड़ी पार्टी होने का तमगा छिन जायेगा। बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी रहेगी और यह पार्टी नेतृत्व को नए सिरे से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन बनाने का विकल्प देगी। कभी एनडीए का हिस्सा रहीं तमिल पार्टियों जैसी वे क्षेत्रीय पार्टियां जो आज इसका हिस्सा नहीं हैं, इसमें शामिल हो सकती हैं।
वैसी पार्टियां जो कभी एनडीए का हिस्सा रही थीं, लेकिन विरोधी बन गईं, फिर से शामिल हो सकती हैं या तटस्थ रह सकती हैं। चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी और नवीन पटनायक की बीजू जनता दल ऐसी ही दो पार्टियां हैं और अन्य दूसरे दल भी हैं। बीजेपी अगर गिरकर 70 या 80 सीट पर भी आ जाए तो भी शायद बीजेपी के लिये सत्ता में लौटना संभव होगा।
ऐसे में दो बातें बेहद दिलचस्प होंगी। पहला, सीटों के नुकसान और बहुमत में कमी पर बीजेपी आंतरिक रूप से किस तरह जवाब देती है और दूसरी बात ये कि पार्टी का नेतृत्व अपने उन गठबंधन सहयोगियों को किस तरह साधता है, जिनके पास वीटो अधिकार है। पहली बात, नरेंद्र मोदी के लिये पूरी तरह से नई स्थिति होगी। पाठकों को याद होगा कि वह बिना एक चुनाव लड़े गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए थे। उन्होंने हमेशा बहुमत का नेतृत्व किया है। आरएसएस और बीजेपी के नेतृत्व को लगा था कि गुजरात बीजेपी में गुटबाजी की वजह से पैदा हुए मतभेद को खत्म करने की आवश्यक्ता है और इसलिए मोदी को वहां भेजा गया था।
मोदी के शासन काल के कुछ महीनों में गुजरात जलने लगा था। उसके बाद मोदी ने अपनी सरकार को लगातार जीत दिलाई और मुख्यमंत्री के रूप में उनका एकमात्र अनुभव उन सरकारों का नेतृत्व करना रहा है, जिनके पास या तो पूर्ण बहुमत था या दो-तिहाई से ज्यादा बहुमत था।
उन्होंने अपनी जीत के साथ अर्जित अधिकार का उपयोग गुजरात बीजेपी पर पूरी तरह से अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिये किया। केशुभाई पटेल और 6 बार के लोकसभा सांसद रहे कांशीराम राणा जैसे पुराने नेताओं और पार्टी निर्माताओं को किनारे लगा दिया गया। मोदी ने अपने कैबिनेट का चुनाव किया और सभी प्रमुख विभाग अपने पास रखते हुये अपना प्रभुत्व कायम रखा।
आज अमित शाह को देश में दूसरे सबसे ताकतवर नेता के तौर पर देखा जाता है और वह हैं भी। लेकिन यह याद रखें कि गुजरात में मोदी की सेवा के एक दशक में मोदी ने उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा नहीं दिया, सिर्फ राज्य मंत्री ही बनाकर रखा।
मोदी के पूर्ण प्रभुत्व का मतलब है कि पार्टी में दूसरे लोगों के पास कोई विकल्प नहीं बचा। जिन लोगों को मोदी ने किनारे लगाया मोदी की जीत की वजह से उन लोगों को फिर से आगे बढ़ाने के लिये कोई एजेंसी नहीं थी। ऐसी अफवाहें थीं कि आरएसएस मोदी के सत्ता के केंद्रीकरण से नाखुश था, लेकिन कुछ हुआ नहीं। उल्टा उन्होंने गुजरात में कुछ आरएसएस नेताओं का खेल भी खत्म कर दिया।
मोदी के 2014 के शानदार अभियान ने दिल्ली में भी इसी तरह की स्थिति पैदा की थी और वह एक ऐसी पार्टी के निर्विवाद नेता थे, जिसमें पहले कुछ मतभेद तो थे लेकिन कांग्रेस की तुलना में वह हमेशा अधिक अनुशासित रही।
आडवाणी और जोशी जैसे पुराने नेताओं को किनारे लगा दिया गया। सुषमा स्वराज जैसे अन्य नेताओं को समर्पण करना पड़ा। यह पार्टी आज एक बड़े खुशहाल परिवार के रूप में देखी जाती है, लेकिन यह है नहीं। अन्य सभी पार्टियों की तरह इसमें भी कई लोग ऐसे हैं जो खुद को और बेहतर कर सकने योग्य मानते हैं लेकिन उन्हें जानबूझ कर दबाया जा रहा है।
ऐसी स्थिति में जब बीजेपी के पास सिर्फ 210 सीटें होंगी, तब ये लोग अपने आपको इस तरह से रखेंगे जैसा वे अभी नहीं कर रहे हैं। इनमें मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रीय नेता और लॉबी समूह के रूप में एक साथ आने वाले छोटे-छोटे गुट शामिल हैं।
यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी किस तरह अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार बहुमत के बिना महत्वाकांक्षाओं और संघर्षों का प्रबंधन करने में सक्षम होते हैं। दूसरी बात सहयोगियों का प्रबंधन होगा। 210 सीटों पर प्रधान मंत्री की स्थिति मनमोहन सिंह की तरह होगी। मनमोहन सिंह को गलत तरीके से कमजोर मान लिया गया। इस कमजोरी को ऐसे व्यक्ति की व्यक्तिगत असफलता के रूप में देखा गया, जिसके सहयोगियों के पास वीटो अधिकार था।
ऐसे गठबंधन सहयोगियों के सामने शदाहत के अलावा बचाव का कोई रास्ता नहीं है। ऐसी स्थिति में या तो आप सरकार या किसी के पद का बलिदान कर सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन अगर कोई ऐसी सरकार का नेतृत्व करना चाहता है जिसके पास बहुमत नहीं है तो उसे सहयोगियों को उसमें समायोजित करना पड़ेगा।
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फिर से यह ऐसी चीज है जिसे करने की मोदी को कभी जरूरत नहीं पड़ी। अल्पमत की सरकार चलाने के लिये लचीलेपन और अपमान का घूंट पीने की क्षमता की आवश्यकता होती है। सहयोगी यह चाहेंगे कि सरकार पर उनकी पकड़ सबको नजर आये और इसका मतलब सरकार को कुछ मौकों पर झुकना होगा। यह देखना दिलचस्प रहेगा कि मोदी इससे किस तरह से निपटते हैं। खासकर हम जैसे लोगों के लिए जिन्होंने उनके करियर के तेज उभार को देखा है।
मैंने इससे पहले लिखा है कि अल्पमत सरकारें और खिचड़ी गठबंधनों ने भारत के आर्थिक और सामाजिक विकास को कतई नुकसान नहीं पहुंचाया है। जो लोग अल्पसंख्यक सरकार या कमजोर बीजेपी से डरते हैं, उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं है। गठबंधन बुरे नहीं होते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी इसे किस तरह चलाते हैं।
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