विचार

विपक्ष अभी तक देश में तलाश रहा लोकतंत्र, यहां प्रजातंत्र की बात करना ही बेईमानी!

संसद में अब वही होता है जो सत्ता की मर्जी होती है, दोनों सदनों के सभापति पूरी निष्ठा से सत्ता के प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं, और यही इनकी एकमात्र विशेषता है।

तरकीबों की कमी से जूझ रहा है भारत का विपक्ष
तरकीबों की कमी से जूझ रहा है भारत का विपक्ष 

अगले वर्ष, 2024, दुनिया में प्रजातंत्र के परीक्षा की घड़ी है क्योंकि इस वर्ष भारत, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका समेत दुनिया के 40 से अधिक देशों में चुनाव होने हैं। इन देशों में दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी बसती है और कुछ देश तो दुनिया के सबसे शक्तिशाली और समृद्धतम देश हैं। साउथ सूडान जैसे कुछ देश सबसे गरीब हैं, जबकि ईरान और रूस में निरंकुश और तानाशाह सत्ता है और ताइवान और यूक्रेन जैसे देश युद्ध या युद्ध जैसे हालात से घिरे हैं। वर्ष 2023 में भी लगभग 40 देशों में चुनाव कराये गए थे, पर पोलैंड को छोड़कर कहीं भी जीवंत प्रजातंत्र की वापसी नहीं देखी गयी थी। जिन देशो को प्रजातंत्र की श्रेणी में रखा गया है उनमें से भी अधिकतर में सत्ता प्रजातंत्र को लगातार ख़त्म कर रही है और निरंकुश हो चली है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन भी लगातार प्रजातंत्र को नकार रहे हैं तो दूसरी तरफ भारत में तो प्रजातंत्र को पूरी तरह से दफ़न कर दिया है।

 देश के मरे प्रजातंत्र का हाल तो देखिए, देश की हुकूमत, उपराष्ट्रपति और राज्य सभा के अध्यक्ष जगदीप धनकड़ के लिए संसद के भीतर सुरक्षा चूक का मामला ऐसा ऐरा-गैरा मामला है कि उसपर संसद में बहस या गृहमंत्री का बयान जरूरी नहीं है। बात यहीं ख़त्म नहीं होती बल्कि इसकी मांग करते सांसदों से अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाता है, जिन्हें सदन से बाहर करने का आदेश ही नहीं बल्कि दैनिक भत्ता बंद करने का और सदन में प्रवेश नहीं करने का आदेश भी तत्काल जारी किया जाता है। दूसरी तरफ यही महोदय संसद के भीतर अपने प्रतिष्ठित सिंहासन पर बैठ कर प्रिय बीजेपी सांसदों को एक युवक और एक बुजुर्ग के बस यात्रा की कहानी खिलखिलाकर सुना रहे हैं और सदन के बाहर की गयी एक मिमिक्री पर भर्राई आवाज में सबकुछ छोड़ जाने की हास्यास्पद धमकी दे रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से संसद एक मजाक भर रह गयी है। अब संसद प्रजातंत्र का मंदिर नहीं बल्कि बीजेपी का अघोषित मुख्यालय बन गया है। एक बड़ा अंतर यह है कि घोषित मुख्यालय में देश चलाने के क़ानून नहीं पारित होते पर अघोषित मुख्यालय में यह काम बड़ी आसानी से किया जाता है और लगातार किया जा रहा है।

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जिस देश में जनता अफीम खा कर सो गयी हो, पूरा मीडिया नंगा खड़ा हो, सभी संवैधानिक संस्थाएं अपनी रीढ़ सत्ता के हाथों में सौंप चुकी हैं और न्यायालयों के विद्वान न्यायाधीश क़ानून-व्यवस्था की बातें केवल न्यायालय के बाहर अपने भाषणों में सीमित रखते हों– वहां प्रजातंत्र की बात करना ही बेईमानी है। देश की सत्ता वर्ष 2016 की नोटबंदी के बाद से आश्वस्त है कि जनता मर भी जाये तब भी उसे केवल मोदी ही दिखाई देंगे, पर आश्चर्य यह है कि इतने सालों बाद भी विपक्ष देश में प्रजातंत्र पर हमले की बात कर रहा है – तथ्य यह है कि देश में प्रजातंत्र का अस्तित्व ही नहीं है और जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसपर कैसा हमला?

देश की स्थिति कैसी है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अब हरेक संवैधानिक पदों की जाति और पेशा भी होने लगा है। जगदीप धनकड़ जी ने मिमिक्री मामले में सदन के सामने भर्राई आवाज में कहा कि “मेरी बेइज्जती से मुझे फर्क नहीं पड़ता है, पर यह एक गरिमामई पद की बेइज्जती है, एक पूरी जाति का और किसानों का अपमान है।” ऐसा शायद ही दूसरा मौक़ा हो जब उपराष्ट्रपति पद की जाति और पेशा भी मायने रखता हो, यदि यह सब जगदीप धनकड़ जी के लिए महत्वपूर्ण हैं, संसद में रोते हुए बताने लायक है तब निश्चित तौर पर वह अपने पद का स्वयं अपमान कर रहे है। इसके बाद किसी बीजेपी सांसद ने ऊंची आवाज में कहा कि यही लोग राष्ट्रपति का अपमान करते हैं, प्रधानमंत्री के ओबीसी होने का मजाक करते हैं। अब देश में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद की भी जाति निश्चित हो गयी है – जाति यदि महत्वपूर्ण है तब पद की गरिमा का सवाल ही नहीं उठता।

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हास्यास्पद तो यह है कि मिमिक्री को अपमान बताते हुए प्रधानमंत्री जी भी उपराष्ट्रपति को सांत्वना देते हुए फ़ोन पर बात करते हैं। हास्यास्पद, इसलिए क्योंकि उनकी पूरी राजनीति, भाषणों और वक्तव्यों का आधार ही विपक्षी नेताओं की मिमिक्री है। शायद इसीलिए उन्हें दूसरे लोग जब मिमिक्री करते हैं तब पसंद नहीं आता। बीजेपी दौर में वैसे भी कला के इस खूबसूरत स्वरुप पर कड़े पहरे बैठा दिए गए हैं। मिमिक्री को कला नहीं बल्कि अपराध की एक श्रेणी करार दी गयी है। हमारे प्रधानमंत्री जी का कुछ कलाओं – मिमिक्री और गले पड़ना – पर एकाधिकार है।

वैसे भी मिमिक्री भले ही बीजेपी को न भाती हो पर हम सभी के जीवन का आधार है – बचपन से ही हम अपने से बड़ों, विशेषतौर पर अपने अभिभावकों जैसा बनना चाहते हैं और हमारे व्यवहार में जाने-अनजाने उनके चलने का, बोलने का, दूसरों से मिलने का अंदाज शामिल हो जाता है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है, और बीजेपी नेताओं के लिए भी सही है। जब हम कोई फिल्म देखते हैं तब अभिनेताओं के तौर-तरीके अपनाते हैं। हिटलर की मिमिक्री करने वाले चार्ली चैपलिन दुनिया के सबसे मशहूर एक्टर बन गए। स्टेज पर हरेक नर्तक माइकल जैक्सन की नक़ल उतारता है। 20 सितम्बर 2022 को कॉमेडियन और बीजेपी से जुड़े राजू श्रीवास्तव के निधन पर शोक सन्देश देने वालों में प्रधानमंत्री जी सबसे आगे थे – उनकी तो पूरी कॉमेडी ही अमिताभ बच्चन और लालू यादव सरीखे हस्तियों की मिमिक्री पर आधारित थी।

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 मिमिक्री केवल सामान्य जीवन में ही नहीं है, बल्कि विज्ञान में भी भरपूर है। विज्ञान के अधिकतर आविष्कार प्रकृति के विभिन्न अवयवों की मिमिक्री है। कीट, पतंगों को उड़ते देखकर यदि आप वायुयान का आविष्कार करते हैं तो यह मिमिक्री ही तो है। लगभग पूरा चिकित्सा विज्ञान ही प्रकृति की मिमिक्री पर आधारित है। इसे बायो-मिमिक्री कहते हैं।

संसद में अब वही होता है जो सत्ता की मर्जी होती है, दोनों सदनों के सभापति पूरी निष्ठा से सत्ता के प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं, और यही इनकी एकमात्र विशेषता है। पूरा मणिपुर जल रहा है, खुलेआम हत्याएं की जा रही हैं, सामूहिक तौर पर शवों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है, महिलाओं से सामूहिक बलात्कार किए जा रहे हैं – पर देश की संसद, इसके अध्यक्ष और सत्ता के लिए यह संसद का विषय नहीं है। देश में बेरोजगारी बढ़ रही है और बेरोजगारों में आत्महत्या की दर बढ़ रही है – पर यह संसद का विषय नहीं है। यही हालत किसानों की भी है। संसद में यदि किसी विषय पर चर्चा की भी जाती है तो सरकार के पास आंकड़े नहीं होते।

 संसद में सत्ता के पास आंकड़े भले ही नहीं हों पर सडकों पर लगे पोस्टरों में बिना किसी आधार वाले आंकड़े नजर आ जाते हैं। मसलन संसद में भले ही गरीबी के आंकड़े नहीं हों, पर पोस्टरों में 80 करोड़ जनता को मुफ्त राशन, 55 करोड़ लोगों को हरेक वर्ष 5 लाख तक मुफ्त इलाज और 16 करोड़ किसानों को 6000 रुपये की वार्षिक सहायता नजर आती है। इन सबके बीच सत्ता जनता को विकसित भारत और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का बेशर्म सपना दिखा रही है।

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प्रधानमंत्री मोदी के इन दावों की पड़ताल करने पर कुछ तथ्य भले ही उनके समर्थक और मीडिया देखना न चाहें, पर हम पूंजीवादी विकास के बारे में कुछ तो समझ ही सकते हैं। नीति आयोग और प्रधानमंत्री मोदी के 5 वर्षों में 13.5 करोड़ आबादी के बेहद गरीबी से बाहर निकलने के दावों पर बिना झिझक विश्वास कर भी लें, तो मुफ्त अनाज के लाभार्थी 80 करोड़ आबादी को बेहद गरीबी से बाहर आने में इस दर से लगभग 30 वर्ष और लगेंगे।

 हमारे देश का भविष्य भले ही खरबों डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला हो पर कितना कुपोषित होगा इसका भी अंदाजा लगाया जा सकता है। सरकार 80 करोड़ आबादी को हरेक महीने 5 किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल दे रही है। इस हिसाब से हरेक व्यक्ति के हिस्से एक दिन में लगभग 170 ग्राम गेहूं या चावल और लगभग 35 ग्राम दाल आयेगी। हरेक ग्राम गेहूं के आंटे का कैलोरी मान 3.6 कैलोरी, एक ग्राम चावल में 1.3 कैलोरी और एक ग्राम दाल में लगभग 1 कैलोरी उर्जा होती है। इसका मतलब है कि हरेक दिन रोटी और दाल खाने वाले को औसतन 650 कैलोरी और चावल और दाल खाने वाले को महज 255 कैलोरी उर्जा मिलेगी। वैज्ञानिकों और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक वयस्क व्यक्ति को पर्याप्त पोषण के लिए हरेक दिन कम से कम 2000 कैलोरी की आवश्यकता होती है। मोदी सरकार ने नवम्बर 2023 में ऐलान किया है कि वर्ष 2028 तक इन 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज मिलता रहेगा। जाहिर है, सरकार स्वीकार करती है कि इन 80 करोड़ लोगों में से एक भी आदमी अगले 5 वर्षों के दौरान अत्यधिक गरीबी से बाहर नहीं आएगा, और यह आबादी कम से कम अगले 5 वर्षों तक कुपोषित ही रहेगी। इसके बावजूद मोदी सरकार के लिए भारत विश्वगुरु, विकसित और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन रहा है।

 देश में प्रजातंत्र मर चुका है – यह तथ्य अब विपक्षी नेताओं को भी स्वीकार करने की जरूरत है। अब विपक्षी नेताओं को दिल्ली का मोह और जंतर-मंतर रोड से संसद भवन तक पैदल मार्च का मोह त्याग कर जनता के बीच नए सिरे जाना होगा और उन्हें जगाना होगा। यह काम कठिन है पर देश में प्रजातंत्र फिर से बहाल करने का यही एकमात्र तरीका बचा है। हमारी वर्तमान सत्ता तो हिंसा के मामले में अब अंतरराष्ट्रीय तौर पर बदनाम हो चली है, फिर प्रजातंत्र की उम्मीद ही बेईमानी है।  

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