क्षेत्र के प्रत्याशी भैया जी कल मुझे मिल गए। सुपरलेटिव डिग्री में उद्विग्न थे। चुनावी सरगर्मी के पसीने में लथपथ थे। मैंने कहा- ‘आज अकेले ही निकल लिए हैं। आपके समर्थक गण साथ में नहीं हैं!’ वह हंसने लग गए- ‘अरे भाई, उधर चौराहे पर कोई न्यूज चैनल वाले मजमा जमाए हुए हैं। मैंने अपने सभी समर्थकों को उधर रवाना कर दिया है। वहां पर जब भी कोई मेरी पार्टी के विरोध में कुछ बोलेगा, मेरे ये समर्थक मेरे नाम की जय-जयकार करने लग जाएंगे।’
अतिगर्वित मुद्रा में मुर्गे की तरह अपनी गरदन को फुलाते हुए भैया जी बोले, ‘आपको शायद पता नहीं होगा कि चुनाव में अपने विरोधी दलों की आवाज को लोकतात्रिंक तरीके से दबाने का यह नया नुस्खा मेरा ही ईजाद किया हुआ है।’ मैंने कहा- ‘मैं क्या, सभी लोग जानते हैं। आपका यह प्रबंधन-चातुर्य हम पिछले चुनाव में भी देख चुके हैं। मीडिया का जमाना है। आज के दौर में जो मीडिया को साध लेता है, उसको अश्वमेध यज्ञ जैसा पुण्य प्राप्त होता है। यदि चक्रवर्ती सम्राट बनना हो, तो मीडिया में निरंतर अपने नाम का सहस्र जाप कराने से ही सर्वसिद्धि संभव है।’
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भैया जी अपने नथुने फुलाते हुए बोले- ‘और यह अमोघ विद्या मैंने सिद्ध कर रखी है। यह सब मैंने कुछ प्रलोभन और कुछ भय दिखलाकर सहज ही हासिल कर लिया है। इसीलिए आपको अब चारों दिशाओं में मेरे नाम की ही जय-जयकार सुनाई दे रही है।’ मैंने कहा-‘यह तो मुझे ही क्या, पूरे इलाके को पता है कि आपने एक नए प्रकार की राजनीति का सूत्रपात किया है। इसमें अपने विपक्षी दलों की निंदा को प्रमुखता देना ही भाषण का ध्येय हुआ करता है।’
भैया जी मुस्कुराने लगे और बोले- ‘मुझे रस्सी को सांप बनाने की यह कला मेरे गुरु ने सिखलाई थी। मैंने उस कला को पहले अपने आदरणीय गुरु पर ही आजमाया। उसी सांप से अपने गुरु जी को ही सबसे पहले डंसा। अब उनका अता-पता नहीं मिलता है। अब उस विद्या को अपने विरोधियों के विरुद्ध आजमा रहा हूं।’
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एक जमाना वह भी हुआ करता था, जब राजनीति में भी एक सामान्य शिष्टाचार पाया जाता था। दो राजनीतिक दलों के प्रत्याशी भले चुनाव प्रचार के दौरान एक दूसरे की आलोचना किया करते थे, लेकिन बाद में एक ही ढाबे पर चाय पीते हुए भी देखे जा सकते थे। तब चाय की चुस्की हंसी-मजाक का माध्यम हुआ करती थी। चाय दो दिलों को जोड़ा करती थी। लेकिन हमारे भैया जी का ही कमाल है कि उस चाय को भी उन्होंने वोट का जरिया बना दिया। उन्होंने चुनाव आयोग वालों को न जाने कौन-सी चाय की घुट्टी पिला दी कि उन्होंने भैया जी को ‘चाय पीता हुआ आदमी’ चुनाव चिह्न आवंटित कर दिया।
इसके बाद तो भैया जी ने चाय को अपना ब्रांड ही बना लिया। अब वे अपने हर भाषण में चाय की चर्चा करने का अवसर नहीं चूकते हैं। उनसे ‘फणी’ के तूफान पर बोलने को कहो, तो भैया जी अपनी बात ओडिशा से शुरू करेंगे, फिर बंगाल की ओर बढ़ जाएंगे। इसके बाद धीरे से दार्जिलिंग का नाम लेते हुए वहां के चाय बागानों का जिक्र करने लग जाएंगे। इसके पश्चात वह तुरंत अपने आप को इस चाय से जोड़ते हुए अपने लिए वोट मांगने लग जाएंगे।
आज चाय भैया जी का प्रतीक बन चुकी है। इसे ही वह रस्सी को सांप बनाना कहते हैं। भैया जी अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। अब तक के तमाम सारे प्रायोजित सर्वे भी यही बताते रहे हैं कि भैया जी ही पार्टी के ‘सर्वेसर्वा’ हैं। उनका चुनाव-प्रबंधन तो कमाल का है। वे फेक ओपिनियन पोल्स के कोलंबस कहे जाते हैं। अपने पक्ष में माहौल तैयार करवाने के लिए उनके पास प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की एक भरी-पूरी टीम है।
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इन्हें वह पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता कहते हैं। यह दीगर बात है कि वह सभी लोग ‘पेड’ हुआ करते हैं। उनके खेमे में इन लघु रोजगार प्राप्त कार्यकर्ताओं का सबसे बड़ा उपयोग मात्र इस बात के लिए किया जाता है कि किस तरह से अपने विरोधियों का चरित्र हनन किया जा सके! भैया जी को यह काम करवाने में बड़ा ही आनंद आता है।
भैया जी इस बात को लेकर शत-प्रतिशत आश्वस्त हैं कि दूसरों को नीचा दिखाकर अपने को महान सिद्ध करने की नई राजनीति का आरंभ करने के लिए उन्हें अवश्य इतिहास में याद किया जाएगा। आगे चलकर हमें इस बात पर भी कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि कल कोई देश भैया जी को उनकी इस देन के लिए कोई बड़ा पुरस्कार भी थमा दे।
भैया जी को उनकी पार्टी ने अपना स्टार प्रचारक भी बना रखा है। लेकिन वह अपने को स्टार प्रचारक कहलाना पसंद नहीं करते हैं। लोग इसे उनकी विनम्रता समझते हैं जबकि असलियत में वह ‘स्टार’ कहलाने में अपनी तौहीन मानते हैं। वह कोई चांद-तारा नहीं हैं। आसमान में तारे अनेक हैं। परंतु अपने भैया जी तो ‘यूनीक’ हैं। वे अपने को पार्टी ही नहीं, देश का सूर्य कहलाना चाहते हैं। वह भी एक ऐसा सूर्य जो देश से अधिक विदेशों में अपनी चमक बिखेरे।
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भैया जी की यह दृढ़ मान्यता है कि आज की भारतीय राजनीति के सौर मंडल में उनसे अधिक प्रकाशमान कोई दूसरा ग्रह नहीं है। सच भी है, जिसकी कुंडली में धन का स्वामी राहु और पद का स्वामी केतु एक ही भाव में विराजमान हों, राजसत्ता उसके चरण चूमा करती है। भैया जी अति आत्मविश्वास के भी धनी हैं। वह जानते हैं कि अपनी सीट तो निकाल ही लेंगे। अपने चुनाव क्षेत्र की भोली-भाली जनता को लुभाने के लिए एक दिन का रोड-शो बहुत है। उन्हें फिलहाल पार्टी के लिए बहुमत की सीटें दिलवानी हैं। समय कम बचा है और जमीनी हालात कुछ समझ में नहीं आ रहे हैं। उधर मतदाता हैं कि चुप हैं।
भैया जी ने मुझसे कहा, ‘ये साइलेंट वोटर बड़े घातक होते हैं। ये न तो अपने मन की बात को जाहिर करते हैं और न ही दूसरे के मन की बात को समझते हैं। वह अपने चुनावी भाषणों में ईरान-तूरान-पाकिस्तान की चर्चा कर चुके हैं। देशभक्ति-राष्ट्रवाद के जज्बे को जगा चुके हैं। आतंकवाद-अलगाववाद की दुहाई दे चुके हैं। सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने वालों की थुक्का-फजीहत कर चुके हैं। लेकिन ये चुप्पा वोटर खुलकर कुछ बोल ही नहीं रहे हैं।’
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भैया जी हवा बनाने में पारंगत हैं। काफी कुछ बना भी चुके हैं। लेकिन खुद हवा का रुख भांप नहीं पा रहे हैं। उनकी इस परेशानी को भांपते हुए जब मैंने उनसे कहा कि बैठिए, मूड फ्रेश कीजिए और एक कप चाय पी लीजिए, तो वह बोले- ‘चाय तो पी लूंगा, किंतु बैठने में टेक्निकल डिफीकल्टी है। आप हमारे इलाके के एक बुद्धिजीवी हैं। मैं आपके पास एक खास काम से आया हूं। चुनाव के वे सारे मुद्दे जिनके जरिए वोट पाए जा सकते हैं, मैं अपने पिछले चुनाव में उठा चुका हूं। मतदाता भी तब मेरे झांसे में आ गए थे। मैं जीत गया था। आप तो जानते ही हैं कि काठ से बनी हुई चाय की केटली बार-बार नहीं चढ़ती है। इस नाते इस बार नए-नए मुद्दे ढूंढ़ता फिर रहा हूं। आप ही कुछ नया सुझाइए, जिससे मैं अपना अगला चुनावी भाषण किस नए पैंतरे से शुरू करूं?’
मैंने भैया जी से कहा- ‘बिजली, सड़क, पानी, रोजगार, भ्रष्टाचार, महंगाई को आप जमीनी मुद्दे मानते हैं कि नहीं!’ भैया जी पहली बार ठहाका मार कर हंसे। फिर बोले- ‘आपको इससे बढ़िया मजाक नहीं आता है क्या? आता है कि नहीं आता है। अब आप मेरी बात को ध्यान से सुनिए। मैं इन सबका जिम्मेदार नहीं हूं। ये सब समस्याएं क्यों हैं? क्योंकि पहले की सरकारों ने इन पर ध्यान नहीं दिया। तो मेरी जिस बात की जवाबदेही ही नहीं बनती है, उन्हें अपना चुनावी मुद्दा बनाना न तो कायदे की बात है, न ही यह किसी काम का है। मैं उन्हें अपनी जुबान पर लाना भी महापाप समझता हूं। मेरी तो उस प्रसिद्ध फिल्मी संवाद में गहरी आस्था है, जिसमें कहा गया है कि- मैं जहां खड़ा होता हूं, लाइन वहीं से शुरू होती है। मैं भी एक नई लकीर खींचने में लगा हुआ हूं। एक ऐसी लकीर, जिसके आगे इतिहास में अब तक की खींची जा चुकी सभी लकीरें छोटी पड़ जाएं। वैसे भी अपने पूर्वजों को कोसने में मुझे आत्मिक आनंद मिलता है। उनकी खींची हुई लकीरें मिटाना बचपन से मेरी हॉबी रही है। मैं फकीर हूं, लेकिन लकीर का फकीर नहीं हूं।’
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इतना बोलकर वे कुछ देर तक मौन हो गए। फिर लगभग चीखते हुए-से आर्किमीडीज के ‘यूरेका’ की याद दिलाते हुए बोले- ‘मिल गया! मिल गया!! नया मसाला मिल गया!’ यह कहकर वह उठे और तेज आवाज में ‘वंदे मातरम्’ बोलकर मुझसे दूर चले गए। उन्हें अपनी अगली चुनावी सभा के लिए एक नया मुद्दा जो मिल चुका था। अभी-अभी मैं एक न्यूज चैनल पर भैया जी का भाषण सुन रहा हूं। भैया जी ने ‘मैं भी फकीर’ का नया नारा उछाल दिया है। रोज नए नैरेटिव सेट करने में भैया जी का जवाब नहीं है। वह कब किस बात पर ध्रुवीकरण का गेम खेल जाएंगे, यह समझ पाना एक यक्ष प्रश्न है। कदाचित मतदाता ही इसका उत्तर दे सकते हैं। फिलहाल तो अगली 23 मई को इसका जवाब मिलना तय है।
(इस व्यंग्य के लेखक सूर्यकुमार पांडे हैं)
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