संतो, यह कहानी दरअसल वेताल पचीसी की एक लुप्त छब्बीसवीं कहानी है जिसकी एक जीर्ण-शीर्ण कॉपी हमको गंगा तट की रेती से मिली है।
एक बार राजा विक्रम के राज्य में अचानक राज्य में संक्रामक महामारी का भीषण प्रकोप हो गया। लोग चींटियों की तरह मर रहे थे। तुरंत आपातकालीन मीटिंगों का दौर शुरू हुआ। राजा विक्रम एक-एक कर अपने सभी नवरत्नों की क्लास ले रहे थे, कि उनके सिंहासन पर रहते यह महामारी किस तरह हुई, और नौ-नौ रत्न भी उसे गांवों तक फैलने से काहे नहीं रोक पाये? राजा के कोप से सबकी घिग्घी बंधी थी। सब थर-थर कांप रहे थे। जभी स्वास्थ्य सचिव ने विनम्रता से बताया कि मां गंगा में कफन में लिपटे कई शव बहकर तट पर आन लगे हैं और गांव वालों की इस लापरवाही की वजह से ही संक्रमण बढता जा रहा है। लिहाज़ा देश के सबसे दबंग तांत्रिक को शव साधना से सही हल खोजने को भेज दिया गया है।
विक्रम ने तुरंत तलवार ली और अपनी घोड़े पर बैठ कर जा पहुंचा मां गंगा के तट पर। वहां जाकर क्या देखता है कि बड़ा तांत्रिक साधक, जो उस सूबे का सूबेदार नियुक्त था, भगवा कपड़ों में एक उल्टे शव की पीठ पर बैठा जप मंत्रादि से सिद्धि साधना कर रहा है। राजा को पता था कि कोई सिद्ध तांत्रिक जब साधना करता हो, उसके बीच किसी को नहीं बोलना चाहिये, न ही सामने दिखना चाहिये। यदि सूबेदार तांत्रिक सही तरह शव साधना करेगा, तो शव की गर्दन उलटी तरफ घूमकर साधक के सभी सवालों के जवाब देने लगेगी। तब संभव है महामारी रोकने का तरीका मिल जाये। यह सोचकर बातून राजा विक्रम चुपचाप पेड़ के पीछे छुपकर साधना देखने लगा।
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साधना खत्म हुई। धीमे-धीमे मुर्दे की गर्दन घूमी और उसका मुख तांत्रिक सूबेदार के सामने आ गया।
‘बोल क्या चाहिये?’ शव बोला।
-‘सर वो महामारी को रोकना था।’ तांत्रिक बोला। ‘वरना राजा जो मुझे वैसे ही अपना राइवल मानता है, मेरा सर कलम करा देगा।’
हा हा हा, शव हंसा। ‘सुन बे, यह महामारी हुई है क्योंकि तुम्हारा राजा चापलूसी पसंद है और तुम सब उसके डरपोक ताबेदार लोग उसे समय पर खतरे से आगाह नहीं कर सके।
‘फिर जब खबरें आने लगीं कि लोग धड़ाधड़ मर रहे हैं, तो राजाज्ञा हुई कि खबरियों के मुंह में कपडा ठूंसकर उनको कारागार भेज दिया जाये। वैद्यों से कहा जाये कि रोगी जनता के बीच वे बुरी खबर देने से बाज़ नहीं आये तो उनकी भी यही गति होगी।
‘कड़वी दवा नहीं, होमियोपैथी की मीठी गोलियां दो, यह राजाज्ञा हुई थी कि नहीं?’
‘हुई थी सर,’ तांत्रिक बोला।
‘तब भी जब लोग मरते रहे तो तुमने भजन कीर्तन और दीपक जलाकर ताली बजवाना आयोजित करा कर जनता का ध्यान रोग से भटकाने का कृत्य किया।’
‘राजाज्ञा थी सर, हम विवश थे’, तांत्रिक बोला। ‘हमने गोबर गोमूत्रादि का सेवन भी जितना करा सकते थे करवाया, लेकिन उससे हमारे गृहमंत्री जी की दशा गंभीर हुई तब विदेशों को गुहार लगवाई गई।’
हा...हा...हा शव हंसा, ‘और वे सब अपनी-अपनी धो रहे थे, तुम को क्या देते, अंडा? जब रोग के चरम शिखर पर जा पहुंचा और जनता को सांस लेने के लिये पर्याप्त हवा भी नहीं मिल रही थी, तब तुमने क्या किया?’
-‘बहुत सारी मीटिंगें कीं सर !’
शव ने लेटे-लेटे तांत्रिक सूबेदार के भगवा अच्छादित पृष्ठ भाग पर करारी लात मारी और बोला, ‘तो जाओ, वहै करत रहो।’ सूबेदार को सीमेंट की बोरी की तरह लुढ़का कर इन शब्दों के साथ शव उड़ा और एक पीपल के पेड़ पर जा लटका।
इति।
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