पिछले लगभग तीन दशकों से समय-समय पर कहा जाता रहा है कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसी धारणा के चलते तीसरे मोर्चे की आवश्यकता महसूस की गई। तीसरे मोर्चे से आशय है गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस दलों का गठबंधन। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी दलों ने साथ मिलकर पिछला विधानसभा चुनाव लड़ा था। परन्तु मिलकर भी वे तृणमूल कांग्रेस को परास्त नहीं कर सके। इन दिनों कई दलित पार्टियां तीसरे मोर्चे की बात कर रही हैं। असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम भी इसी दिशा में काम कर रही है।
हाल के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के महागठबंधन की बहुत कम अंतर से हार हुई। विश्लेषक अब भी इस प्रश्न से जूझ रहे हैं कि आरजेडी की सभाओं में भारी भीड़ उमड़ने और चार घंटे के नोटिस पर देश को लॉक कर देने के निर्णय के कारण आम लोगों को जो गंभीर परेशानियां भुगतनी पड़ीं, उनके बावजूद बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन क्यों और कैसे बिहार चुनाव जीत गया।
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अधिकांश विश्लेषक बिहार में बीजेपी की जीत के लिए एआईएमआईएम को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। वोटों के गणित की दृष्टि से देखा जाए तो निश्चित रूप से कुछ सीटों पर बीजेपी को एआईएमआईएम के कारण लाभ हुआ है। यह तर्क भी दिया जा रहा है कि एआईएमआईएम के चुनावी मैदान में उतरने के कारण हिन्दू मतदाताओं का बीजेपी के पक्ष में ध्रुवीकरण हो गया।
यद्यपि असदुद्दीन ओवैसी संविधान और कानून की सीमाओं के अन्दर रहते हुए अल्पसंख्यकों की समस्याओं को उठाते रहे हैं, परन्तु उनके भाई और उनकी पार्टी के अन्य नेताओं के वक्तव्य अक्सर सांप्रदायिक और विघटनकारी होते हैं। इस सिलसिले में अकबरुद्दीन ओवौसी का वह भाषण काबिलेगौर है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर पुलिस को हटा लिया जाए तो बहुसंख्यक समुदाय से निपटने में मुसलमान पूरी तरह सक्षम हैं। इस भाषण के वीडियो को सोशल मीडिया पर जम कर प्रसारित किया गया और संघ परिवार ने इसका इस्तेमाल अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए किया।
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संघ परिवार पहले ही राम मंदिर, गौरक्षा, लव जिहाद, कोरोना जिहाद आदि जैसे मुद्दों को लेकर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करता रहा है। अब ओवैसी का मुद्दा भी उसमें जुड़ गया है। भारतीय राजनीति में मुसलमानों के हाशियाकरण पर असदुद्दीन ओवैसी की चिंता जायज है। वे मुस्लिम समुदाय की सामाजिक बदहाली पर भी चिंता व्यक्त करते रहे हैं। वे भड़काऊ बातें कह कर भी उनके समुदाय को उनकी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते रहे हैं। जैसे, उन्होंने कहा था कि अगर उनकी गर्दन पर तलवार भी रख दी जाए तब भी वे ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलेंगे। उनकी पार्टी के एक विधायक ने ‘हिंदुस्तान’ शब्द का उच्चारण करने से इंकार किया है।
ओवैसी की पार्टी तीन स्तरों पर काम कर रही है। व्यक्तिगत तौर पर ओवैसी लोकसभा में काफी सक्रिय रहते हैं और मीडिया उनकी बातों को काफी तवज्जो देती है। वे मुस्लिम समुदाय के दर्द और समस्याओं को खुल कर उठाते हैं और भारत माता की जय के नारे जैसे भावनात्मक मुद्दों पर उसी तर्ज पर प्रतिक्रिया करते हैं। दूसरे, उनकी पार्टी के अन्य नेता खुलकर नफरत फैलाने वाले भाषण देते हैं। तीसरे, उनकी पार्टी लगातार अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रही है। वह महाराष्ट्र (प्रकाश अम्बेडकर के साथ), झारखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है। उसका फोकस उन निर्वाचन क्षेत्रों पर रहता है, जहां वह कांग्रेस या उसके गठबंधन साथियों को नुकसान पहुंचा सके।
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यह मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता कि मुसलमानों की सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक स्थिति में भारी गिरावट आई है। सतही तौर पर इसके लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस के शासनकाल में देश में ज्यादा संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए। बाबरी मस्जिद के ताले कांग्रेस राज में खोले गए और जब मस्जिद को गिराया गया तब भी देश में कांग्रेस सरकार थी। शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को कांग्रेस सरकार ने पलटा और देश का यह सबसे पुराना दल मोदी-बीजेपी-आरएसएस के रथ को थामने में नाकामयाब रहा।
परन्तु यह मान्यता सतही सोच पर आधारित है। जेपी के आन्दोलन का हिस्सा बन कर आरएसएस ने स्वीकार्यता हासिल की। फिर अडवाणी ने रथयात्रा निकाली और इससे बीजेपी को वह मुद्दा मिल गया, जिसका प्रयोग वो सांप्रदायिकता फैलाने और ध्रुवीकरण करने के लिए कर सकती थी। पिछले कुछ दशकों से संघ परिवार द्वारा देश का सांप्रदायिकीकरण, राजनीति में एक बड़ा मुद्दा बन कर उभरा है। इसी कारण राहुल गांधी को यह कहना पड़ा कि वे जनेऊधारी शिवभक्त हैं।
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अन्य पार्टियों को भी संघ परिवार के असंख्य संगठनों और प्रचारकों और स्वयंसेवकों की विशाल सेना के सांप्रदायिक एजेंडे के अनुरूप अपनी नीतियों को बदलना पड़ा है। संघ का जाल समाज से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में फैला हुआ है। संघ परिवार की मशीनरी किसी भी स्थिति में चुनाव जीतने की कला में सिद्धस्त बन गई है। यही कारण है कि नोटबंदी, लॉकडाउन और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को अपने प्रिय औद्योगिक घरानों को बेचने जैसे निर्णय लेने के बावजूद बीजेपी चुनावों में जीत हासिल करती जा रही है।
मुस्लिम समुदाय का एक तबका, सांप्रदायिक हिंसा के कारण असुरक्षा के भाव से पीड़ित हो गया है और शायद इसीलिए वह कट्टरपंथियों के जाल में फंस जाता है। देश में मुसलमानों के बारे में गलत धारणाएं और नफरत फैलाकर हिंसा भड़काई जा रही है। ईसाइयों के मामले में भी यही हो रहा है। हमें संप्रदायवादियों के बढ़ते प्रभाव की पृष्ठभूमि में ही यूपीए जैसे गठबन्धनों का आंकलन करना होगा। यूपीए ने सच्चर समिति का गठन किया, परन्तु भारी विरोध के चलते वह इसकी सिफारिशों पर अमल नहीं कर सकी। यूपीए सांप्रदायिक हिंसा पर कानून बनाने के लिए प्रयासरत थी, परन्तु राष्ट्रीय एकता परिषद और संसद में विरोध के कारण वह ऐसा नहीं कर सकी।
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आज कांग्रेस, यूपीए आदि को कठघरे में खड़ा करते समय हम भूल जाते हैं कि धार्मिक राष्ट्रवाद की आंधी ने समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित कर दिया है। आज हमें बिना भावनात्मकता और नाटकीयता के धार्मिक अल्पसंख्यकों के समस्यायों को उठाना होगा। साथ ही अकबरुद्दीन ओवैसी और वारिस पठान जैसे लोगों को सांप्रदायिक विषवमन करने से रोके जाने की भी जरुरत है।
सतही तौर पर जो दिखलाई पड़ रहा है उसे ही सच मान लेने से काम नहीं चलने वाला है। हमें सांप्रदायिकता के उमड़ते ज्वार से निपटना होगा। हमें उन आवाजों को मजबूती देनी होगी जो बहुवाद की हामी हैं, जो सच्चर समिति की सिफारिशों पर अमल चाहती हैं और जो सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए कानून बनाने की हिमायती हैं। कोई भी ऐसा कदम जो बीजेपी या उसके साथी दलों को मजबूत बनाता है, प्रजातंत्र को कमजोर करता है। भले ही यह या वह पार्टी बीजेपी को न हरा सके परन्तु बहुवाद और प्रजातंत्र पर आधारित गठबंधन यह कर सकता है। यदि कोई पार्टी अपने को मजबूत बनाने की प्रक्रिया में बीजेपी को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाती है तो वह प्रजातंत्र की भी क्षति करती है।
(लेख काअंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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