जमीयत-ए-उलेमा हिंद (अरशद) प्रमुख मौलाना अरशद मदनी की नई दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय केशवकुंज में सरसंघचालक मोहन भागवत से 30 अगस्त को हुई मुलाकात ने कई सवालों को जन्म दे दिया है। विपक्ष लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभों में है और जब हर देशभक्त विपक्ष को तबाह कर देने को लेकर चिंतित हो, मदनी ने ऐसा कुछ किया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। जब धर्मनिरपेक्ष शक्तियां विपक्ष को मजबूत करने के मुद्देपर एक-दूसरे की तरफ देख रही हों, जमीयत के उठाए कदम ने इस तरह की कोशिशों को गहरा धक्का पहुंचाया है।
विपक्ष के नेता अनौपचारिक बातचीत में कहते हैं कि हम धर्मनिरपेक्षता में यकीन करते हैं और उसे जीते हैं तथा धर्मनिरपेक्षता हर जाति और धर्म के अधिकारों को सुरक्षित करती है। जब हम सभी धर्म के अधिकारों की बात करते हैं, तो यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में अधिक है और अगर अल्पसंख्यकों के नेता ही सांप्रदायिक शक्तियों के सामने झुकने को तैयार हो जाएं, तो यह धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के लिए धक्का ही है।
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धर्मनिरपेक्ष दलों के नेताओं ने अपनी राजनीतिक यात्रा के दौरान सांप्रदायिक शक्तियों के साथ कभी भी समझौता नहीं किया और अल्पसंख्यकों के साथ हर वक्त खड़े रहे। मदनी-भागवत बैठक के बाद उन्हें यह सोचना पड़ेगा कि आखिर, वे किसके लिए संघर्ष कर रहे थे। इस बैठक के बाद धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के बीच पुनर्विचार शुरू हो सकता है और यह अपने आप ही धर्मनिरपेक्ष आधार का दरकना होगा।
वैसे, भागवत के साथ मदनी की गुप्त बैठक से अल्पसंख्यक समुदाय को भी गहरा धक्का पहुंचा है। समुदाय के कई नेता आरोप लगा रहे हैं कि समुदाय को विश्वास में लिए बिना, आखिर, मौलाना ने संघ प्रमुख से मुलाकात ही क्यों की। उन्हें लगता है कि इस बारे में तस्वीर साफ नहीं है कि वे क्यों मिले, उनके बीच क्या बातें हुईं। अल्पसंख्यक समुदाय महज अंदाजा लगा रहा है। चूंकि, तस्वीर साफ नहीं है, इसलिए कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं कि मौलाना मदनी व्यक्तिगत कारणों से भागवत से मिले। कुछ लोग कह रहे हैं कि एनआरसी उनके एजेंडे में सबसे ऊपर था, तो कुछ को यकीन है कि बातचीत बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर थी। मौलाना मदनी के निकटवर्ती लोगों की राय है कि बातचीत का मुख्य मुद्दा माॅब लिंचिंग था।
दावा है कि मौलाना मदनी ने प्रस्तावित बैठक के लिए केशवकुंज जाने का प्रस्ताव खुद किया। लेकिन समुदाय के नेता और आम लोग इस पर यकीन नहीं कर रहे। उन्हें लगता है कि मौलाना को केशवकुंज जाने को बाध्य किया गया। कुछ भी साफ नहीं और इस वजह से अल्पसंख्यक समुदाय में ऊहापोह है।
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मुख्यधारा से अलग-थलग करना
नरेंद्र मोदी सरकार जब 2014 में आई, तो उस वक्त नारा थाः कांग्रेस मुक्त भारत। इसका असली मतलब था- मुस्लिम मुक्त भारत। सरकार ने पहला काम यह किया कि उसने बरेलवी मुसलमानों को तरजीह देना शुरू किया। सूफी-संतों के दरगाहों और मकबरों की शीर्ष संस्था- ऑल इंडिया उलेमा एंड मशाइक बोर्ड के बैनर तले 2016 में एक चार दिवसीय सम्मेलन हुआ। इसका मकसद मुसलमानों के बीच फूट पैदा करना था, लेकिन सरकार अपने मकसद में सफल नहीं हुई।
तीन तलाक का शासन-प्रशासन से कोई ताल्लुक नहीं है और यह पूरी तरह सुधारात्मक कदम है जिस पर मुसलमान पहले से ही काम कर रहे थे। वैसे भी, इस तरह एक झटके में तलाक कुछ ही लोगों ने अख्तियार किया था। सरकार ने तीन तलाक पर कदम उठाए तो इसका मकसद मुसलमानों में मतभेद पैदा करना और उन्हें राजनीतिक तौर पर अप्रभावी बनाना था। अब, मदनी-भागवत बैठक भी मुसलमानों में मतभेद पैदा करने और उन्हें मुख्यधारा से अलग करने के लिए उठाया गया एक कदम है। जैसा कहा जा रहा है, यह बैठक मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग करने में मदद करेगी और कोई भी धर्मनिरपेक्ष पार्टीया उनके दुख-दर्द में साथ नहीं देगी।
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देवबंदी मसलक को बदनाम करना
आरएसएस और बीजेपी सरकार के लोग अच्छे तरीके से वाकिफ हैं कि देवबंदी मसलक (स्कूल ऑफ थाॅट) की मुस्लिम समाज, खास तौर पर दक्षिण एशिया, में गहरी जड़ें हैं। दारुल उलूम मिस्र के जामिया अजहर के बाद दूसरा सबसे सम्मानित इस्लामी विश्वविद्यालय है। दारुल उलूम जमीयत-ए- उलेमा की नर्सरी मानी जाती है। जमीयत मुसलमानों के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मुद्दों को लेकर काम करती है। जमीयत दारुल उलूम की प्रतिनिधि संस्था मानी जाती है और सब दिन धर्मनिरपेक्षता के साथ खड़ी रही है और वह सांप्रदायिक शक्तियों, खास तौर से संघ और इससे संबद्ध संस्थाओं, की प्रबल विरोधी रही है।
शिया, बरेलवी और अन्य मुस्लिम मसलकों ने बीजेपी और संघ के साथ खुले या छुपे ढंग से कभी-न-कभी हाथ मिलाए हैं, लेकिन जमीयत- ए-उलेमा एकमात्र ऐसा संगठन है जो सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ मजबूती से खड़ा रहा। यह पहला मौका है जब जमीयत प्रमुख ने संघ प्रमुख के साथ बैठक की है। खुद मौलाना अरशद पहले कई दफा सांप्रदायिक शक्तियों के आमंत्रण को ठुकरा चुके हैं। लेकिन इस दफा मदनी-भागवत बैठक से सांप्रदायिक शक्तियों के साथ कोई बातचीत न करने से बनी जमीयत की पहचान खतरे में पड़ गई है। इस बैठक ने देवबंदी मसलक को बदनाम कर दिया है।
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अंतरराष्ट्रीय छवि का भी सवाल
आरएसएस और मोदी सरकार- दोनों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, खास तौर से मुस्लिम देशों में, छवि अल्पसंख्यक विरोधी रही है। उनके लिए सिद्धांतों से समझौता किए बिना इस छवि को बदलना महत्वपूर्ण है। मौलना अरशद मुस्लिम जगत में इस्लामी विद्वान के तौर पर सम्मानित हैं और भागवत के साथ उनकी बैठक संघ और सरकार- दोनों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मदद करेगी। इस बैठक का खाड़ी देशों, खास तौर से सऊदी अरब पर प्रभाव होगा। संघ ने अंतरराष्ट्रीय गलियारे में बहुत चतुराई से यह खेल खेला है।
बिना एक पाई दिए पढ़ाई
दारुल उलूम की स्थापना 13 मई, 1866 को हुई थी। देवबंद शहर की आबादी करीब 1.10 लाख है। दारुल उलूम में करीब पांच हजार विद्यार्थी इस्लामी शिक्षा लेते हैं। इसकी स्थापना मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी और अन्य इस्लामी विद्वानों ने की थी। मुफ्त शिक्षा, मुफ्त मिड डे मील, मुफ्त यूनिफाॅर्म देने पर दुनिया भर की सरकारें आत्मप्रचार करती हैं, लेकिन दारुल उलूम अपनी तरह का पहला संस्थान है जहां विद्यार्थियों को ट्यूशन फी से लेकर रहने-खाने, किताबों तक के लिए कुछ भी नहीं देना पड़ता है। इसकी दूसरी खासियत यह है कि यहां विद्यार्थियों के लिए कोई आयु सीमा नहीं है। अब भी यहां एक विद्यार्थी हैं, जिनकी उम्र 80 साल है।
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दारुल उलूम न तो सरकार से कोई अनुदान लेता है, न बड़े व्यापारिक घरानों से। इसका वार्षिक बजट 35 करोड़ रुपये का है और यह छोटे-छोटे दान से चलता है और यह दान साल भर आता रहता है। समझा जाता है कि पूरे देश को 50 हिस्सों में बांट दिया गया है और यहां के वाॅलंटियर लोगों से चंदा जुटाते हैं। दारुल उलूम विदेशी चंदे तो नहीं ही लेता, अगर कोई प्रवासी भारतीय चंदा देना चाहे, तो वो यह सिर्फ एफसीआरए के जरिये देगा। यह सरकार या काॅरपोरेट से पैसे इसलिए नहीं लेता क्योंकि वह किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहता। कई दफा, खास तौर से प्राकृतिक आपदाओं और सांप्रदायिक हिंसा के दौरान चंदे कम आए और इसे आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा, लेकिन इसने खर्च सीमित कर अपने बजट का प्रबंधन किया।
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