दानिश सिद्दीकी। युवा भारतीय फोटो जर्नलिस्ट। अपनी पीढ़ी के सबसे बहादुर और दुनिया भर में सम्मानित फोटो जर्नलिस्ट। अफसोस की बात है कि वह युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में मारे गए। उनकी असमय मौत पर भारत समेत दुनिया भर के लाखों लोगों ने शोक व्यक्त किया। अफसोस जताने वालों में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेस, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी समेत तमाम बड़े-बड़े लोग रहे। लेकिन इस सूची में एक नाम अब भी गायब है: अपने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का।
मोदी की यह चुप्पी कान के परदे फाड़ने वाली है। आखिर वह सिर्फ अपने समर्थकों या उनकी पार्टी को वोट देने वालों के नहीं बल्कि पूरे 138 करोड़ भारतीयों के प्रधानमंत्री हैं! मृत्यु का कोई सियासी परचम या वैचारिक रंग नहीं होता। मृत्यु हर इंसान के लिए एक-सी है। जब एक जाने-माने भारतीय की मृत्यु हो जाती है, खासकर अगर वह वैसे हालात में मारा जाता है जिसमें दानिश की जान चली गई, देश को उम्मीद होती है कि उनका प्रधानमंत्री भी अफसोस जताएगा। कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री के पद पर बैठे व्यक्ति की बाध्यता है कि वह ऐसा करे। प्रधानमंत्री उस मृत व्यक्ति को पसंद करते थे या नहीं, यह मायने नहीं रखता। प्रधानमंत्री को बस वही करना चाहिए जो परंपरा और आधिकारिक जिम्मेदारी- दोनों के तहत उनसे अपेक्षित है।
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मोदी और उनकी ही पार्टी के एक अन्य प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के बीच अंतर को देखना आंखें खोलने वाला है। 19 मार्च, 1998 का दिन था जब वाजपेयी ने भारत के 14वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। उसी दिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अनुभवी नेता और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ई.एम. एस. नंबूदरीपाद का तिरुवनंतपुरम में निधन हो गया। ईएमएस ऐसी पार्टी से ताल्लुक रखते थे जो उस पार्टी की धुर विरोधी रही जिसकी नींव डालने वालों में अटल बिहारी वाजपेयी थे। अगर वाजपेयी भी मोदी ब्रांड सियासत करते तो वह अपने राजनीतिक दुश्मन के निधन को आसानी से नजरअंदाज कर सकते थे। ज्यादा से ज्यादा वह शोक संदेश जारी कर औपचारिकता निभा देते।
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लेकिन नहीं। उन्होंने कुछ ऐसा किया जो गैरपारंपरिक था। उन्होंने सुबह गृह मंत्री के पद की शपथ लेने वाले एल.के. आडवाणी को तिरुवनंतपुरम में कम्युनिस्ट नेता के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए दोपहर में ही सरकारी विमान से रवाना कर दिया। अंत्येष्टि के बाद माकपा के अगले महासचिव बने स्वर्गीय हरकिशन सिंह सुरजीत और हजारों अन्य शोकाकुल लोगों की मौजूदगी में आडवाणी ने ईएमएस की तारीफ की। उन्होंने कहा कि ‘वाजपेयी जी ने मुझे विशेष रूप से दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि देने के लिए भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में यहां भेजा है। मेरी पार्टी और माकपा के बीच राजनीतिक मतभेद सर्वविदित हैं। फिर भी, अटल जी और मैंने हमेशा नंबूदरीपाद जी की इस बात के लिए तारीफ की है कि जिसमें उनका यकीन रहा, उसके प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता रही। हम उनके बेदाग चरित्र की प्रशंसा करते थे। कम्युनिस्टों ने भी अपने तरीके से देश की सेवा की है।‘
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मोदी ने एक बार दावा किया था कि उनके पास “छप्पन इंच की छाती” है। यह बड़ी पौरुषपूर्ण अभिव्यक्ति थी। लेकिन छाती के आकार का उसकी ताकत से कोई लेना-देना नहीं। हां, इसका दिल से वास्ता जरूर है। अफसोस की बात है कि मोदी ने दानिश की मौत पर शोक नहीं जता कर यही साबित किया है कि उनमें इन गुणों की कमी है।
दानिश की हत्या की खबर से मोदी का दिल क्यों नहीं पिघला? क्योंकि दानिश के लेंस ने मोदी के कार्यकाल के दौरान भारत में हुई घटनाओं के बारे में कुछ भद्देसच दर्ज किए थे। फरवरी 2020 में मुंबई में हुए टेड टॉक में उन्होंने कहा था, ‘एक फोटो जर्नलिस्ट के रूप में मेरी भूमिका एक आईने की है और मैं बस सच को दिखाना चाहता हूं।’ इसलिए, कोरोना से मरने वालों के सामूहिक अंतिम संस्कार के लिए वह आईना बन जाते हैं और यह सरकार के लिए शर्मिंदगी का सबब था। उनका कैमरा रोहिंग्या शरणार्थी संकट को कैद करता है, दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों की तस्वीर उतारता है।
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खास तौर पर उनके द्वारा क्लिक की गई रामभक्त गोपाल नाम के एक युवक की 2020 की तस्वीर पूरी दुनिया में वायरल हुई। तस्वीर में गोपाल दिल्ली के जामिया इलाके में बंदूक लहराते हुए और मुसलमानों पर गोली चलाने की धमकी दे रहा था और पुलिस चुपचाप तमाशा देख रही थी। इस तस्वीर ने भी सरकार को झेंप की स्थिति में पहुंचाई थी।
उसका लेंस झूठ नहीं बोलता था। उनकी किसी तस्वीर ने हकीकत को गलत साबित करने की कोशिश नहीं की। सरकार विरोधी प्रचार को हवा देने के लिए उन्हें फोटोशॉप नहीं किया गया। लेकिन रॉयटर्स के लिए काम करने वाले इस मुस्लिम फोटोग्राफर ने दुनिया को समकालीन भारत में सच्चाई के कुछ पहलुओं को दिखाया और मोदी की नाखुशी के लिए इतना ही काफी था। नेता की चुप्पी इसलिए तेज आवाज करने वाली होती है क्योंकि जब कोई चुप्पी ओढ़ता है तो उसके समर्थकों को इशारा मिल जाता है। ऐसे ही तमाम समर्थकों ने सोशल मीडिया पर दानिश के बारे में जहर उगला। ‘कर्म का फल मिला’, ‘उसे मर ही जाना चाहिए था’ जैसे कमेंट किए गए। यह मोदी के हिंदुत्व समर्थकों की सांप्रदायिक असहिष्णुता का ही एक उदाहरण था। पिछले साढ़े सात सालों के दौरान हमने इस असहिष्णुता को बार-बार देखा है।
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सभी समाज में शरारती तत्व होते हैं जो अपने घृणित व्यवहार के लिए जाने जाते हैं। लेकिन भारत में मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली नई भाजपा के 2014 और फिर 2019 में जनादेश हासिल करने के बाद से इन तत्वों का हौसला बुलंद हो गया है और ये खुद को अधिक ताकतवर समझने लगे हैं।
दानिश की मौत हमारे पश्चिमी पड़ोस की बदसूरत और खतरनाक हकीकत पर गौर करने का भी मौका है। 1979 में तत्कालीन सोवियत संघ के आक्रमण के बाद से अफगानिस्तान लगातार संघर्ष झेल रहा है। सोवियत संघ को एक दशक बाद हार और अपमान का घूंट पीकर पीछे हटना पड़ा। दो दशक बाद एक बार फिर विनाशकारी युद्ध, हार और अपमान के साथ अमेरिका बोरिया-बिस्तर समेट रहा है। लेकिन हमारे इस लाचार पड़ोस में अब भी अमन दूर की बात लग रही। वहां चरमराती सत्ता पर काबिज सरकार और चंद महीनों के भीतर दोबारा काबुल की सत्ता को पा लेने के भरोसे से लबरेज तालिबान के बीच खूनी संघर्षचल रहा है। यही वह संघर्ष है, दानिश जिसका शिकार हो गए। वह कंधार में हो रहे संघर्ष को कवर करने के दौरान मारे गए। इस अंतहीन युद्ध में हजारों-हजार अफगान, रूसी, अमेरिकी मारे जा चुके हैं।
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उपरोक्त टेड टॉक में दानिश ने कहा था, ‘मैं एक फोटो जर्नलिस्ट हूं, जिसे इंसानियत के सबसे अच्छे, सबसे बुरे और उनके बीच की सारी चीजों को देखने का मौका मिला’। उनका जीवन इंसानियत के सबसे बुरे पहलू को दिखाने की कोशिश में खत्म हो गया। अफसोस की बात है कि उनकी मौत के बाद भी हमने अपने प्रधानमंत्री की चुप्पी और उनके कुछ समर्थकों की बीमार प्रतिक्रियाओं में भी इंसानियत की सबसे बुरी शक्ल ही देखी।
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