पाठकों को याद होगा, नए संसद भवन के निर्माण के दिनों में उसकी छत पर लगाए गए अशोक स्तंभ के सिंहों के विशालकाय प्रतिरूपों की रौद्रता को लेकर आरोपों से घिरे सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से सफाइयां आने का सिलसिला शुरू हुआ, तो जानकारों द्वारा उनके बारे में बस एक ही बात कही जा रही थी। यह कि काश, वे काबिल-ए-एतबार होतीं!
दरअसल, वे कई कारणों से काबिल-ए-एतबार नहीं थीं। इनमें पहला और सबसे बड़ा कारण यह था कि तब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार द्वारा देश के विभिन्न धर्मों-संस्कृतियों के धीर-गंभीर, शांत, समावेशी व आश्वस्तिकारी प्रतीकों को रौद्र रूप देने की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके आनुषंगिक संगठनों की कवायदों का धुआंधार 'प्रमोशन' इस हद तक निरंकुश हो चुका था कि न लोकलाज से कोई सरोकार रखने को तैयार था, न ही अपनी कोई सीमा मानने को। उसके इस प्रमोशन में कुछ नया था तो महज यही कि वह राष्ट्रीय प्रतीकों तक आ पहुंचा था।
इसे यों समझा जा सकता है कि अपने राममंदिर आंदोलन के सुनहरे दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या समेत देशदेशांतर में लोकप्रिय भगवान राम की श्रीरामपंचायतन वाली धीर, वीर और गंभीर छवि को श्रीलंका पर चढ़ाई से पहले सेतुबंध के वक्त ‘दुष्ट’ समुद्र पर कोप वाली छवि से, जिसमें वह गुस्से में धनुष पर बाण चढ़ाते दिखते हैं, प्रतिस्थापित करने में कुछ भी उठा नहीं रखा था।
Published: undefined
आज इस बात पर बहस की जा सकती है कि अपने इस मंसूबे में वह कितनी सफल हो पाई लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उसने भगवान राम की परंपरा से चली आती और लोकमानस में बहुत गहराई तक प्रतिष्ठित उदात्त छवियों का किंचित भी खयाल रखना चाहा।
वह ऐसा चाहती तो जानती कि अयोध्या का अतीत गवाह है कि उसमें भगवान राम की धनुर्धर, रावणहंता या लंकाविजेता की छवि पर उनकी आनंदकंद, प्रजावत्सल, कृपालु, समदर्शी और मूल्यचेता छवि हमेशा भारी रही है। कारण यह कि रामानंदी संप्रदाय के प्रणेता रामानंद की शिष्य परंपरा की चौथी पीढ़ी में अग्रदास ने सोलहवीं शताब्दी में रसिक संप्रदाय का प्रवर्तन किया तो अयोध्या के ज्यादातर संत-महंत उनके अनुयायी बन गए।
रामानंद के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक थे अनंतानंद जिनके शिष्य कृष्णदास पयहारी आगे चलकर आमेर के राजा पृथ्वीराज की रानी बालाबाई के दीक्षागुरू बने। अग्रदास इन्हीं कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे। उनके भगवान राम रसिकबिहारी भी हैं और कनक बिहारी भी। हां, दशरथनंदन, दीनबंधु, दारुण भवभयहारी, नवकंजलोचन, कंजमुख, करकंज पदकंजारुणम भी। उनकी कंदर्प अगणित अमित छवि नवनील नीरद सुंदरम है। उनका दिनेश और दानव दैत्यवंश निकंदनम होना इसके बाद की बात है। इसलिए वह कभी फूल बंगले में विराजते हैं और कभी हिंडोलों में झूलते हैं।
Published: undefined
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की देखरेख कर रहे श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने जब यह फैसला किया कि वह मंदिर में विराजमान रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा और पूजा वगैरह के लिए रामानंदी पूजा पद्धति का उपयोग करेगा तो उसकी आम तौर पर सराहना की गई थी। क्योंकि रामानंदी संप्रदाय को उसके उस बहुलवाद के लिए जाना जाता है जो जाता पांच पूछें नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई तक ले जाता है। यानी भगवान राम के सामने जाति, गोत्र, वर्ग और वर्ण आदि के निषेध तक। लेकिन अब रामानंदी संप्रदाय की ओर से कहा जा रहा है कि ट्रस्ट ने अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए उसकी पूजा पद्धति को अंगीकार करने का ऐलान जरूर किया था लेकिन अब घालमेल कर रहा है।
दूसरी ओर, समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने अपने ‘राम, कृष्ण और शिव’ शीर्षक निबंध में संकेत किया है कि अयोध्या लंकाविजय के राम के पराक्रम को उतना भाव नहीं देती जितना इसको कि लंका को जीतने के बाद भी उन्होंने उसे हड़पा नहीं और विभीषण को सौंपकर चले आए और उदार व उदात्त मानवीय मूल्यों के प्रतिनिधि बने रहे। उन्हें राज्य का लोभ क्योंकर होता, वे तो अपने ‘बाप का राज भी बटेऊ की नाईं’ तजकर बन चले गए थे। उनके द्वारा प्रतिष्ठित यही मूल्य अयोध्या में श्रीरामपंचायतन की परंपरा से चली आती तस्वीरों में भी दिखाई देते हैं। उनमें वह महारानी सीता और अपने तीनों भाइयों के साथ सबके लिए आश्वस्तिकारक मुद्रा में दिखाई देते हैं।
Published: undefined
लेकिन, विश्व हिन्दू परिषद ने हमेशा उनकी रौद्र रूप वाली धनुर्धर छवि ही आगे की। इसका उद्देश्य क्या था, बताने की जरूरत नहीं है। वैसे ही जैसे यह बताने की जरूरत नहीं है कि नई संसद पर स्थापित अशोक स्तंभ के सिंहों को रौद्र रूप क्यों दिया गया? सरकार के समर्थक सोशल मीडिया पर यों ही नहीं कहा गया कि वे सिंह हैं तो कभी न कभी दहाड़ेंगे ही और जरूरत हुई तो काट भी खाएंगे।
तब योगेंद्र यादव ने अपने एक स्तंभ में गलत नहीं लिखा था कि अशोक-स्तंभ पर उत्कीर्ण शेर धर्मचक्र पर प्रतिष्ठित हैं, यानी उनकी ताकत का स्रोत धर्म है। लेकिन मोदी के सेंट्रल विस्टा पर कायम शेर धर्मचक्र पर चढ़े हुए हैं, वे स्वयं ही शक्तिस्वरूप हैं। मूल प्रतीक के शेरों के जैसी उसकी प्रतिकृति के शेर कुछ वैसे ही हैं जैसे हनुमान की पहले की तस्वीरों की जगह आजकल की रौद्र हनुमान वाली तस्वीर। या फिर यों कहें कि विधि-सम्मत राज-व्यवस्था और बुलडोजरी राजसत्ता के बीच जो अंतर है वैसा ही अंतर अशोक-स्तंभ के शेरों और उसकी प्रतिकृति के शेरों के बीच है।
Published: undefined
यह विश्वास करने के कारण हैं कि संघ परिवार द्वारा यह सारी कवायद बहुत सोच-समझकर और दूरगामी लक्ष्यों को ध्यान में रखकर की जाती रही हैं। फिर वह यह समझने की जहमत भला उठाए ही क्यों कि इससे भगवान राम के उस रूप को नेपथ्य में ले जाने या छिपाने की उसकी नीयत कितनी बेपर्दा होती है जिसके कारण महात्मा गांधी उन्हें रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन और सबको सन्मति देने वाले बताते थे।
वह यही क्यों समझे कि पुराने अशोक स्तंभ में ‘बौद्ध सिंह’ थे जबकि संसद के नए भवन के अशोक स्तंभ में ‘वैदिक सिंह’ हैं और 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति'।
किसे नहीं मालूम कि इस परिवार की जमातें अपने तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जड़ें जमाने के लिए ‘प्रतीक कुछ तो कुव्याख्या कुछ’ की राह चलती रहती हैं। जहां तक भगवान राम की बात है, उन्हें तो उसने अरसे से अपनी सत्ता की राजनीति का हथियार बना रखा है। इसके लिए वह चाहता है कि वह सर्वव्यापी, साथ ही सबको आश्वस्त और निर्भय करने वाले होने के बजाय समुदाय विशेष के लिए भय का कारण बन जाएं।
निस्संदेह यह सारे सदाशयी हिन्दुओं के लिए सोचने का समय है कि ऐसा हुआ तो क्या सबसे ज्यादा क्षति उनके धर्म को ही नहीं पहुंचेगी?
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined