जल्दी ही पृथ्वी पर मनुष्यों की संख्या 8 अरब से भी अधिक हो जायेगी। जाहिर है, तमाम समस्याओं के बाद भी मनुष्यों की संख्या हरेक दिन बढ़ती जा रही है, पर दुखद यह है कि पृथ्वी पर शेष प्रजातियां खतरे में हैं और उनकी संख्या घटती जा रही है। हाल में ही वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड और जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित रिपोर्ट, लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट, के अनुसार दुनियाभर में जंतुओं की संख्या पिछले 48 वर्षों के दौरान औसतन 69 प्रतिशत कम हो गयी है। इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा जाना है, जबकि मानव की उपभोक्तावादी आदतें और सभी तरह के प्रदूषण दूसरे मुख्य कारण हैं। रिपोर्ट के अनुसार पक्षियों, मछलियों, उभयचरों और सरीसृप वर्ग के जंतुओं में वर्ष 1970 से 2018 के बीच दो-तिहाई की कमी आ गई है। यह कमी महासागरों से लेकर अमेजन के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों तक– हरेक जगह देखी जा रही है।
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इस रिपोर्ट को हरेक दो वर्ष के अंतराल पर प्रकाशित किया जाता है। नई रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जंतुओं की संख्या में 69 प्रतिशत की कमी आ गई, पिछले रिपोर्ट में यह कमी 68 प्रतिशत थी, जबकि 4 वर्ष पहले जंतुओं की संख्या में महज 60 प्रतिशत कमी ही आंकी गई थी। इस रिपोर्ट को दुनियाभर के 89 वन्यजीव विशेषज्ञों ने तैयार किया है, और बताया है कि यह दौर पृथ्वी पर जैव-विविधता के छठे सामूहिक विलुप्तीकरण का है। इस विलुप्तीकरण और पहले के 5 विलुप्तीकरण के दौर में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पहले के विलुप्तीकरण की घटनाएं प्राकृतिक कारणों से हुईं, जबकि इस दौर में प्रजातियां मनुष्यों की गतिविधियों के कारण संकट में हैं।
इस अध्ययन को जंतुओं की 5230 प्रजातियों के 32000 समूहों पर किया गया है। जंतुओं के विनाश का सबसे बड़ा क्षेत्र दक्षिण अमेरिका महाद्वीप है, जहां पिछले 48 वर्षों के दौरान इनकी संख्या में 94 प्रतिशत की कमी आंकी गई है। इस महाद्वीप पर स्थित अमेजन के वर्षा वनों को धरती का फेफड़ा कहा जाता है, पर इन वर्षा वनों का तेजी से विनाश किया जा रहा है। अफ्रीका के 66 प्रतिशत जंतु समाप्त हो चुके हैं, जबकि एशिया पसिफिक में यह आंकड़ा 55 प्रतिशत है। उत्तरी अमेरिका के 20 प्रतिशत प्राणी समाप्त हो चुके हैं, जबकि यूरोप के 18 प्रतिशत जंतु समाप्त हो चुके हैं।
जंतुओं की संख्या कम होने का सबसे बड़ा कारण वनों को काट कर औद्योगिक खेती को बढ़ावा देना है। पृथ्वी पर भूमि उपयोग में तेजी से परिवर्तन आ रहा है, दूसरी तरफ नदियों की स्वच्छंद धारा को रोका जा रहा है, जबकि महासागरों में प्रदूषण जीवों के लिए जानलेवा होता जा रहा है।
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पृथ्वी एक बड़े खेत में तब्दील होती जा रही है, और कृषि भूमि के विस्तार के कारण जैव-विविधता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। भूमि उपयोग में परिवर्तन के कारण दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में बढ़ोत्तरी हो रही है जो तापमान वृद्धि में सहायक है। यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड के भूगोल विभाग के वैज्ञानिकों के अनुसार केवल पिछले दो दशकों के दौरान, यानि वर्ष 2000 से 2019 के बीच पृथ्वी पर 10 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक ऐसे भूभाग पर खेती के शुरुआत की गयी है जहां पहले खेती नहीं होती थी। इन नए क्षेत्रों में मुख्य तौर पर गेहूं, धान, मक्का, सोयाबीन और पाम आयल की खेती की जा रही है। खेती के क्षेत्र में अधिकतर बढ़ोत्तरी गरीब देशों में हो रही है, जहां अमीर देशों का पेट भरने के लिए खेती की जा रही है। अब औद्योगिक देश अपनी जरूरतों के लिए गरीब देशों में कृषि को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे अमीर देशों का पर्यावरण सुरक्षित रहे, पानी की बचत हो और महंगे मानव संसाधन से बच सकें।
जितने भी नए क्षेत्र में कृषि की जा रही है, उसमें से आधे से अधिक क्षेत्र वन क्षेत्र था या फिर प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा था। इससे एक तरफ तो जैव-विविधता प्रभावित हो रही है तो दूसरी तरफ तापमान बृद्धि का संकट गहरा होता जा रहा है। इस अध्ययन के मुख्य लेखक मैट हंसें के अनुसार पृथ्वी पर मनुष्य का बढ़ता दायरा प्रकृति के लिए एक बड़ा संकट है। दुनिया में कितनी कृषि भूमि है, इसका सही आकलन करना कठिन है क्योंकि अधिकतर अध्ययन केवल छोटे दायरे में किये जाते है। संयुक्त राष्ट्र का फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन इसके आंकड़े रखता तो है, पर इसके लिए वह हरेक सदस्य देश पर निभर करता है और हरेक देश में इसका आकलन अलग तरीके से किया जाता है। यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड के वैज्ञानिकों ने पिछले दो दशक के दौरान पृथ्वी पर कृषि क्षेत्र में विस्तार के आकलन के लिए अमेरिका के जियोलाजिकल सर्वे द्वारा प्रक्षेपित उपग्रह द्वारा भेजे गए चित्रों का सहारा लिया है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह था कि पूरी पृथ्वी के चित्र उपलब्ध थे।
एंप्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वर्तमान दौर में पृथ्वी अपने इतिहास के छठे जैविक विनाश की तरफ बढ़ रही है। इससे पहले लगभग 44 करोड़ वर्ष पहले, 36 करोड़, 25 करोड़, 20 करोड़ और 6.5 करोड़ वर्ष पहले ऐसा दौर आ चुका है। पर, उस समय सब कुछ प्राकृतिक था और लाखो वर्षों के दौरान हुआ था। इन सबकी तुलना में वर्तमान दौर में सबकुछ एक शताब्दी के दौरान ही हो गया है। वर्तमान दौर में केवल विशेष ही नहीं बल्कि सामान्य प्रजातियां भी खतरे में हैं। इसका कारण कोई प्राकृतिक नहीं है, बल्कि मानव जनसंख्या का बढ़ता बोझ और इसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है। आज हालत यह है कि लगभग सभी प्रजातियों के 50 प्रतिशत से अधिक सदस्य पिछले दो दशकों के दौरान ही कम हो गए। अगले 20 वर्षों के दौरान पृथ्वी से लगभग 500 जन्तुवों की प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगीं, जबकि पिछली पूरी शताब्दी के दौरान इतनी प्रजातियां विलुप्त हुई थीं। वैज्ञानिकों के अनुसार यह सब मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण हो रहा है, अपने सामान्य दौर में इतनी प्रजातियों को विलुप्त होने में लाखों वर्ष बीत जाते हैं।
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संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार वर्तमान में लगभग दस लाख प्रजातियां विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रहीं हैं, और आज के दौर में प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर पृथ्वी पर जीवन पनपने के बाद के किसी भी दौर की तुलना में 1000 गुना से भी अधिक है। यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार वर्ष 2070 तक जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के प्रभाव से दुनिया की जैव विविधता दो-तिहाई ही रह जाएगी और एक-तिहाई विविधता विलुप्त हो चुकी होगी। यह अपने तरह का सबसे बृहद और विस्तृत अध्ययन है, और इसमें कई ऐसे पैमाने को शामिल किया गया है, जिसे इस तरह के अध्ययन में अबतक अनदेखा किया जाता रहा है। इसमें पिछले कुछ वर्षों में विलुप्तीकरण की दर, प्रजातियों के नए स्थान पर प्रसार की दर, जलवायु परिवर्तन के विभिन्न अनुमानों और अनेक वनस्पतियों और जन्तुओं पर अध्ययन को शामिल किया गया है। इस अध्ययन को कुछ महीनों पहले प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंसेज के अंक में प्रकाशित किया गया था और इसे यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना के डिपार्टमेंट ऑफ इकोलॉजी एंड ईवोल्युशनरी बायोलॉजी विभाग के क्रिस्चियन रोमन पलासिओस और जॉन जे वेंस ने किया था।
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इस अध्ययन के लिए दुनिया के 581 स्थानों पर वनस्पतियों और जंतुओं की कुल 538 प्रजातियों का विस्तृत अध्ययन किया गया है। ये सभी ऐसी प्रजातियां थीं जिनका अध्ययन वैज्ञानिकों ने दस वर्ष या इससे भी पहले किया था। इसमें से 44 प्रतिशत प्रजातियां वर्तमान में ही एक या अनेक स्थानों पर विलुप्त हो चुकी हैं। इन सभी स्थानों पर जलवायु परिवर्तन के आकलन के लिए 19 पैमाने का सहारा लिया गया। इस दृष्टि से यह जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में प्रजातियों पर प्रभाव से सम्बंधित सबसे विस्तृत और सटीक आकलन है। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है की यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया तो अगले 50 वर्षों में पृथ्वी से वनस्पतियों और जंतुओं की एक-तिहाई जैव-विविधता हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर की सूचि में कुल 93577 प्रजातियां हैं, इनमे से 26197 पर विलुप्तीकरण का खतरा है और 872 विलुप्त हो चुकी हैं। अधिकतर वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण आज मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बढ़ा खतरा बन चुका है। पृथ्वी पर सभी प्रजातियां एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं, इसलिए प्रजातियों का विलुप्तीकरण पृथ्वी पर मानव अस्तित्व के लिए भी खतरा है।
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